नई दिल्लीः साल 2014, आज से 6 साल पहले का वह दौर जब भारत अन्य देशों से संबंधों और संधियों की नई इबारत लिख रहा था. आतंकवाद की समस्या भारत समेत कई देशों में समानांतर ही थी. (आज भी है) इसी बीच एक सुबह के अखबार का कोई पन्ना किसी के आंसुओं से भीगा हुआ था. यह किसी के अफसोस के आंसू थे, इन आंसूओं में वह हर चीख थी, जो किसी की मौत के बाद निकली होगी.
दुनिया ने दुख और अवसाद में भीगे उन शब्दों को पढ़ा, जिनका मजमून था. यह मैंने क्यों बना दिया, क्या बना दिया? इसका क्या हासिल हुआ? क्या मैं ही उन लाखों-करोड़ों मौतों का दोषी हूं.
क्यों अवसाद में था वह व्यक्ति
यह आखिरी शब्द एक आविष्कारक, एक निर्माण कर्ता, एक हथियार शिल्पी के थे. यह मिखाइल क्लाश्निकोव के शब्द थे, जिनकी मौत महज 2013 के बीतते साल में 23 दिसंबर को हुई थी. वही क्लाश्निकोव जिनके नाम पर संसार प्रसिद्ध AK-47 को क्लाश्निकोव राइफल कहा जाता है.
उन्होंने अपनी मौत से पहले एक लेख या चिट्ठी लिखी थी. इसमें जिक्र किया था कि AK-47 से हुई सारी मौतें क्या मेरे द्वारा की गई हत्याएं हैं. क्या मैंने मानव समुदाय को खून भरा इतिहास दिया है? यह सवाल मरते दम तक उनके जेहन को कुरेदते रहे. इसी अवसाद में उन्होंने दम तोड़ दिया. ठीक उसी तरह जैसे डाइनामाइट बनाकर अल्फ्रेड नोबेल ने एक बेचैन और अशांत मौत चुनी.
जिसे कहा गया आधुनिक युद्ध का देवता
आधुनिक युग के युद्ध के देवता के नाम से विख्यात हुए मिखाइल क्लाश्निकोव 10 नवंबर 1919 को जन्मे थे. विश्व युद्ध के माहौल में जन्मा और पला बढ़ा यह बच्चा युद्ध की बारीकियों और हथियारों की समझ-बूझ के साथ ही बढ़ा हुआ. इसके अलावा यह आविष्कारों और मशीनों के बढ़ते प्रभाव का भी समय था,
जिसका मिखाइल की परवरिश पर बखूबी असर पड़ा, लिहाजा, मशीनों को खोलकर देखने की जिज्ञासा ऐसी रही कि उन्हें खोलना, कठिन से कठिन पेंच सेट कर देना और बिगड़ी हुई मशीन सुधार देना मिखाइल का पहला शगल बन गया.
वह उनसे खेलता और मजे लेता बड़ा हुआ. रूस के उस युद्धभरे माहौल में जल्दी ही हथियारों के संपर्क में आ जाना मिखाइल के लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं रही.
बस यूं समझिए, नियति ने चुन लिया था तो चुन ही लिया, फिर उसने क्लाश्निकोव से युद्धक हथियार बनवाकर ही दम लिया.
मशीनों के साथ खेलते हुए बीता बचपन
इन सबमें सबसे बड़ी भूमिका उसकी गरीबी ने भी निभाई, खेलने को खिलौने तो नहीं दिए, लेकिन मशीनों के कल पुर्जे भरपूर मौजूद थे. रूस में जिस प्रांत में उनका बचपन बीता वहां पास ही एक फैक्ट्री थी और क्लाश्निकोव के उसमें कई दोस्त बन गए थे. बचपन और जवानी की शुरुआत कुछ ऐसी ही बीती. जब जवानी आने को हुई तो उसी दौरान रूस आर्मी में भर्तियां निकलीं. मिखाइल की लंबाई रेड आर्मी में भर्ती होने लायक नहीं थी.
लेकिन मशीनी जानकारी होने के दम पर मिखाइल को रेड आर्मी में जगह मिल गई. क्लाश्निकोव सेना में मशीनों के नियंत्रण के लिए रख लिए गए. इसी बीच उन्होंने हथियारों पर प्रयोग जारी रखे साथ ही रेड आर्मी को उनके सही प्रयोग भी बताने लगे. इसलिए कई बार पुरस्कृत भी हुए.
इस अपमान की भट्ठी में बनी थी AK-47
सब कुछ ठीक चल रहा था कि संसार के सामने दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका आ गई. विश्व युद्ध के समय टैंक का संचालन करते हुए वह जख्मी हो गए. उन्हें इलाज के लिए अस्पताल ले जाया गया. इलाज के दौरान वहां कुछ सैनिक मौजूद थे, जो सोवियत हथियारों की बुराई कर रहे थे.
जिसे सुनकर मिखाइल क्लाश्निकोव ने अपमानित महसूस किया. फिर तो उन्होंने ठान लिया कि वह रूस के सैनिकों के लिए ऐसे हथियार बनाएंगे जिससे वह अपने देश के लिए गर्व महसूस कर सकें. यह अपमान ही बाद में AK-47 की आग बनकर बाहर निकला. ऐसी गन जो ऑटोमेटिक थी. इसे नाम मिला ऑटोमेटिव क्लाश्निकोवा 47. क्योंकि 1947 में ही यह सामने आई थी.
तालिबान ने सबसे अधिक प्रयोग की AK-47
मिखाइल इसे लेकर काफी गर्व महसूस करते थे. लेकिन धीरे-धीरे उनका गर्व अवसाद में बदलता चला गया. एक लेख में क्लाश्निकोव का दावा था कि वह AK-47 से लाखों गोलियां दाग चुके हैं. वह कान में बहरेपन की समस्या से भी जूझ रहे थे.
कहते थे कि मैं सुन नहीं सकता, क्योंकि हर मौत की चीख मेरे ही कान में बज रही है. लगातार.. लगातार... तालिबान ने AK-47 का सबसे अधिक इस्तेमाल किया. यह तथ्य था जिसे मिखाइल कभी झेल नहीं पाए. इसी दुख को साथ लिए आधुनिक युद्ध का यह देवता 23 दिसंबर 2013 को संसार से विदा हो गया.
क्या कोई समझेगा युद्ध की त्रासदी
युद्ध मानव सभ्यता की सबसे बड़ी और भयानक त्रासदी हैं. जब भी कहीं दो लोगों, समुदायों या देशों में बातचीत का रास्ता बंद कर बंदूकों को सामने रख दिया जाता है तो समझ लेना चाहिए कि मनुष्यता का शव पहले गिरेगा, उन दोनों की लाशें बाद में.
मिखाइल क्लाश्निकोव की पुण्यतिथि कम से कम इस सीख को याद करने के लिए तो याद होनी ही चाहिए.
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