Cease Fire Meeting: रूस-यूक्रेन युद्ध विराम की मीटिंग के बाद जो मसाला निकलकर आ रहा है.. वो उठना मीठा नहीं है जितना दिख रहा है. रूस जो चाहता है उससे जेलेंस्की खुश नहीं है. यूरोप अब लगभग बेबस है उसको अपनी भूमिका अभी तय करनी है. इन सबके बीच रूस-अमेरिका में जो पक रहा है उसकी भी एक क्रोनोलॉजी है.
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America Russia Ukraine NATO: पिछले कुछ दिनों से रूस-यूक्रेन युद्ध विराम की जो हलचल मची थी अब सऊदी अरब में हुई एक मीटिंग के बाद इसकी तस्वीर लगभग साफ होती जा रही है. रूस-यूक्रेन युद्ध को तीन साल पूरे होने वाले हैं और इसी बीच सऊदी अरब की राजधानी रियाध में अमेरिका और रूस के बीच महत्वपूर्ण बैठक हुई. इस बैठक की सबसे खास बात यह रही कि इसमें यूक्रेन शामिल नहीं था. करीब साढ़े चार घंटे चली इस बातचीत में रूस ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया कि यूक्रेन में नाटो NATO की सेनाओं की तैनाती उसे किसी भी हाल में स्वीकार नहीं होगी. लेकिन यह सब की कोई स्क्रिप्ट थी या फिर संयोग कहें की रूस ने अमेरिका को यूक्रेन की कीमत पर मनवा लिया. इसे डिटेल में समझना जरूरी है.
दरअसल इस बैठक के दौरान जब अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो और रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव आमने-सामने बैठे तब पूरी दुनिया की निगाहें इस वार्ता पर टिकी हुई थीं. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में लौटने की संभावना ने इस मीटिंग को और महत्वपूर्ण बना दिया था. बार-बार ट्रंप अपनी हर बातचीत में इस संघर्ष को समाप्त करने को लेकर उत्सुक दिख रहे थी. इस मीटिंग के दौरान इस दौरान यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की तुर्की में मौजूद थे और उन्होंने आखिरी क्षणों में सऊदी अरब का दौरा रद्द कर दिया.
इंरनेशनल मीडिया रिपोर्ट्स में बैठक के हवाले से साफ बताया गया कि दौरान रूस ने अमेरिका के सामने दो टूक रख दिया कि यूक्रेन में नाटो देशों की सैन्य मौजूदगी उसकी संप्रभुता के लिए सीधा खतरा है. लावरोव ने जोर देते हुए कहा कि यदि नाटो सैनिक यूक्रेन में तैनात होते हैं तो यह रूस के लिए अस्वीकार्य होगा. रूस लंबे समय से यह मानता रहा है कि नाटो का विस्तार उसकी सुरक्षा के लिए खतरा है और यह विवाद की सबसे बड़ी जड़ है. लावरोव ने तो यह भी कह दिया कि अगर जो बाइडेन ने यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की पहल न की होती तो यह युद्ध कभी शुरू ही नहीं होता. इस बात से भी ट्रंप प्रशासन पिघलता दिख गया.
रूस का नाटो के प्रति अविश्वास दशकों पुराना है. इसे थोड़ा समझना पड़ेगा. 1949 में अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों द्वारा स्थापित नाटो का मूल उद्देश्य सामूहिक सुरक्षा था लेकिन शीत युद्ध के दौरान यह सोवियत संघ के खिलाफ एक सैन्य गठबंधन के रूप में विकसित हुआ. सोवियत संघ के विघटन के बाद भी नाटो का पूर्वी विस्तार जारी रहा जिससे रूस की चिंताएं बढ़ गईं.
1989 में जर्मनी के एकीकरण और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद कई पूर्वी यूरोपीय देश नाटो में शामिल हो गए. 1999 में चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड, 2004 में बुल्गारिया, रोमानिया, स्लोवेनिया, स्लोवाकिया और तीन बाल्टिक देश भी नाटो का हिस्सा बन गए. 2009 में क्रोएशिया और अल्बानिया भी नाटो में शामिल हो गए. जब यूक्रेन ने 2014 में नाटो से नजदीकियां बढ़ाईं तो रूस ने इसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए क्रीमिया पर कब्जा कर लिया. 2022 में रूस ने यूक्रेन पर बड़ा हमला किया जो आज भी जारी है.
रूस का कहना है कि अमेरिका और पश्चिमी देशों ने नाटो के विस्तार को लेकर 1990 में किए गए समझौते को तोड़ दिया. सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री जेम्स बेकर ने आश्वासन दिया था कि नाटो पूर्वी जर्मनी से आगे नहीं बढ़ेगा. लेकिन धीरे-धीरे पश्चिमी देशों ने इस वादे को तोड़ते हुए कई पूर्व सोवियत देशों को नाटो में शामिल कर लिया. जब यह मुद्दा यूक्रेन तक पहुंचा तो रूस ने इसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए सैन्य कार्रवाई कर दी.
यह तो सही है कि रूस-यूक्रेन युद्ध में यूरोप का रुख भी जटिल रहा है. एक तरफ यूरोपीय देश रूस पर प्रतिबंध लगाकर उसे अलग-थलग करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन दूसरी ओर वे रूस से ऊर्जा आपूर्ति भी जारी रखे हुए हैं. 2023 में यूरोप ने रूस से रिकॉर्ड मात्रा में LNG खरीदी. इसी की चर्चा कई बार भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर कर चुके है. साफ है कि प्रतिबंधों के बावजूद व्यापार जारी है. यूरोपीय देश एक ओर यूक्रेन की संप्रभुता की बात कर रहे हैं. लेकिन दूसरी ओर वे रूस से दूरी बनाने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं. और अब तो इस मीटिंग के बाद यूरोप भी ठंडा पड़ गया है.
एक अन्य इंटनेशनल रिपोर्ट के मुताबिक रूस-यूक्रेन युद्ध के शुरुआती दौर में वोलोदिमीर जेलेंस्की को एक करिश्माई नेता के रूप में देखा गया लेकिन समय के साथ उनकी लोकप्रियता में गिरावट आई है. यूक्रेन की जनता रूस के खिलाफ झुकने को तैयार नहीं है लेकिन तीन साल का युद्ध अब उसे थका रहा है. राजनीतिक अनुभव की कमी और युद्ध की लंबी अवधि ने जेलेंस्की की स्थिति को कमजोर कर दिया है.
हालांकि जेलेंस्की ने यह जरूर खा कि सऊदी अरब में अमेरिका-रूस वार्ता यूक्रेन के कोई सार्थक समझौता संभव नहीं है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि यूरोप और अमेरिका अब उनकी बातों को पहले जैसी तवज्जो नहीं दे रहे. लेकिन बी उनकी स्थिति वैसी रही नहीं.
फिलहाल रियाध में हुई यह बैठक संभावित बातचीत का पहला कदम मानी जा रही है. अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने कहा कि अगर यूक्रेन युद्ध समाप्त होता है तो रूस और अमेरिका के संबंधों में सुधार की संभावनाएं खुल सकती हैं. रूस और अमेरिका दोनों ने अपने-अपने दूतावासों में स्टाफ बहाल करने और शांति वार्ता के लिए एक उच्च स्तरीय टीम बनाने पर सहमति जताई है. हालांकि यह भी सही है कि अभी तक कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया है. यूक्रेन खुश नहीं है.
एक जो सबसे खास बात निकलकर आई है वह यह कि यूक्रेन के बहाने ही सही रूस-अमेरिका जरूर कुछ नजदीक आते दिख रहे हैं. ट्रंप ने भी इसके संकेत दिए हैं. यहां तक कि ट्रंप-पुतिन के मीटिंग की भी चर्चाएं हो रही हैं. अब देखना होगा कि क्या नाटो के विस्तार को लेकर रूस की चिंता और यूरोप-अमेरिका की रणनीतिक मजबूरियां बीच में आएंगी या फिर इसका कोई हल ट्रंप निकाल चुके हैं.