बिहार में सीएम नीतीश कुमार को ही ले लें. 2005 से सत्ता में किसी ना किसी रूप में काबिज हैं. हालांकि इसमें से जीतन राम मांझी के समय के छोड़ दें वहां भी वह पर्दे के पीछे से सीएम की ही भूमिका निभा रहे थे तो वह बिहार के सत्ता पर मुख्यमंत्री की हैसियत से विराजमान हैं. इस दौरान कभी महागठबंधन तो कभी एनडीए नीतीश को जब जैसी सुविधा लगी. अपने वादे को छोड़ और तोड़ दूसरे के साथ हो लिए.
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पटना : बात राजनीति की हो रही है और जिक्र फिल्मी गाने का आपको भी कुछ अलग सा लग रहा होगा. दरअसल एक गाना खूब पॉपुलर है क्या हुआ तेरा वादा...वो कसम वो इरादा...भूलेगा दिल जिस दिन तुम्हें वो दिन मेरी जिंदगी का आखरी दिन होगा...इस गाने की लाइन को सुनिए तो आप समझ जाएंगे कि इसके रचनाकार के दिल में कसमों और वादों के कितनी अहमियत रही है. वह इनको भूलने पर अपनी मौत तक को दावत दे डालता है लेकिन राजनीति में ऐसा कहां होता है. खासकर बिहार की राजनीति में. यहां तो राजनीति में कौन, कब, कैसे, कहां और किसके साथ पलटी मार जाए कहा नहीं जा सकता. बिहार की राजनीति तो क्रिकेट के खेल से भी ज्यादा अनिश्चितता से भरही हुई है.
अब बिहार में सीएम नीतीश कुमार को ही ले लें. 2005 से सत्ता में किसी ना किसी रूप में काबिज हैं. हालांकि इसमें से जीतन राम मांझी के समय के छोड़ दें वहां भी वह पर्दे के पीछे से सीएम की ही भूमिका निभा रहे थे तो वह बिहार के सत्ता पर मुख्यमंत्री की हैसियत से विराजमान हैं. इस दौरान कभी महागठबंधन तो कभी एनडीए नीतीश को जब जैसी सुविधा लगी. अपने वादे को छोड़ और तोड़ दूसरे के साथ हो लिए. इतने सालों मे बिहार में मंत्री बदले, उपमुख्यमंत्री बदले लेकिन सत्ता के शिखर यानी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार ही बैठे रहे.
अब नीतीश के खास लोग भी उनके फॉर्मूले को जी रहे हैं. अभी नीतीश के साथ हाथों में हाथ डाले उनकी शान में कसीदे पढ़ते उपेंद्र कुशवाहा उन्हें पीएम मैटेरियल तक बता रहे थे और समय ने करवट बदली तो वह नीतीश बाबू का हाथ छोड़ अपनी पार्टी बनाकर उनके ही खिलाफ विरासत बचाने के लिए जनता को नमन करने पहुंच गए. देखिए तो कुशवाहा ने इस यात्रा का नाम भी रखा है तो 'विरासत बचाओं नमन यात्रा' अब आप सोचिए कि कितनी जल्दी नीतीश से कुशवाहा का मोहभंग हो गया. 2014 में भी वह नीतीश से अलग एनडीए का हिस्सा थे फिर नीतीश की तरह ही पलटी मारकर उनके साथ हो गए और अब एक बार फिर पलटी मारी तो नीतीश के खिलाफ ही खड़े हो गए. मतलब साफ है कि दोनों ने जो वादे एक दूसरे से किए थे उसको ताक पर रखकर अपने लिए बेहतर राजनीतिक जमीन की तलाश पर निकल पड़े हैं. हालांकि इस सब के बीच कुशवाहा ने यह जरूर कह दिया कि 'मैं अपने पूरे राजनीतिक जीवन में अब कभी नीतीश कुमार के साथ नहीं जाऊंगा'.
वैसे ये कसमें और वादे हैं. इससे राजनीतिकों का क्या लेना देना. उनपर तो यह गाना एकदम फिट बैठता है 'कसमें वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या. कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या...' ऐसे में आपको भी अनुमान हो गया होगा कि नीतीश के लिए कुशवाहा और कुशवाहा के लिए नीतीश के कसमें कितना मायने रखते हैं. इनके लिए तो कसमें और वादों का कोई मतलब ही नहीं अबी तक की राजनीति से तो ऐसा ही लगता है जबकि जनता इसको सीरियसली लेने लगती है और हर बार धोखा खाती है.
अब जरा कुशवाहा और नीतीश के कसमें वादों पर गौर करें तो आपको इसकी हकीकत का पता चलेगा. कुशवाहा ने अभी जो राजनीतिक कसम खाई इसका नंबर नौवां है. इसे पहले वह 8 बार ऐसी ही कसमें खाकर पलटी मार चुके हैं. इसमें से 2-3 बार तो वह नीतीश को लेकर ही कमें खाकर उसे फिर से तोड़ चुके हैं. खैर यह सब कुशवाहा ने बड़े भैया नीतीश से ही सीखी है. नीतीश लालू से अलग हुए फर भाजपा से नाता जोड़ा फिर भाजपा का साथ छोड़ा तो कांग्रेस और राजद के साथ हो लिए. फिर उनकी मोहभंग हो गया और वह एक बार फिर से भाजपा के साथ मिल गए. इसके बाद उन्होंने फिर पलटी मारी और महागठबंधन के साथ हाथ मिलाकर सरकार बना बैठे. हालांकि इन 17 सालों में नीतीश सीएम की कुर्सी से अपने मन से एक बार उतरे जब उन्होंने जीतन राम मांझी को सीएम बनाया हालांकि तब भी सरकार वही चला रहे थे. नीतीश भाजपा को लेकर इतनी कसमें तक खा चुके हैं कि उन्हें मरना कुबूल है लेकिन भाजपा के साथ जाना नहीं. अब आप भी यकीन कर चुके होंगे कि राजनीति में वादों और कसमों की कितनी वैल्यू है.