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भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) का सदस्य बन पाता है कि नहीं इस पर दुनिया भर की निगाहें टिकी हैं। चीन ने कहा है कि सियोल में होने वाली इस अहम बैठक में भारत की सदस्यता का मुद्दा एनएसजी के एजेंडे में शामिल नहीं है। भारत की सदस्यता को लेकर चीन ने न तो 'हां' कहां है और न ही 'ना'। उसने सैद्धांतिक रूप से विरोध भी नहीं किया है लेकिन उसके इस बयान से साफ है कि वह अभी एनएसजी में भारत को शामिल होते नहीं देखना चाहता। वह भारत की सदस्यता मसले को लटकाना चाहता है। चीन ने अपना सुर नहीं बदला तो भारत को एनएसजी की सदस्यता नहीं मिल पाएगी क्योंकि 48 देशों का समूह आम राय के सिद्धांत पर काम करता है जिसका चीन भी एक सदस्य है। भारत इस प्रतिष्ठित समूह में शामिल हो इसके लिए जरूरी है कि सभी 48 देशों के बीच आम सहमति बने।
अभी हालात यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस समेत इस समूह के ज्यादातर ताकतवर देश भारत को एनएसजी में शामिल करने के लिए अपना समर्थन दे चुके हैं जबकि चीन, टर्की, ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों का कहना है कि समूह में नए सदस्य को शामिल करने के जो तय मापदंड और प्रक्रियाएं हैं उनका पालन किया जाए। ऐसे में समूह के ज्यादातर ताकतवर देशों का समर्थन हासिल होने के बावजूद भारत ने इन देशों को अपने भरोसे में नहीं लिया तो उसकी एनएसजी सदस्यता की राह में मुश्किलें आएंगी। एनएसजी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा चीन है जो चाहता है कि भारत के साथ पाकिस्तान को भी इस समूह में शामिल किया जाए। ऐसे में चीन से कूटनीतिक रूप से निपटना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है।
इस सप्ताह की शुरुआत में चीन के आधिकारिक मीडिया ने कहा था कि भारत को एनएसजी की सदस्यता मिलने से चीन के राष्ट्रीय हित ‘खतरे में पड़' जाएंगे और साथ ही साथ यह पाकिस्तान की एक ‘दुखती रग' को भी छेड़ देगा। चीनी विदेश मंत्रालय ने एक सप्ताह पहले ही एनपीटी पर हस्ताक्षर न करने वाले देशों को शामिल किए जाने के मुद्दे पर एनएसजी के सदस्यों के ‘अब भी बंटे होने' की बात कहते हुए इसपर ‘पूर्ण चर्चा' का आह्वान किया।
दरअसल, चीन कभी नहीं चाहेगा कि भारत एक बड़ी ताकत के रूप में दुनिया के सामने उभरे। एनएसजी की सदस्यता मिल जाने पर भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देश का आधिकारिक दर्जा मिलने के साथ ही वैश्विक स्तर पर नई दिल्ली के रुतबे में वृद्धि होगी। वह भारत का सीधे तौर पर विरोध तो नहीं कर पा रहा लेकिन कभी पाकिस्तान तो कभी मानक, प्रक्रियाओं का हवाला देकर सदस्यता के मुद्दे को लटकाना चाहता है।
चीन का कहना है कि भारत ने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इसलिए इस पर अभी सदस्य देशों के बीच विचार-विमर्श किए जाने की जरूरत है। चीना का कहना है कि यदि गैर-एनपीटी देश को सदस्य बनाने की ऐसी कोई व्यवस्था बनती है तो उसमें भारत के साथ पाकिस्तान को भी जगह मिलनी चाहिए। जबकि भारत का तर्क है कि फ्रांस ने भी एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं फिर भी वह एनएसजी का सदस्य है।
भारत ने एनएसजी की सदस्यता के लिए अपना मजबूत दावा पेश किया है। भारत का कहना है कि एनएसजी के लिए केवल प्रक्रिया एवं मापदंड को ही आधार न बनाए जाए बल्कि देश की विश्वसनीयता भी देखी जानी चाहिए। एनपीटी एवं सीटीबीटी पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद भारत अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के मानकों एवं दिशा-निर्देशों पर खरा उतरता आया है। विश्वसनीयता के सवाल पर पाकिस्तान का दावा कमजोर पड़ जाता है क्योंकि दुनिया जानती है कि लीबिया जैसे देशों को पाकिस्तान ने परमाणु तकनीक चोरी-चोरी बेची है।
भारत को एनएसजी में प्रवेश मिलने के कई फायदे हैं। एक बार प्रवेश मिल जाने पर भारत की तरक्की की राह पर और तेजी के साथ आगे बढ़ेगा। एनएसजी परमाणु हथियारों के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले सामग्री, उपकरण और तकनीक के निर्यात का नियंत्रण करता है। इस समूह का हिस्सा बन जाने पर परमाणु हथियार से जुड़ी सामग्रियां, उपकरण एवं तकनीक भारत को आसानी से उपलब्ध होने लगेगी। भारत रक्षा एवं मिसाइल उपकरण अन्य देशों को बेचने के साथ ही परमाणु हथियारों पर बनने वाली नीतियों पर अपनी राय रख सकेगा। वैश्विक संस्थाओं और एशिया में दिनोंदिन भारत के बढ़ते कद से चीन परेशान है। अमेरिका के साथ भारत के मजबूत एवं बढ़ते द्विपक्षीय संबंधों से वह चिंतित है। वह नहीं चाहता कि भारत तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर और ताकतवर राष्ट्र बने।
भारत यह जरूर चाहेगा कि सियोल में हो रही बैठक में एनएसजी सदस्यता पर उसकी बात बन जाए लेकिन चीन का अड़ियल रुख बनती हुई बात को बिगाड़ सकता है। कूटनीति की बिसात पर चालें हर घड़ी बदली जाती हैं। चीन को अपना रुख बदलने के लिए मोदी सरकार को कूटनीति का एक मास्टरस्ट्रोक खेलना होगा तभी जाकर चीन जाकर अपनी हठधर्मिता छोड़ेगा और 2008 की तरह इस बार भी भारत का समर्थन करेगा।