कैसे-कैसे संत
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कैसे-कैसे संत

हिसार के सतलोक आश्रम में जो कुछ घटित हुआ है, उसने धर्मगुरुओं, गदिद्यों और डेराओं की गिरती प्रतिष्ठा को और गिराने का काम किया है। रामपाल के आश्रम से विलासिता की वस्तुओं की बरामदगी इस बात का इशारा करती है कि ये ठिकाने ईश्वर, परमपद, इहलोक, परलोक का ज्ञान कराने की जगह आस्था, श्रद्धा एवं भक्ति के आवरण में लोगों को ठगने और भौतिक सुख-संपदा में अकूत वृद्धि करने के साधन बन गए हैं। रामपाल पहले नहीं हैं जिन्होंने संत की मर्यादा, गरिमा और आचरण को ठेस पहुंचाई है। स्वामी नित्यानंद और आसाराम बापू जैसे अनेक तथाकथित संत इस 'डर्टी' खेल में संलिप्त रहे हैं। इन तथाकथित संतों ने अपने अमर्यादित आचरण से उन संतों, महात्माओं पर भी संदेह और अंगुली उठाने की पृष्ठभूमि बना दी है जो सही अर्थों में संत नाम को चरितार्थ करते हैं।    

आज समाज में हम देखें तो पाएंगे कि देश भर में ऐसे ढोंगी बाबाओं की बाढ़ आ गई है। भारतीय चिंतन मीमांसा में स्वयंभू ज्ञानी एवं संत होने की एक परंपरा रही है लेकिन आज जिसे देखो वही खुद को स्वयंभू होने का प्रमाणपत्र देकर ज्ञानी एवं महंत बन जाता है। कबीर ने अपने बारे में कहा है कि 'करत विचार मन हि मन उपजा न कहिं गया न आया।' यानी कि सत्य और सांसारिकता की अनुभूति एवं ज्ञान का साक्षात्कार उन्हें अपने भीतर हुआ। उन्हें ज्ञान की प्राप्ति के लिए कहीं और जाना नहीं पड़ा। कबीर के ज्ञान और भक्ति पर कोई संदेह नहीं कर सकता लेकिन आज के तथाकथित बाबा और संत सत्य के साक्षात्कार होने की बात यदि करते हैं तो उन पर सहज विश्वास करना मुश्किल होता है। रामपाल ने खुद को कबीर की परंपरा से जोड़ा है लेकिन यह यकीं करना मुश्किल है कि कबीर को सच्चे अर्थों में जानने वाला कोई व्यक्ति हिंसा का समर्थक, वाह्याचारों एवं विलासिता में रचा-पगा कैसे हो सकता है। संत रामपाल के आश्रम से जो चीजें बरामद हुई हैं, वह उनके संत होने पर सवाल खड़े करती हैं। संतों को 'सीकरी' से काम नहीं होना चाहिए।         

आज असली और नकली बाबा की पहचान मुश्किल हो गई है। इन्हें आधुनिक ‘बाबाज’ कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। टेलीविनज चैनलों से लेकर छोटे-बड़े शहरों में इनकी दुकानें फल-फूल रही हैं। इन‘बाबाज’को खुद परमतत्व, ईश्वर एवं मोक्ष का ज्ञान नहीं है लेकिन वे लोगों को ईश्वर का ज्ञान कराने का दावा करते हैं। इन तथाकथित बाबाओं और गुरुघंटालों का एक ही मकसद लोगों को बहला-फुसला एवं प्रलोभन देकर अपने जाल में फंसाना है और उनसे धन की उगाही करना है। खुद को साधु, संत, संन्यासी बताने वाले ये गुरुघंटाल शर्तिया इलाज से लेकर हर मर्ज की दवा करने का दावा करते हैं। इनके पास हर समस्या के समाधान का 'क्रैश कोर्स' है। भोले-भाले और गरीब लोग आसानी से इनका शिकार बन जाते हैं। हर एक बाबा अपने लाखों-करोड़ों शिष्य होने का दावा करता है। इन बाबाओं से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने कितने भक्तों को ज्ञान एवं सत्य से साक्षात्कार कराया है। शायद कोई नहीं मिलेगा।

सवाल यह है कि इन तथाकथित बाबाओं एवं संतों के चंगुल में लोग फंस क्यों जाते हैं? लोग अपने गुरु एवं बाबा के प्रति इतने अंधभक्त एवं अतार्किक क्यों हो जाते हैं? इसका एक जवाब हो सकता है कि भारतीय मानस में गुरु के प्रति आस्था, विश्वास की जड़ें इतनी गहरी हैं कि भक्त किसी प्रकार से अपने गुरु के प्रति अविश्वास प्रकट नहीं करता। दूसरा, आज के ज्यादातर बाबा चमत्कारी हैं, वे अपने भक्तों को तरह-तरह के चमत्कारों एवं लीलाओं से अपने मोहपाश में बांध लेते हैं। उनके हृद्य एवं मन पर एक तरह से अपना प्रभाव जमा लेते हैं कि और भक्त उनकी हर एक गतिविधि में अलौकिकता का दर्शन करने लगता है। आज धर्म एक बाजार बन गया है। ईश्वर एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के पैकेज हैं। अपनी हैसियत के हिसाब से लोग अपने लिए गुरु एवं साधक खोज सकते हैं। थो़ड़े समय में हर किसी को अमीर बनने की लालसा है। कम समय में ज्यादा पा लाने की लालसा एवं अति महात्वाकांक्षा लोगों को 'गुरुघंटालों एवं बाबाज' के पास जाने के लिए विवश करती है।

समाज में अंधविश्वास फैलाने की इजाजत संविधान भी नहीं देता। सरकारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे उन सभी तत्वों को काबू में करें जो समाज में अंधविश्वास फैलाने का काम करते हैं। बाबाओं की चमत्कारी शक्तियां एवं जादू इसी श्रेणी में आते हैं। नकली साधुओं, संन्यासियों एवं संतों के प्रति लापरवाही से अंतत: समाज को ही नुकसान उठाना पड़ता है। सरकारों की उदासीनता के चलते ही नकली बाबाओं और संतों के पास अकूत संपदा जमा हो जाती है और आगे चलकर वे व्यवस्था के लिए चुनौती बन जाते हैं, जैसा कि आसाराम और रामपाल के मामले में सामने आया है। लोगों को भी असली-नकली साधु-संत की पहचान करनी होगी तभी जाकर सतलोक आश्रम जैसी घटनाओं के दोहराव से बचा जा सकेगा।

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