नई दिल्लीः पूर्व केंद्रीय मंत्री व कांग्रेस के नेता Buta Singh नहीं रहे. उनके बारे में बात करने से पहले कांग्रेस के अतीत में चलते हैं. यह आपातकाल के बाद का दौर था. 1977 में कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई. इंदिरा गांधी आत्ममंथन प्रक्रिया से गुजर रही थीं. सब कुछ सिरे से सोचने पर बहुत सी बातें सामने आईं. पहली बात रही कि निशान बदलना होगा.
Congress के निशान का किस्सा
कांग्रेस टूट चुकी थी और कांग्रेस (I) के सामने खुद को असल साबित करने का संघर्ष भी था. उधर इसके पहले का चुनाव चिह्न गाय-बैल की जोड़ी को लोग इंदिरा-संजय से जोड़कर मजाक भी उड़ाते थे. ऐसे में आगे आए बूटा सिंह. चुनाव आयोग ने उन्हें तीन विकल्प दिए. हाथ, हाथी या साइकिल.
किस्सा है कि बूटा सिंह ने जब इंदिरा गांधी को फोन किया तो उन्होंने कहा हाथ ही ठीक रहेगा. इंदिरा अब किसी पशु को निशान बनाने के मूड में थी नहीं. उन्हें सुनाई दिया हाथी (हाथ ही) इंदिरा ने कहा- नहीं... हाथ. उधर से बूटा सिंह बोले, मैं भी तो हाथ ही बोल रहा हूं. इंदिरा ने फिर हाथी सुना. अबकी बार दोनों ओर कुछ सेकेंड की चुप्पी रही. बूटा सिंह बोले.. पंजा. इंदिरा बोलीं हां हां पंजा-पंजा.
इस तरह नई कांग्रेस का चुनाव चिह्न बना हाथ का पंजा. 1980 में कांग्रेस ने जीत दर्ज की. बूटा सिंह का चयन काम आया. तब कौन जानता था कि कभी कांग्रेस के चिंतक, राजीव गांधी के सहयोगी. इंदिरा को हाथ दिलवाने वाले Buta Singh भविष्य के 2014 में हाथ का साथ छोड़कर उसी साइकिल पर सवार होंगे, जिसे उन्होंने कांग्रेस के लिए ठुकराया था. 2014 में बूटा सिंह सपा में शामिल हो गए थे.
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राजीव गांधी के बेहद करीबी
इंदिरा गांधी के निधन के बाद उनके सभी करीबी और खेमे के लोग खुद ही राजीव गांधी के हमनवां हो गए थे. सिवाय पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के. लेकिन यह एक अलग कहानी है. अभी के लिए सिर्फ बूटा सिंह. तो बूटा सिंह का प्रभाव कुछ ऐसा था कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी नहीं चाहते थे कि बूटा सिंह चुनाव हारें.
राजीव गांधी की कांग्रेस में बूटा सिंह नंबर 2 की स्थिति में रहे. इस स्थिति को समझने के लिए आज आप PM Modi और गृहमंत्री Amit Shah की ओर देख सकते हैं.
पत्रकारों के सामने राजीव गांधी अक्सर कह देते थे., 'Buta Singh जी, अब अपनी कृपाण अंदर रखिए'.
सियासी गली में चर्चा थी कि ऐसा कहते ही कांग्रेसी-गैर कांग्रेसी सब राहत की सांस लेते थे. मुख्यमंत्री हटाने हों, सरकार गिरानी हो, नए समीकरण बिठाने हों. सबका एक हल- Buta Singh
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राजस्थान की सक्रिय राजनीति, एक संयोग
यह एक संयोग मात्र था कि पंजाब का चेहरा और दलित मसीहा कहलाने वाले बूटा सिंह राजस्थान की चुनावी जमीन में आ गए. यह ऑपरेशन Blur Star के बाद का समय था. साल था 1984. 1984 में पंजाब में कांग्रेस के लिए जीत मुश्किल थी. राजीव गांधी अपने सशक्त साथियों पर हार की छाप नहीं चाहते थे.
इसलिए आनन-फानन में सीटें बदली गईं. राजीव गांधी Buta Singh की जीत सुनिश्चित करना चाहते थे, लिहाजा बूटा सिंह को कांग्रेस का गढ़ कहे जाने वाली जालोर सीट से दी गई. चुनाव हुआ, जैसा राजीव चाहते थे वह हुआ. Buta Singh जीत गए. वह 1984 से लगातार 1999 तक जालौर सीट से चुनाव लड़ते रहे.
मन मसोस कर रह गए थे नीतीश
आज के दिन सरदार Buta Singh का नाम लेते हुए अभी के बिहार के CM नीतीश कुमार की ओर भी देख लेना चाहिए. गौर से देखने पर उनके माथे की वह पुरानी शिकन उभर कर आ जाएगी, जो 2005 में उनकी पेशानी पर बल पड़ने से बनी थी.
नीतीश CM बनने की पूरी तैयारी में थे और राज्यपाल रहे Buta Singh ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी थी. इसके बाद राज्यपाल की भूमिका और केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस निर्णय पर बड़ा राजनीतिक विवाद हुआ था.
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यह था मामला
5 मार्च, 2005 को बिहार में बारहवीं विधानसभा का कार्यकाल आधी रात को समाप्त हो गया था. छह मार्च से पहले बिहार में नई सरकार का गठन हो जाना चाहिए था, लेकिन कोई भी दल या गठबंधन 122 विधायकों की जरूरत पूरी नहीं कर पा रहा था. RJD की राबड़ी देवी ने 91 विधायकों के समर्थन के अलावा 10 और विधायकों के सपोर्ट (कुल 101) की बात कहते सरकार बनाने का दावा किया था.
वहीं NDA ने 102 विधायकों के समर्थन का दावा किया था. इसके बाद बिहार के तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने साफ कर दिया था कि जब तक कोई भी राजनीतिक गठबंधन 122 विधायकों के समर्थन की चिट्ठी नहीं देता वे किसी को भी सरकार बनाने के लिए आमंत्रित नहीं करेंगे. उनका यह फैसला उन्हें विवादित बनाता है.
पूरा करियर एक नजर में
अकाली दल से राजनीति शुरू की. PM रहे नेहरू के दौर 1960 में कांग्रेस से जुड़े. 1962 में पहली बार सांसद बन लोकसभा पहुंचे. आठ बार सांसद रहे. केंद्रीय मत्री रहे. राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रहने के अलावा उन्होंने अपनी पहचान पंजाब के बड़े दलित नेता के रूप में बनाई.
1978 से 80 तक कांग्रेस के महासचिव रहे. सक्रिय राजनीति में दौर पूरा होने के बाद वे 2004 से 2006 तक बिहार के राज्यपाल रहे. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति कमीशन के चेयरमैन भी बने.अपने लंबे राजनीतिक सफर के दौरान वह भारत सरकार में केंद्रीय गृह मंत्री, कृषि मंत्री, रेल मंत्री और खेल मंत्री रहे.
पूर्व केंद्रीय मंत्री Buta Singh के निधन पर सियासी गली उन्हें श्रद्धांजलि दे रही है.
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