Prime Minister of first Provisional Government of India: 1919 में बरकतउल्ला लेनिन से मिले और 1922 तक रूस में रहते हुए उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देना जारी रखा. बाद में वे जर्मनी चले गए और फिर 1927 में अमेरिका के लिए रवाना हो गए.
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Muslim Freedom Fighter: हम जब भी भारत के पहले प्रधानमंत्री के नाम लेते हैं तो फौरन ज़हन में पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम आता है. पर क्या यह वाकई सच है? क्योंकि इतिहास का एक पन्ना वो भी है जिसमें भारत के पहले प्रधानमंत्री का नाम बरकतुल्ला खान बताया गया है! यह सुनकर हैरानी हो सकती है पर इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि पंडित नेहरू से पहले ही भारत के एक प्रधानमंत्री बने थे और उस शख्स का नाम था बरकतुल्ला खान भोपाली.
देश के पहले प्रधानमंत्री के नाम पर आपका तनाव और बढ़े इसके पहले समझ लें कि यहां जिन बरकतुल्ला खान की बात हो रही है, उनके प्रधानमंत्री चुने जाने के वक्त भारत अंग्रेजों का गुलाम था जबकि पंडित नेहरु आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री कहलाए. इसलिए लोगों ने उनके बारे में ज्यादा पढ़ा और सुना. लेकिन बरकतुल्ला खान भी वो शख्स हैं, जिनके बारे में बात होनी चाहिए. अब सवाल उठता है कि आखिर बरकतुल्लाह खान थे कौन? जिन्हें भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ.
बरकतुल्लाह खान साल 1858 में भोपाल में पैदा हुए, इसलिए भोपाली कहलाए. उन्होंने सुलेमानिया स्कूल से अरबी, फ़ारसी और अंग्रेजी की तालीम हासिल की. साल 1883 उन्होंने भोपाल छोड़ दिया और मुंबई चले गए. वहां उन्होंने अपनी तालीम जारी रखी. बंबई में पढ़ई पूरी करने के बाद साल 1887 में उन्होंने इंग्लैंण्ड का रूख किया. इंग्लैंण्ड पहुंच उन्होंने क्रिसेंट और और 'द इस्लामिक वर्ल्ड' जैसे पत्रिकाओं में किया. इसी दौरान उनकी मुलाकात यहां प्रवासी हिन्दुस्तानी क्रान्तिकारियों के संरक्षक श्याम जी कृष्ण वर्मा से हुई. बसकुछ घंटों की इस मुलाकात ने बरकतुल्ला के मन में घहरी छाप छोड़ी. वे भारत की आजादी के लिए मुखर हुए. इस दौरान वह लंदन टाइम्स में लगतार लेख लिखते रहे और अपने क्रांतिकारी लेखों से जल्द ही चर्चा में आ गए.
बरकतुल्लाह जहां भी रहे, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए सक्रिय रूप से काम कर रहते रहे. जब वह इंग्लैंड से जापान पहुंचे तो वहा भी उन्होंने भारतीय क्रांतिकारियों को एकजुट करने के लिए हर मुमकिन कोशिश की. यहां उन्होंने 'इस्लामिक फ्रेटरनिटी' अखबार का संपादन भी किया, जिससे घबराकर अग्रेज हुकूमत ने उनके भारत वापस आने पर पाबंद लगा दी.
1914 में बरकतुल्लाह ग़दर पार्टी के नेता भगवान सिंह के साथ सैन फ्रांसिस्को, अमरीका गए. यहीं पर 'ग़दर पार्टी' ने तय किया कि प्रवासी भारतीयों को भारत पहुंचना चाहिए और सशस्त्र विद्रोह करके अंग्रेजों को बाहर रास्ता दिखाना चाहिए. उस समय मौलवी बरकतुल्लाह ने अलग-अलग जगहों पर कई बैठकें कीं और लोगों को भारत लौटने की सलाह दी. जर्मनी में बरकतुल्लाह खान की मुलाकात राजा महेंद्र प्रताप से हुई. दोनों जल्द ही बड़े गहरे दोस्त बन गए. दोनों ने बर्लिन में युद्धरत हिन्दुस्तानी सैनिको से ब्रिटिश फ़ौज से बगावत करवाने के बाद उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खड़ा किया. आंदोलन को भारत तक पहुंचाने कि लिए दोनों ने साथ में तुर्की, बगदाद और फिर अफगानिस्तान का सफर किया. उस वक्त प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी ब्रिटेन के खिलाफ जंग कर रहा था और इस लिए बरकतुल्ला और राजा महेन्द्र जर्मनी सरकार के खास बन गए. सफर के दौरान सरकार ने उन्हें सुरक्षा के लिए सैनिक भी मुहैया करवाए.
साल 1915 में राजा महेन्द्र प्रताप और बरकतुल्ला ने अफगानिस्तान में हिन्दुस्तान की अस्थाई सरकार का गठन किया. प्रथम विश्व युद्ध के दौर में ब्रिटिश विरोधी जर्मनी सरकार ने फौरन ही अफ़गानिस्तान में हिन्दुस्तानियों की इस अस्थाई क्रांतिकारी सरकार को मान्यता प्रदान भी दे दी. स्थाई सरकार के राष्ट्रपति बने राजा महेन्द्र और प्रधानमंत्री बने बरकतुल्ला खान.
1919 में बरकतउल्ला लेनिन से मिले और 1922 तक रूस में रहते हुए उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देना जारी रखा. बाद में वे जर्मनी चले गए और फिर 1927 में अमेरिका के लिए रवाना हो गए. कुछ ही दिनों बाद 27 सितम्बर 1927 में बरकतुल्ला खान ने अमेरिका में ही अंतिम सांस ली.
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