Urdu Poetry in Hindi: क्या जाने किस का हाथ मिरे हाथ आ गया...

Siraj Mahi
Feb 05, 2025

कुछ मज़ाहिर हैं जो नगर में हमें, दूसरा ही नगर दिखाते हैं

मैं ने बचपन की ख़ुशबू-ए-नाज़ुक, एक तितली के संग उड़ाई थी

अय्याम के ग़ुबार से निकला तो देर तक, मैं रास्तों को धूल बना देखता रहा

सुबू उठाऊँ तो पीने के बीच खुलती है, कोई गली मेरे सीने के बीच खुलती है

कि जैसे ख़ुद से मुलाक़ात हो नहीं पाती, जहाँ से उट्ठा हुआ है ख़मीर खींचता हूँ

यकजाई का तिलिस्म रहा तारी टूट कर, वो सामने से हट के बराबर में आ गया

दरवाज़े थे कुछ और भी दरवाज़े के पीछे, बरसों पे गई बात महीनों से निकल कर

ख़ाली हुआ गिलास नशा सर में आ गया, दरिया उतर गया तो समुंदर में आ गया

क्या जाने किस का हाथ मिरे हाथ आ गया, जिस की गिरफ़्त चाहिए थी शल मिला मुझे

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