जैसे देश की सत्ता में काबिज होने का रास्ता यूपी (लोकसभा की 80 सीटें) से होकर जाता है, ठीक उसी तरह यूपी की सत्ता (विधानसभा की 403 सीटें) में काबिज होने का रास्ता ओबीसी वोट बैंक पर निर्भर करता है.
Trending Photos
लखनऊ: उत्तर प्रदेश का चुनाव हो और जाति की बात ना हो ऐसा कैसे संभव हो सकता है. साल 2022 की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए यूपी के सभी राजनीतिक दलों ने अपने समीकरण साधने शुरू कर दिए हैं. यूपी में यदि धार्मिक-जातीय समीकरण पर ध्यान दें तो इसे मोटे-मोटे तौर पर दो धर्म हिंदू व मुस्लिम और तीन प्रमुख जाति वर्ग सवर्ण या अगड़े, दलित या अनुसूचित जाति, ओबीसी या पिछड़े. यूपी में वोट बैंक के रूप में अनुसूचित जनजाति का प्रभाव एक तरह से नगण्य है. कुछ यही हाल ईसाई व सिख धर्म के मतदाताओं का भी है.
उत्तर प्रदेश की सत्ता में होना है काबिज तो ओबीसी वोट बैंक महत्वपूर्ण
जैसे देश की सत्ता में काबिज होने का रास्ता यूपी (लोकसभा की 80 सीटें) से होकर जाता है, ठीक उसी तरह यूपी की सत्ता (विधानसभा की 403 सीटें) में काबिज होने का रास्ता ओबीसी वोट बैंक पर निर्भर करता है. इस वोट बैंक के सपोर्ट के बिना कोई भी दल यूपी की सत्ता में पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं बना सकता. केंद्र की सत्ता में भी काबिज होने के लिए किसी पार्टी के पक्ष में इस वोट बैंक के एक बड़े हिस्से का सपोर्ट होना अनिवार्य है. क्योंकि मंडल कमीशन की रिपोर्ट को मानें तो देश की कुल आबादी में ओबीसी का प्रतिनिधित्व 50 फीसदी से अधिक है.
इसीलिए संसद में सर्वसम्मति से पास हुआ 127वां संविधान संशोधन बिल
इसीलिए तो पिछले दिनों जब संसद में मोदी सरकार ओबीसी लिस्ट बनाने का अधिकार राज्यों को देने के लिए 127वां संविधान संशोधन बिल लेकर आई तो सभी दलों ने एकमत से इसका समर्थन किया. करते भी क्यों नहीं, आखिर ओबीसी मतदाताओं को नाराज करने की हिमाकत कोई दल कर भी कैसे सकता है. देश और ज्यादातर प्रदेशों में सत्ता की चाबी इसी मतदाता वर्ग के पास जो है. उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में चुनाव भी होने हैं. इसलिए जातिगत जनगणना की मांग भी सभी दल एक स्वर में कर रहे हैं. क्योंकि 1931 के बाद से ओबीसी की गणना हुई नहीं है. एससी और एसटी से जुड़ा डेटा हर राष्ट्रीय जनगणना में कलेक्ट तो किया जाता है लेकिन 1931 के बाद से पब्लिश नहीं हुआ.
सामाजिक न्याय रिपोर्ट 2001 के मुताबिक यूपी में 54% ओबीसी आबादी
मंडल कमीशन की रिपोर्ट को आधार मानें तो देश में ओबीसी आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है, वहीं उत्तर प्रदेश में 40 से 50 फीसदी के बीच. यूपी में ओबीसी वोट बैंक की बात करें तो इसे यादव और गैर-यादव में बांट सकते हैं. वहीं 2001 के 'सामाजिक न्याय रिपोर्ट' के मुताबिक उत्तर प्रदेश की आबादी में पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी करीब 54 फीसदी है. उत्तर प्रदेश पिछड़ा आयोग के डेटा को मानें तो यूपी में अब तक कुल 79 जातियां ओबीसी में शामिल हैं. 70 अन्य जातियों ने खुद को ओबीसी लिस्ट में शामिल करने के लिए आयोग के पास आवेदन किया है. इन ओबीसी 70 जातियों में यादवों की आबादी 19.4 फीसदी है. राज्य की आबादी में यादवों की हिस्सेदारी 10.52% है.
यूपी में गैर-यादव ओबीसी जातियों की कुल आबादी 31% के करीब
सीएसडीएस (Centre for the Study of Developing Societies) के आंकड़ों के मुताबिक यूपी में गैर-यादव ओबीसी जातियों में कुर्मी 7.5%, लोध 4.9%, गडरिया/पाल 4.4%, निषाद/मल्लाह 4.3%, तेली/शाहु 4%, जाट 3.6%, कुम्हार/प्रजापति 3.4%, कहार/कश्यप 3.3%, कुशवाहा/शाक्य 3.2%, नाई 3%, राजभर 2.4%, गुर्जर 2.12% हैं. अब आप ही सोचिये जो मतदाता वर्ग किसी प्रदेश की आबादी में आधी के करीब हिस्सेदारी रखता हो, उसके समर्थन के बिना कोई राजनीतिक दल सत्ता में काबिज होने की कैसे सोच सकता है. अब सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश का ओबीसी वर्ग वोट किसको करता है? जवाब है 90% से ज्यादा यादव समाज समाजवादी पार्टी को वोट करता है. सीएसडीएस का आंकड़ा भी यही कहता है. तो फिर बाकी बचे 31 फीसदी ओबीसी किसको वोट करते हैं? आपको क्या लगता है भाजपा ने 2017 में इतनी प्रचंड बहुमत की सरकार कैसे बना ली.
यूपी चुनाव 2022: अब किस तरह वोट करता है उत्तर प्रदेश का दलित? कभी होता था बसपा का एकक्षत्र राज
जानें सपा व बसपा किस समीकरण से बनाते रहे हैं यूपी में सरकार?
बात करें सपा और बसपा का तो इनका कोर वोट बैंक यादव+मुस्लिम और दलित+मुस्लिम रहे हैं. सवर्ण वोट बैंक में ज्यादातर हिस्सेदारी भाजपा और कुछ कांग्रेस की रही है. वहीं गैर-यादव ओबीसी मतों का इन सभी दलों के बीच बंटवारा होता रहा है. यह स्थिति 2017 के पहले तक थी. चूंकि यूपी में दलित वोट बैंक 21% और मुस्लिम वोट बैंक 19% के करीब है. दलित मतदाताओं का काफी लंबे समय तक बसपा पर अटूट विश्वास रहा है. वहीं मुस्लिम, सवर्ण, ओबीसी वोट बैंक का समर्थन प्राप्त कर बसपा समय-समय पर यूपी की सत्ता में काबिज होती रही है. ओबीसी वोट बैंक का सबसे बड़ा हिस्सा यानी यादव (यूपी की आबादी में 10% और ओबीसी की आबादी में 19%) सपा के कट्टर समर्थक हैं. मुस्लिमों की बड़ी आबादी की पहली पसंद सपा रही है. समय-समय पर गैर-यादव ओबीसी और सवर्ण वोट बैंक का समर्थन प्रात्प कर सपा भी उत्तर प्रदेश की सत्ता में काबिज होती रही है.
साल 2014 से भाजपा ने बिगाड़ा है सपा और बसपा का समीकरण
लेकिन 2014 के बाद से इन दोनों क्षेत्रिय दलों का समीकरण गड़बड़ा गया है. दरअसल, भाजपा ने बसपा के गैर-जाटव दलित वोट बैंक और सपा के गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी कर दी है. यह ट्रेंड 2014 के लोकसभा, 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में ही रहा है. तभी तो 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन के बावजूद समाजवादी पार्टी को सत्ता गंवानी पड़ी. वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा और रालोद से महागठबंधन के बावजूद भाजपा 80 में से 62 सीटें जीतने में कामयाब रही.
2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिले थे 47% ओबीसी मत
यूपी में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भी भाजपा सवर्ण+गैर-जाटव दलित+गैर-यादव ओबीसी के अपने अजेय फॉर्मूले को प्रभावी रखने की कोशिश में लगी है. सीएसडीएस के एक सर्वे की मानें तो 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में यादव, कुर्मी और जाट को छोड़कर ओबीसी में शामिल अन्य जातियों के 60% मतदाताओं ने भाजपा को वोट किया. वैसे भी कुर्मी और जाट वोट बैंक का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ था. सीएसडीएस का ही एक अन्य सर्वे कहता है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में ओबीसी वर्ग के 47% मतदाताओं ने भाजपा को वोट किया. वहीं सपा को 29% (इसमें 19% यादव ही हैं) और बसपा को 9% ने वोट किया.
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह कहते हैं, ''देखिए कोई भी ऐसी जाति नहीं है जिसका शत प्रतिशत वोट किसी एक दल को मिलता हो. भाजपा को 1 से 1.5% मुस्लिम वोट भी मिलते हैं. इसी तरह जो जातियां भाजपा की कोर वोटर मानी जाती हैं, उनका कुछ वोट दूसरी पार्टियों को मिलता है. माना जाता है कि यदि किसी एक जाति का 60 फीसदी से ज्यादा वोट एक पार्टी को मिल रहा है तो वह जाति उस पार्टी के साथ है. इस लिहाज से यादव समाजवादी पार्टी के साथ हैं. लेकिन उनमें एक जो पढ़ा लिखा हिस्सा है, हालांकि वह बहुत छोटा है, वे निश्चित रूप से भाजपा को वोट करते हैं. इसी तरह मुस्लिम मतदाताओं का है. उनका बहुत बड़ा वर्ग समाजवादी पार्टी के साथ है. मुस्लिमों का कुछ वोट बसपा और कुछ कांग्रेस को भी मिलता है.''
बीते एक दशक में भाजपा का ओबीसी वोट बेस दोगुना बढ़ गया है
लोकनीति-सीएसडी के किए गए सर्वेक्षणों के मुताबिक भाजपा ने पिछले एक दशक के दौरान ओबीसी मतदाताओं के बीच बड़े पैमाने पर अपनी पकड़ बना ली है. 2009 के लोकसभा चुनावों में महज 22% ओबीसी ने भाजपा को वोट किया था और 42% ने क्षेत्रीय दलों को चुना. लेकिन एक दशक के भीतर, ओबीसी के बीच भाजपा का जनाधार नाटकीय रूप से बदल गया है. 2014 में भाजपा को जहां 34% ओबीसी वोट मिले वहीं 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान 44% ओबीसी ने भाजपा को वोट दिया. वहीं इस साल क्षेत्रीय दलों का वोट शेयर खिसकर 27% रह गया.
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं, ''उत्तर प्रदेश में ही नहीं पूरे देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद जो ओबीसी की राजनीति चली उसमें इस वर्ग की बड़ी जातियों ने, खासकर यादवों ने सत्ता हथिया ली. ओबीसी में जो अति पिछड़े थे उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिली. अति पिछड़ों की इस नाराजगी को भाजपा और नरेंद्र मोदी ने दूर किया. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में विशेषकर यूपी में मोदी और शाह ने गैर यादव ओबीसी मतदाताओं, गैर जाटव दलित वोटरों और सवर्णों को मिलाकर अपना एक सामाजिक समीकरण बनाया. यूपी में यह जातीय समीकरण 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में भाजपा के पक्ष में रहा है. अभी ऐसा कोई कारण नहीं दिख रहा है, जिसकी वजह से यह वोट बैंक भाजपा को छोड़कर किसी दूसरे दल के पाले में जाए.''
जाट और कुर्मी वोट बैंक का बड़ा हिस्सा भाजपा के पाले में रहा है
सीएसडीएस का एक और सर्वे कहता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी वर्ग से 77% जाटों, 53% कुर्मियों और 27% यादवों ने भी भाजपा को वोट किया. एक बात यह हो सकती है कि 27% यादवों ने भाजपा को वोट किया क्योंकि चुनाव प्रधानमंत्री का होना था और नरेंद्र मोदी मोस्ट पॉपुलर फेस थे. लेकिन जाटों और कुर्मियों को लेकर यह ट्रेंड 2017 के विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा. भले ही इस बार यादवों ने मुख्यमंत्री के तौर पर पहली पसंद के रूप में अखिलेश यादव को चुना और उनके पीछे फुल सपोर्ट में खड़े हुए. लेकिन मुजफ्फरनगर के दंगों ने जाटों को भाजपा के पक्ष में मोड़ दिया. वहीं भाजपा के पास केशव प्रसाद मौर्या और अनुप्रिया पटेल के रूप में दो ऐसे चेहरे थे जिसने शाक्य और कुर्मी वोट बैंक को उसके पाले में खींचा.
यहां समझिए बीजेपी का गैर-यादववाद
27 % ओबीसी रिजर्वेशन का बंटवारा
यूपी में यादव बनाम गैर यादव पिछड़ी जातियों की राजनीति का सीधा फायदा बीजेपी को देखने को मिला है. साल 2017 में सत्ता में आते ही योगी आदित्यनाथ की सरकार ने हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस राघवेंद्र कुमार की अध्यक्षता में चार सदस्यीय सामाजिक न्याय समिति का गठन किया. इसमें बीएचयू के प्रोफेसर भूपेंद्र विक्रम सिंह, रिटायर्ड आईएएस जेपी विश्वकर्मा और सामाजिक कार्यकर्ता अशोक राजभर शामिल थे. इस समिति का काम था पिछड़ों में भी ऐसी जातियों की पहचान करना जिन्हें ओबीसी रिजर्वेशन का फायदा नहीं मिल रहा है. जस्टिस राघवेंद्र समिति ने अपनी रिपोर्ट में ओबीसी को 79 उपजातियों में बांटा है. इसी समिति ने अपनी रिपोर्ट में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को तीन हिस्सों पिछड़ा, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा में बांटने की सिफारिश की है.
पहली श्रेणी को 7%, दूसरी श्रेणी को 11% और तीसरी श्रेणी को 9% आरक्षण वर्ग में रखा जाना प्रस्तावित है. समिति की रिपोर्ट में यादवों और कुर्मियों को अन्य ओबीसी जातियों के मुकाबले सामाजिक और आर्थिक रूप से ज्यादा संपन्न बताया गया है और कहा गया है कि इन दोनों जातियों को ओबीसी के 27 में से 7 फीसदी आरक्षण दिया जा सकता है. समिति रिपोर्ट में सबसे ज्यादा आरक्षण की मांग अति पिछड़ा वर्ग के लिए की है, जो 11 फीसदी हैं. कमेटी ने लोध, कुशवाहा, तेली जैसी जातियों को इस वर्ग में रखा है. कुल 400 पन्नों की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अति पिछड़ा जाति के लोगों के लिए रोजगार की संभावनाएं उनकी जनसंख्या से आधी हैं. ओबीसी में कुछ खास जातियां हैं, जिन्हें सबसे ज्यादा नौकरियां मिल रही हैं. मसलन इशारा यादवों की ओर है.
प्रदीप सिंह कहते हैं, ''भाजपा ने गैर यादव ओबीसी जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया, संगठन में स्थान दिया, विधानसभा और लोकसभा चुनाव में टिकट दिया, अलग-अलग सरकारी पद दिए, राज्यसभा में भेजा. गैर यादव ओबीसी जातियों के नेताओं को केंद्र और राज्य सरकारों में मंत्री बनाया. सबसे बड़ी बात है कि देश का प्रधानमंत्री ओबीसी है. यह बात इस मतदाता वर्ग पर बहुत गहरा प्रभाव डालती है. इसलिए यह जातीय समीकरण 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी बना रहेगा इसकी प्रबल संभावना है. इसको तोड़ने के लिए पिछले चार साढे चार साल में समाजवादी पार्टी या बसपा ने कुछ किया नहीं है. चुनाव से 6 महीने पहले ये पार्टियां यदि ओबीसी की बात करने लगेंगी तो इससे जमीन पर स्थिति नहीं बदलने वाली.''
यूपी चुनाव 2022: ब्राह्मण वोट बैंक पर क्यों है सभी दलों की नजर? क्या कहती है सूबे की सवर्ण पॉलिटिक्स
39 जातियों को ओबीसी में शामिल करने की तैयारी
समिति ने रिपोर्ट में सर्वाधिक पिछड़ा जाति में राजभर, घोसी और कुरैशी को 9 फीसदी आरक्षण दिए जाने का प्रस्ताव रखा है. हालांकि जस्टिस राघवेंद्र कुमार समिति की रिपोर्ट पर अमल होना अभी बाकी है. उससे पहले योगी सरकार ने एक और तैयारी कर ली है. चुनाव से पहले योगी सरकार राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश पर 39 जातियों को ओबीसी कैटेगरी में शामिल कर सकती है. इसमें भाटिया, अग्रहरी, वैश्य, रुहेला, भाटिया, हिंदू कायस्थ, मुस्लिम कायस्थ, भूटिया, बगवां, दोहर, दोसर वैश्य, मुस्लिम शाह, केसरवानी वैश्य, हिंदू और मुस्लिम शाह, केसरवानी वैश्य, हिंदू और मुस्लिम भाट जैसी जातियां हैं.
अधिक गैर यादव ओबीसी कैंडिडेट्स को टिकट देना
यूपी विधानसभा चुनाव 2017 में भाजपा ने गैर यादव ओबीसी वर्ग से करीब 35 फीसदी टिकट (130 से ज्यादा कैंडिडेट) दिए थे. इनमें प्रमुख रूप से कोइरी (मौर्य, कुशवाहा, सैनी सरनेम वाले), कुर्मी (चौधरी, वर्मा सरनेम वाले), लोध-राजपूत (सिंह, लोधी, राजपूत सरनेम वाले), निषाद (बिंद, कश्यप, निषाद सरनेम वाले) समेत राजभर, बघेल और नोनिया शामिल जाति के कैंडिडेट शामिल रहे. यही फॉर्मूला आगामी विधानसभा चुनाव में भी भाजपा आजमाएगी. गैर यादव ओबीसी उम्मीदवारों की संख्या सबसे ज्यादा होगी. साथ में सवर्णों को भी साधने की पूरी कोशिश भाजपा करेगी.
केशव प्रसाद मौर्य को उप मुख्यमंत्री तो स्वतंत्र देव सिंह को प्रदेशाध्यक्ष बनाना, बसपा के पूर्व दिग्गज स्वामी प्रसाद मौर्य को लाकर मंत्री बनाना, और अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल को केंद्र में मंत्री बनाना भाजपा की इसी रणनीति का हिस्सा है. निषाद पार्टी साथ है और खफा ओपी राजभर से भाजपा के वरिष्ठ नेता संपर्क में हैं. भाजपा को पता है कि 2022 में भी 2017 का प्रदर्शन दोहराना है तो गैर-यादव ओबीसी जातियों को साधे रखना बिल्कुल जरूरी है. केंद्र सरकार द्वारा अखिल भारतीय कोटा (AIQ) के तहत मेडिकल सीटों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को 27% आरक्षण देना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैबिनेट विस्तार में ओबीसी समुदाय के 27 नेताओं को मंत्री बनाना यूपी को साधने की कोशिश ही है.
राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह आगे कहते हैं, ''इन वर्गों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की जो योजनाएं हैं और उन्हें जमीन पर जिस प्रकार लागू किया गया है उसका सीधा लाभ उनके पास पहुंच रहा है. पहले योजनाएं बनती तो थीं, लेकिन उनका लाभ सबको नहीं मिलता पाता था. भ्रष्टाचार होता था, पार्टी में जो प्रभावशाली नेता हैं वे अपने लोगों को दिलवाते थे. अब ये हो गया है कि जो स्कीम है या उसका जो पैसा है बिना भेदभाव के सीधे लाभार्थी के पास पहुंचता है. उसका भी बहुत बड़ा असर है. 2014 के पहले गैर यादव ओबीसी वोट बैंक बंटा हुआ था. जनसंघ के समय से ओबीसी का एक हिस्सा वर्तमान भाजपा के साथ था. इसमें शाक्य, मौर्या, लोध और सैनी प्रमुख हैं. लेकिन यह संख्या बहुत बड़ी नहीं थी. दरअसल ओबीसी डॉ. लोहिया के समय से समाजवादियों के पारंपरिक वोटर रहे हैं, उसके बाद ये चौधरी चरण सिंह के साथ आए, मंडल कमीशन के बाद समाजवादी पार्टी के साथ आए. यहां कुछ नहीं मिला तो बसपा के साथ गए, वहां भी कुछ नहीं मिला. 2014 में जबसे भाजपा के साथ आए हैं, तबसे उसी के साथ हैं.''
WATCH LIVE TV