नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार और उसके परिवार के सदस्यों की हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे 11 दोषियों की रिहाई को चुनौती देने वाली एक याचिका पर गुरुवार को केंद्र और गुजरात सरकार को नोटिस जारी किए और पूछा कि दोषियों को छूट देने पर विचार करते वक्त क्या विवेक का इस्तेमाल किया गया था?
याचिकाकर्ताओं को मामले में पक्षकार बनाने को कहा
प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमन्ना की अगुवाई वाली पीठ ने याचिकाकर्ताओं को सजा में छूट पाने वाले सभी 11 लोगों को मामले में पक्षकार बनाने को कहा. इस पीठ में न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ भी शामिल थे. न्यायालय ने मामले को दो सप्ताह बाद सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया.
गोधरा में 2002 में ट्रेन जलाए जाने के बाद गुजरात में भड़की हिंसा के दौरान बिलकिस बानो से सामूहिक बलात्कार किया गया था. उस समय उसकी आयु 21 वर्ष थी और वह पांच महीने की गर्भवती थी. इस दौरान जिन लोगों की हत्या की गई थी, उनमें उसकी तीन साल की बेटी भी शामिल थी.
गुजरात सरकार की माफी नीति के तहत इस साल 15 अगस्त को गोधरा उप-कारावास से 11 दोषियों की रिहाई से जघन्य मामलों में इस तरह की राहत के मुद्दे पर बहस शुरू हो गयी है. ये दोषी 15 साल से अधिक समय जेल में रहे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) नेता सुभाषिनी अली, पत्रकार रेवती लाल और सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा रानी ने उच्चतम न्यायालय में यह याचिका दायर की है.
याचिका पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने क्या कहा?
न्यायालय ने इस याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि सवाल यह है कि छूट देने पर विचार करते समय क्या विवेक का इस्तेमाल किया गया था और क्या यह कानून के दायरे में रहकर किया गया? पीठ ने टिप्पणी की, 'यह रोजाना की बात है कि जो दोषी हैं और जिन्होंने अपनी सजा पूरी कर ली है, वे छूट के पात्र हैं.... अपवाद क्या है?'
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सुनवाई के दौरान मामले के तथ्यों का जिक्र किया और कहा कि नाबालिगों समेत कई लोगों की हत्या की गई थी और एक गर्भवती महिला से बलात्कार किया गया था. उन्होंने कहा, 'इन परिस्थितियों में एकमात्र प्रश्न यह है कि छूट के संदर्भ में न्यायालय की न्यायिक समीक्षा क्या है?'
पीठ ने टिप्पणी की कि आरोपियों ने जो भी कृत्य किया, उन्हें उसके दिए अदालत ने दोषी ठहराया और उन्हें सजा दी गई. सिब्बल ने कहा कि याचिकाकर्ता चाहते हैं कि शीर्ष अदालत रिकॉर्ड पर गौर करे और यह पता करे कि क्या (इस मामले में) विवेक का इस्तेमाल किया गया था?
प्रधान न्यायाधीश ने इस साल मई में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जिक्र किया. न्यायालय ने कहा कि गुजरात सरकार हत्या के एक मामले में आजीवन कारावास की सजा पाए एक दोषी की समय-पूर्व रिहाई के लिए दायर अर्जी की समीक्षा करने के योग्य 'उपयुक्त सरकार' है.
याचिका पर नोटिस जारी करेगी अदालत
हत्या के इस मामले को वहां की एक अदालत से अगस्त 2004 में सुनवाई के लिए मुंबई की अदालत में भेजा गया था. पीठ ने कहा कि वह याचिका पर नोटिस जारी करेगी. मामले में पेश हुए एक वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता इस मामले में आपराधिक अभियोजन का 'तीसरा पक्ष' हैं और जिन लोगों को छूट दी गई है, उन्हें याचिका में पक्षकार नहीं बनाया गया है.
पीठ ने सिब्बल से पूछा, 'आपने उन्हें प्रतिवादी के रूप में पक्षकार क्यों नहीं बनाया?' सिब्बल ने कहा कि याचिकाकर्ता उन्हें इस मामले में पक्षकार बनाएंगे. पीठ ने कहा, 'याचिकाकर्ताओं को (सरकारी) आदेश के आधार पर रिहा किए गए व्यक्तियों को पक्षकार बनाने का निर्देश दिया जाता है... नोटिस जारी करें. मामले को दो सप्ताह बाद सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया जाए.'
न्यायालय बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार मामले के 11 दोषियों को गुजरात सरकार द्वारा रिहा किए जाने को चुनौती देने वाली याचिका को सूचीबद्ध करने पर विचार करने के लिए 23 अगस्त को सहमत हो गया था. शीर्ष अदालत ने इससे पहले गुजरात सरकार से छूट की याचिका पर विचार करने को कहा था.
सुप्रीम कोर्ट में एक अलग याचिका दाखिल की
तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने भी मामले में दोषियों की रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक अलग याचिका दाखिल की है. गौरतलब है कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस पर हमले और 59 यात्रियों, मुख्य रूप से ‘कार सेवकों’ को जलाकर मारे जाने के बाद गुजरात में भड़की हिंसा के दौरान तीन मार्च, 2002 को दाहोद में भीड़ ने 14 लोगों की हत्या कर दी थी. मरने वालों में बिलकिस बानो की तीन साल की बेटी सालेहा भी शामिल थी.
घटना के समय बिलकिस बानो गर्भवती थी और वह सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई थी. इस मामले में 11 लोगों को दोषी ठहराते हुए उम कैद की सजा सुनाई गई थी. मुंबई की विशेष सीबीआई अदालत ने 21 जनवरी 2008 को सभी 11 आरोपियों को बिलकिस बानो के परिवार के सात सदस्यों की हत्या और उनके साथ सामूहिक दुष्कर्म का दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी. बाद में इस फैसले को बंबई उच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा था.
इन दोषियों ने 15 साल से अधिक कारावास की सजा काट ली थी जिसके बाद एक दोषी ने समय-पूर्व रिहा करने के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था, जिसपर शीर्ष अदालत ने गुजरात सरकार को मामले पर विचार करने का निर्देश दिया था.
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