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दिल्ली विधानसभा चुनाव (Delhi Election 2025) में कम से कम इंडिया ब्लॉक बिखर चुका है. कांग्रेस एक तरफ है तो बाकी दल आम आदमी पार्टी की तरफ. मनोबल के लिहाज से आम आदमी पार्टी का पलड़ा इंडिया ब्लॉक में ज्यादा मजबूत लग रहा है. अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) और टीएमसी के नेता तो आम आदमी पार्टी के पक्ष में रोडशो भी करने वाले हैं. दूसरी तरफ, कांग्रेस (Congress) हलकान है. 9 महीने पहले तक लोकसभा चुनाव के मौके पर ये सभी दल गलबहियां करते नजर आ रहे थे. विपक्ष ने जिस उद्देश्य से इंडिया ब्लॉक बनाया था, उसका अब 2029 से पहले कोई चांस नहीं है और अमूमन सभी दलों ने इस बारे में बयान दिया है कि राज्यों में इंडिया ब्लॉक का कोई मतलब नहीं है और यह केवल लोकसभा चुनाव के लिए बनाया गया था. तो क्लीयर बात यह है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में इंडिया ब्लॉक खत्म हो चुका है और यही से एक सवाल पैदा होता है कि क्या बिहार चुनाव में इंडिया ब्लॉक रहेगा?
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वैसे तो इस महीन सवाल के दो आसान जवाब राजद नेता तेजस्वी यादव और कांग्रेस के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने पहले ही दे दिया है. इन दोनों नेताओं ने एक सुर में कहा कि बिहार में राजद और कांग्रेस का गठबंधन इंडिया ब्लॉक से इतर बना है और इसका इतिहास बहुत पुराना है. लिहाजा, अगर इंडिया ब्लॉक खत्म भी होता है तो बिहार में राजद और कांग्रेस के गठबंधन पर इसका कोई असर नहीं होने जा रहा है.
अब कुछ भी लिखने पढ़ने से पहले हम यह जान लेते हैं कि राजद और कांग्रेस का गठबंधन कब और किन हालात में हुआ था. दरअसल, 1989 के भागलपुर दंगों के बाद लालू प्रसाद यादव के मुस्लिम कार्ड से कांग्रेस चित हो चुकी थी. 1995 के विधानसभा चुनाव में (तब झारखंड का बंटवारा नहीं हुआ था) कांग्रेस 324 सीटों पर ताल ठोककर केवल 29 ही जीत पाई थी, जबकि लालू प्रसाद यादव की पार्टी ने 167 सीटें हासिल कर सरकार बनाई थी. 1998 में कांग्रेस ने राजद की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया और पहली बार 1998 का लोकसभा चुनाव दोनों दल साथ मिलकर लड़े. तब लोकसभा की 54 सीटों में से कांग्रेस 8 पर लड़कर 4 तो राजद 17 सीटें जीतने में सफल रहा.
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1999 में फिर लोकसभा चुनाव हुए और तब कांग्रेस को केवल 2 सीटों पर जीत हासिल हुई और राजद को 7 सीटों पर सफलता मिली. बाकी सीटें एनडीए के खाते में चली गई. बीते दो लोकसभा चुनाव में मिली असफलता को देखते हुए 2000 ई. में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अकेले उतरी और 23 सीट हासिल कर पाई. राजद के खाते में 124 सीटें रहीं. हालांकि राजद अकेले सरकार बनाने की असफल रहा. तब नीतीश कुमार पहली बार 7 दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन एनडीए की सरकार न बने, इसके लिए राजद और कांग्रेस एक बार फिर साथ आ गए थे और राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनी थीं.
2004 का लोकसभा चुनाव दोनों दल फिर एक साथ लड़े थे और 2005 के विधानसभा चुनाव तक यही कांबिनेशन चुनाव मैदान में उतरा था. 2000 ई. के विधानसभा चुनाव की तरह 2009 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस अकेले उतरी थी. इस चुनाव में कांग्रेस ने पहली बार राजद से बेहतर प्रदर्शन किया था. कांग्रेस ने लोकसभा की 4 और राजद केवल 2 सीटें ही जीत पाई थी. 2010 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों दल अलग अलग चुनाव मैदान में गए. इस चुनाव में कांग्रेस केवल 4 तो राजद महज 22 सीटों पर सिमग गए थे. इसी से सबक लेते हुए 2014 के लोकसभा चुनाव में दोनों दल फिर एक साथ आ गए थे, लेकिन इस चुनाव में भाजपा के साथ मोदी मैजिक काम कर रहा था. लिहाजा, कांग्रेस फिर 2 सीटों पर अटक गई थी और राजद 4 पर.
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उसके लगभग एक साल बाद राजद और कांग्रेस को खुशखबरी तब मिली, जब नीतीश कुमार दोनों दलों के साथ आ गए और महागठबंधन को मूर्त रूप दिया गया था. इस विधानसभा चुनाव में राजद को 80 तो कांग्रेस को 27 सीटें हासिल हुई थीं. महागठबंधन की सरकार नीतीश कुमार ने बनाई थी, जो 2 साल बाद ही एनडीए की ओर चले गए थे और महागठबंधन मुंह ताकता रह गया था. 2019 के लोकसभा चुनाव में राजद का डिब्बा पूरी तरह गोल हो गया और उसे एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी, लेकिन कांग्रेस किशनगंज की एक सीट कब्जाने में सफल रही थी. वहीं, 2020 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो राजद को 75 तो कांग्रेस को 19 सीटें हासिल हुई थीं. 2024 में हुए लोकसभा चुनाव की बात करें तो राजद को 4, कांग्रेस को 3 और कम्युनिस्ट पार्टी को एक सीट हासिल हुई थी.
कुल मिलाकर पिछले 26 साल में राजद और कांग्रेस 5 लोकसभा चुनाव और 3 विधानसभा चुनाव एक साथ मिलकर लड़ चुके हैं. 2015 को छोड़ दिया जाए तो साथ लड़ने या फिर अलग होकर चुनाव लड़ने में दोनों दलों को कोई फर्क महसूस नहीं हुआ. कर्जमाफी के बाद हुए 2009 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को बढ़त हासिल हुई, लेकिन उसके बाद या फिर पहले गठबंधन करने या फिर न करने का कोई फायदा या नुकसान कांग्रेस को मिलता नहीं दिखा. इस तरह बिहार में यह गठबंधन केवल नैतिक रूप से बढ़त हासिल करने के लिए बरकरार है. पिछले 18 जनवरी, 2025 को राहुल गांधी का पटना दौरा और वहां उनका जातिगत जनगणना को फर्जी करार देना भविष्य का बड़ा संकेत देता दिख रहा है. जातिगत जनगणना, जिसको तेजस्वी यादव अपनी उपलब्धि बताते नहीं अघाते, राहुल गांधी उसे फर्जी करार दे रहे हैं और अपनी सरकार आने पर जातिगत जनगणना पर पूरा जोर देते दिख रहे हैं. इससे ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी बिहार विधानसभा चुनाव के लिए कुछ सोचकर बैठे हैं.
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अब सवाल यह है कि राहुल गांधी के मन में बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर क्या चल रहा है. एक विकल्प जो साधारण सा है और बिहार में राजद और कांग्रेस उसका प्रयोग करते चले आ रहे हैं, वो यह कि दोनों दल अपना रास्ता अलग कर लें. अगर राहुल गांधी यह फैसला कर लेते हैं तो फिर राजद के लिए बहुत ही मुश्किल भरा हो सकता है. लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को सबक सिखाने या फिर उसे दबाव में लाने के लिए इंडिया ब्लॉक के नेतृत्व के लिए ममता बनर्जी की पैरवी करना और उसके बाद तेजस्वी यादव की ओर से आम आदमी पार्टी के पक्ष में लॉबिंग करना, दिल्ली विधानसभा चुनाव में कोई प्रत्याशी न उतारना क्या राहुल गांधी पचा पाएंगे. और इसमें कुछ नया भी नहीं होगा कि कांग्रेस अलग चुनाव मैदान में उतर जाए. भले ही तत्काल में कांग्रेस को इससे कुछ नहीं हासिल होगा, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम पार्टी को बूस्ट करने में मदद कर सकते हैं.
अगर ऐसा होता है राहुल गांधी जिस तरह से दिल्ली में अरविंद केजरीवाल पर हमलावर हो रहे हैं, उसी तरह लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव पर हो सकते हैं. दिल्ली विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी पहली बार अरविंद केजरीवाल का नाम लेकर हमला बोलते दिख रहे हैं. गठबंधन टूटने की स्थिति में बिहार में लालू और तेजस्वी के लिए भी राहुल गांधी के ऐसे बोल देखने को मिल सकते हैं. दिल्ली में जैसे शराब घोटाले का शोर है, वैसे ही बिहार में चारा घोटाले का क्रेज है. अगर गठबंधन टूटता है तो राहुल गांधी भी बिहार में लालू प्रसाद यादव के जंगलराज को याद करके उनको टारगेट कर सकते हैं. बिहार में कांग्रेस चुनाव के एक साल पहले से 70 प्लस की बात करती आ रही है. राजद इन सब बातों को अभी भाव नहीं दे रही है, लेकिन राहुल गांधी के तेवर बताते हैं कि कांग्रेस इस बार अच्छे से मोलभाव करने वाली है. बिहार चुनाव में बेहतर प्रदर्शन अभी के हिसाब से राजद के लिए ही जरूरी है, कांग्रेस को इससे बहुत फर्क नहीं पड़ने जा रहा, सिवाय कि कुछ विधायक मंत्री बन जाएं. कांग्रेस के लिए सबक यही है कि अगर क्षेत्रीय दल उसके बारे में नहीं सोच रहे हैं तो वह क्षेत्रीय दलों के बारे में क्यों सोचे.