Tamil Nadu News in Hindi: तमिलनाडु में राज्यपाल ने सीएम की सिफारिश को दरकिनार कर पार्टी नेता को मंत्री बनाने से इनकार कर दिया. ऐसी स्थिति में राज्य सरकार आगे क्या कर सकती है. यह अजीब मामला अब सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है.
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Tamil Nadu CM- Governor News: भारतीय संविधान में केंद्र में राष्ट्रपति और राज्यों में राज्यपालों को सुप्रीम माना गया है. राज्यपालों को राज्यों में राष्ट्रपति का प्रतिनिधि माना जाता है और वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करते हैं. मंत्रिमंडल का गठन या किसी मंत्री की बर्खास्तगी भी ऐसे ही प्रमुख कार्य है, जिसे राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर करते हैं. लेकिन अगर गवर्नर राज्य मंत्रिमंडल की सलाह को दरकिनार कर किसी विधायक को मंत्री पद की शपथ दिलाने से इनकार कर दे तो क्या होगा.
तमिलनाडु में क्यों पनपा संवैधानिक संकट?
तमिलनाडु में ऐसा ही एक संवैधानिक संकट खड़ा हो गया है. राज्यपाल आरएन एन रवि ने एमके स्टालिन सरकार की सिफारिश को नजरअंदाज कर डीएमके के वरिष्ठ नेता पोनमुडी को मंत्री की शपथ दिलाने से इनकार कर दिया है. सरकार ने राज्यपाल के इस कृत्य को अंसवैधानिक बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है और अब मामला देश की शीर्ष अदालत के सामने है.
राज्यपालों के 'उत्पीड़न' से बचाने की गुहार
राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच सत्ता संघर्ष का यह पहला मामला नहीं है. इससे पहले भी पश्चिम बंगाल, दिल्ली, तमिलनाडु और पंजाब में ऐसे मामले लगातार सामने आते रहे हैं. इनमें से तमिलनाडु और पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर राज्यपालों के 'उत्पीड़न' से बचाने की गुहार लगाई थी. दोनों राज्यों का कहना था कि राज्य विधान मंडलों की ओर से पारित कई विधेयकों को राजभवन रोककर बैठे हुए है और कोई फैसला नहीं ले रहे हैं. जिससे वे विधेयक कानून नहीं बन पा रहे हैं और जनता को उनका लाभ नहीं मिल रहा है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु और पंजाब के राज्यपालों को झिड़की विधेयकों पर जल्द फैसला लेने का आदेश दिया था.
आखिर क्यों अड़े हुए हैं तमिलनाडु के राज्यपाल?
अब आपको दोबारा से तमिलनाडु के मौजूदा मामले पर लिए चलते हैं. सबसे पहले आपको बताते हैं कि पोनमुडी का मामला आखिर क्या है और राज्यपाल उन्हें मंत्री पद की शपथ न दिलाने पर क्यों अड़े हुए हैं. असल में स्टालिन सरकार में मंत्री पोनमुडी और उनकी पत्नी पर भ्रष्टाचार का केस चल रहा था. मद्रास हाईकोर्ट ने पोनमुडी को भ्रष्टाचार और आय से ज्यादा संपत्ति रखने के मामले में दोषी करार देते हुए 3 साल की सजा सुनाई थी. पोनमुडी को 3 साल की सजा होते हुई वे जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(1) के तहत जनप्रतिनधि बनने के अयोग्य हो गए, जिसके चलते उन्हें मंत्री और विधायक पद से इस्तीफा देना पड़ा.
सीएम की सिफारिश को मानने से किया इनकार
मद्रास हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ पोनमुडी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की, जहां पर उनकी दोषसिद्धी पर रोक लगा दी गई. सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद सीएम एमके स्टालिन ने 13 मार्च को राज्यपाल आरएन रवि को पत्र लिखकर फिर से पोनमुडी को मंत्री पद की शपथ दिलाने की सिफारिश की, लेकिन गवर्नर से इस चिट्ठी को मानने से इनकार कर दिया. गवर्नर का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट ने पोनमुडी की दोषसिद्धी पर रोक लगाई है और उन्हें मामले से बरी नहीं किया है, लिहाजा वे अब भी भ्रष्टाचार मामले में दोषी हैं. लिहाजा एक आरोपी को राज्य सरकार में मंत्री नहीं बनाया है.
पोनमुडी को मंत्री बनाने पर भिड़े हैं दोनों
पोनमुडी की विधानसभा सदस्यता को बहाल न करने पर चुनाव आयोग ने उनकी तिरुक्कोयिलुर असेंबली सीट को खाली मानते हुए लोकसभा चुनावों के साथ ही इलेक्शन करवाने की घोषणा कर दी है. यानी पोनमुडी के दोबारा मंत्री बनने का रास्ता फिलहाल बंद सा हो गया है. राज्यपाल के इस रुख पर आपत्ति जताते हुए तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है.
सुप्रीम कोर्ट के सामने संवैधानिक सवाल
कानूनविदों के मुताबिक सामान्य परिस्थितियों में राज्यपाल मंत्रिमंडल की सिफारिश को नकार नहीं सकते. लेकिन पोनमुडी हाईकोर्ट की ओर से भ्रष्टाचार मामले में दोषी ठहराए जा चुके हैं और सुप्रीम कोर्ट ने भी उन्हें बरी नहीं किया है. ऐसे में एक आरोपी को मंत्री बनाने की सिफारिश को मानने के लिए राज्यपाल बाध्य हैं या नहीं, अब यह सवाल संवैधानिक प्रश्न बन गया है. जिसका जवाब सुप्रीम कोर्ट को खोजना होगा.
दिल्ली के मंत्री क्यों बने रहे पदों पर?
अगर दिल्ली की बात करें तो मनीष सिसोदिया आबाकारी मामले में अरेस्ट होने के बावजूद काफी दिनों तक डिप्टी सीएम बने रहे. वहीं सत्येंद्र जैन भी जेल जाने के बावजूद काफी दिनों तक स्वास्थ्य मंत्री बने रहे. पार्टी नेता संजय सिंह भी इसी मामले में जेल में हैं और दोबारा से राज्यसभा का चुनाव जीत गए हैं. इसके बावजूद उनकी सदन से सदस्यता नहीं गई. इसकी वजह ये है कि इन नेताओं का केस अभी कोर्ट में चल रहा है और उन पर कोई फैसला नहीं आया है. ऐसे में उनकी सदन से सदस्यता बनी हुई है.