राम मंदिर के पक्ष में भी मुसलमानों के कई फिरके

मुसलमानों के कई नेता राम मंदिर का उग्र विरोध का नाटक कर रहे है. औवैसी और रशीदी जैसे लोग अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस मुद्दे को जिंदा रखना चाहते हैं. लेकिन उनके पास जनसमर्थन नहीं है. यही नहीं राम मंदिर पर मुस्लिम नेताओं के बीच आपस में भी मतभेद स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं. 

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Aug 7, 2020, 06:52 AM IST
    • भूमि पूजन की तैयारियों से लेकर अनुष्ठान संपन्न होने तक एक खास तबका रहा जो इस पूरे आयोजन और कार्यक्रम पर नाखुशी जाहिर करता रहा.
    • वोहरा मुसलमान पहले ही मंदिर को लेकर अपना समर्थन दे चुके हैं.
    • शिया मुसमानो का भी मंदिर को लेकर कोई विरोध नहीं
    • इसके बावजूद कई सुन्नी नेता अभी भी कर रहे हैं भड़काऊ राजनीति
राम मंदिर के पक्ष में भी मुसलमानों के कई फिरके

नई दिल्लीः अयोध्या की पावन भूमि पर श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का शिलान्यास और भूमि पूजन हो चुका है. दूसरी ओर विवाद की वजह बनी बाबरी मस्जिद के हक के लिए कोर्ट गए मुस्लिम समुदाय को भी अपनी इबादतगाह बनाने के लिए जमीन दी गई है. इस तरह एक नजर में 500 साल की चली आ रही दीन-धर्म की लड़ाई को खत्म हुआ समझिए. 

लेकिन, लेकिन, लेकिन...अभी ठहरिए.. जैसा सीधा-सरल दिख रहा है, ऐसा हुआ नहीं है. लोग होने नहीं दे रहे है. तमाम तरह की बातें कर रहे हैं, जहर भी उगल रहे हैं और आग भी लगाने की कोशिश कर रहे हैं. कौन लोग हैं ये, कहां से आते हैं ये लोग? सवाल बड़ा है और जवाब पेचीदा. 

खुद मुस्लिम समाज कई खांचों में बंटा है
दरअसल, जिस पंथ निरपेक्षता की दुहाई देकर देश में एकतरफा भाईचारे का जोर डाला जाता है, उसे जरा ज़ूम कर-करके देखिए. तस्वीर बिल्कुल साफ दिखेगी. तब आपको यहां सिर्फ हिंदू-मुस्लिम जैसे दो खांचे नहीं दिखेंगे.

आपको दिखेंगे. हिंदु और मुलसमान, शिया मुसलमान, सुन्नी मुसलमान, अहमदी और वोहरा... ज़ूम करते जाइए, खांचे देखते जाइए. 

साफ दिखेगा कठमुल्लेपन का नजरिया
इतनी बारीकी से पिक्सल देखने के पीछे की वजह भी दिलचस्प है. वजह यह है कि जैसे-जैसे तस्वीर के पिक्सल बढ़ेंगे देखने वाले की आंखें कठमुल्ले पन की सोच को भी बारीकी से देख पाएंगी. यह वही सोच है जो समाज में औरतों को शिक्षा और बराबरी का हक देने से कतराती है.

यह वही नजरिया है जो तीन तलाक को अब भी जिंदा देखना चाहता है. यह वही दिमागी फितूर है जो कि मंदिर बनने पर ऐलानिया जंग पर उतारू हो जाता है. 

एक धड़ा अकेले ही है मंदिर से नाखुश
भूमि पूजन की तैयारियों से लेकर अनुष्ठान संपन्न होने तक एक खास तबका रहा जो इस पूरे आयोजन और कार्यक्रम पर नाखुशी जाहिर करता रहा. न सिर्फ भूमि पूजन, बल्कि बीते साल जब सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या मामले में फैसला आया तो भी एक धड़ा इससे असंतुष्ट था. 

सीधे तौर पर कहें तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले सभी मुसलमान कह रहे थे कि जो भी फैसला आएगा हम मानेंगे. वह मान्य होगा. इसे लेकर कोई खींचतान नहीं होगा. इकबाल अंसारी जो कि मस्जिद पक्ष की ओर से पैरोकार थे, उन्होंने भी खुले तौर पर कहा कि कोर्ट का फैसला हर दृष्टि में सर्वमान्य होगा. 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हुआ दो फाड़
लेकिन जब फैसला आया तो हुआ ठीक इसके विपरीत. शिया मुसलमानों ने तो अयोध्या में मंदिर और रामलला की जन्मभूमि होने के फैसले का स्वागत किया, सुन्नी मुसलमान बड़ा दिल नहीं दिखा पाए. कुल मिलाकर हम साथ हैं, हम साथ हैं वाला जो नारा गढ़ा गया वह फैसला आते ही फीका स्वागत हुआ.

देशभर के शिया मुसलमानों ने तो खुलकर कहा कि राम मंदिर भारत में नहीं बनेगा तो कहां बनेगा, लेकिन सुन्नी मुसलमान इस सकारात्मक सोच का परिचय नहीं दे पाए ऐसे में पंथ निरपेक्षता महज स्वांग बनकर रह जाती है.  

ओवैसी की बयानबाजी
ताजा उदाहरण भूमि पूजन का ही लेते हैं, राजनीतिक दल एआईएमआईएम के नेता असद्दुदीन ओवैसी को लेते हैं.

भूमिपूजन के मामले पर वह लगातार पीएम मोदी को निशाने पर लेने की कोशिश कर रहे हैं और जिस तरह की बयानी कर रहे हैं वह सिर्फ एक खास तरह की सोच और नजरिए को मुखर करती है. 

विरोध का माहौल बनाने की असफल कोशिश
ओवैसी ने कहा कि मैं भावुक हूं कि वहां 450 साल तक मस्जिद थी. इसके साथ ही वे संविधान की शपथ और कानूनों का हवाला देने लगे. उन्होंने एक बार फिर विवादित ढांचे को बाबरी मस्जिद गिराई गई

ऐसा कहकर देशभर में विरोध का एक अलग ही माहौल बनाने की कोशिश की, जो कि अक्सर मुस्लिम समाज के कथित रहनुमाओं की कोशिश रही है. 

साजिद रशीदी के जहरीले बोल
इसी तरह मौलामा साजिद रशीदी ने तो जहर बोने की हर हद पार करते हुए कहा कि राम मंदिर बनने के बाद उसे गिराकर मस्जिद बनाएंगे. कहा कि विवादित जगह मस्जिद थी, मस्जिद ही रहेगी. इस पर संविधान की दुहाई देने वाले ओवैसी बताएं कि क्या रशीदी का यह बयान संवैधानिक श्रेणी में आता है. क्या इसी बुनियाद पर भाईचारे को टिकाए रखने कि कोशिश होती है. 

यह सवाल बड़ा है और विचारणीय भी. क्योंकि अगर भारत एक पंथनिरपेक्ष देश है तो क्या इस तरह की हिंसात्मक बयानबाजियों की छूट पर? 

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लेकिन विरोधी बयानवीर अकेले ही खड़े हैं
यह भी देखने वाली बात है कि विरोध का गाना गाने वाले जितने बयानवीर हैं, वे अकेले ही खड़े हैं. न तो उनके साथ समुदाय के तौर पर कोई साथ ही और न ही अब मुस्लिम जनता ही उनके साथ कोई सरोकार कर रही है. जनता भी समझती है कि उनके यह कथित रहनुमा सिर्फ मुद्दों को जिंदा रखना चाहते हैं. उसके हल में उनका कोई रुझान नहीं है. 

शिया नेताओं ने निभाया है भाईचारा
लिहाजा वह ओवैसी और रशीदी के जहरीले बोलों के बजाय वसीम रिजवी (शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन) की बात पर हामी भरना ठीक समझती है. वसीम रिजवी फैसले के वक्त से इसे भाईचारे की मिसाल बता रहे हैं. इसे लेकर उनकी सुन्नी मुस्लिम नेताओं से उनका विरोध भी रहा, लेकिन सुन्नी नेता अकेले पड़ गए. 

वसीम रिजवी की दो टूक
भूमि पूजन के दौरान भी जब अधिक जहर बोने की कोशिश की जाने लगी तो रिजवी ने कहा कि जो लोग अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनाने का विरोध कर रहे हैं और बाबरी मस्जिद चाहते हैं… ऐसे कट्टर मानसिकता वाले लोगों को पाकिस्तान या बांग्लादेश चले जाना चाहिए.

ऐसे मुसलमानों के लिए भारत में कोई स्थान नहीं है. वोहरा मुसलमान पहले ही मंदिर को लेकर अपना समर्थन दे चुके हैं. ऐसे में विरोध करने वाले अलग से ही सिर्फ विरोध का झंडा लिए नजर आ रहे हैं. 

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