Paonta Sahib: सिरमौर में डायनों से सुरक्षा के लिए मनाया जाता है डगैली पर्व, जानें इस रहस्मयी त्योहार की कहानी
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Paonta Sahib: सिरमौर में डायनों से सुरक्षा के लिए मनाया जाता है डगैली पर्व, जानें इस रहस्मयी त्योहार की कहानी

Paonta Sahib: सिरमौर जिले का गिरीपार जनजातीय क्षेत्र विचित्र परंपराओं के लिए जाना जाता है. जनजातीय क्षेत्र में डगैली पर्व ऐसा ही विचित्र पर्व है. यह पर्व डाग यानी डायन के अस्तित्व से जुड़ा है. 

File photo

Paonta Sahib News: हिमाचल प्रदेश के पर्व एवं देव परंपराएं देश भर में अनूठी पहचान रखती हैं, लेकिन सिरमौर जिले के जनजातीय क्षेत्रों में त्योहार बेहद ही विचित्र हैं. डगैली ऐसा ही एक विचित्र पर्व है. यह पर्व डायनों के अस्तित्व और उनके अध्यक्ष नृत्य से जुड़ा हुआ है.

पर्व पर आधुनिकता क्लेश मात्रा भी असर देखने को नहीं मिलता. कुछ क्षेत्रों में यह डरवना पर्व श्री कृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि को तथा कुछ क्षेत्रों में इसके ठीक पांच से आठ दिनों के बाद भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी व चौदस के दिन मनाया जाता है. डगैली का हिंदी अर्थ है डायनो का पर्व. ऐसा माना जाता है इन दोनों रात्रियों को डायने ,भूत ,पिशाच खुला आवागमन तथा नृत्य करते हैं. 

इस नृत्य को कोई व्यक्ति नहीं देख सकता. इसे केवल तांत्रिक या देवताओं के गुरु यानी घणिता ही देख सकते हैं. मान्यता है कि इन दिनों डायनो व भूत प्रेतों को खुली छूट होती है. वह किसी भी आदमी व पशु आदि को अपना शिकार बना सकती है. इसके लिए लोग पहले ही यहां अपने बचने का पूरा प्रंबध यानि सुरक्षा चक्र बना कर रख लेते है. इन सुरक्षा प्रबंधों की तैयारियां यहां पर रक्षा बंधन वाले दिन से आरंभ हो जाती है.

रंक्षा बंधन वाले दिन एक रंक्षा सूत्र पुरोहितों द्वारा अपने यजमानों को बांधा जाता है. उसे डगैली पर्व के बाद ही खोला जाता है. इसके साथ-साथ उसी दिन पुरोहित द्वारा अभिमंत्रित करके दिये गये चावलों या सरसों के दानों के साथ-साथ अपने कुल देवता के गुरु द्वारा दिये गये रक्षा के चावल व सरसों के दानों को डगैली पर्व से ठीक पहले अपने घरों ,पशुशालाओ व खेतों मे छिड़क दिया जाता है. 

इसके अलावा भेखल व तिरमल की झाड़ी की टहनियों को दरवाजे व खिड़कियों में लगाया जाता है. पहली डगैली को रात्रि को सोने से पहले दरवाजे पर खीरा यानी काकड़ी की बलि व दूसरी डगैली की रात्रि को अरबी के पतो से बने व्यंजन पतीड़ जिसे स्थानीय भाषा मे धिधड़े भी कहा जाता है. उसकी बलि दी जाती है.  ताकि बुरी शक्तियां घर में प्रवेश न कर सकें. 

आज के आधुनिक व वैज्ञानिक युग में ऐसे त्यौहारो व प्रथाओं पर विश्वास करना कठिन है मगर, फिर भी इस पर्व को सैंकड़ों सालों से मनाया जाता है. इस पर्व पर चुडेश्वर कला मंच जागल द्वारा शौध कार्य किया गया है. चुडेश्वर कला मंच के संस्थापक जोगेद्र हाब्बी ने इस संबंध में बताया कि उनकी मंच के पदम श्री विद्या नंद सरैक व गोपाल हाब्बी ने शौध कार्य किया है. 

सोलन, शिमला व सिरमौर के ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों से वार्तालाप किया और उसी आधार पर डगैली गीत व डगैली परिधान तैयार किए. परिधानों को तैयार करने में प्रसिद्ध शौध कर्ता गोपाल हाब्बी ने अहम भुमिका निभाई और उसके बाद शौध के आधार पर इसका मंचन किया. डॉ. जोगिंदर हाब्बी का कहना है कि इस शौध कार्य के पीछे उनका मकसद समाज में अंध विश्वास फैलाना नहीं बल्कि हमारी प्राचीन पंरपरा को लुप्त होने से बचाना, देव पंरपरा का संरक्षण एवं संवर्धन करना है. 

रिपोर्ट- ज्ञान प्रकाश, पांवटा साहिब

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