झारखंड के खूंटी जिले के डोंबारी बुरु पहाड़ अंग्रेजी हुकूमत के बर्बरता पर उलगुलान के शहीदों का ऐतिहासिक स्थल है, जो 9 जनवरी 1999वें की खूनी इतिहास का प्रतिक है. जहां अंग्रेज सैनिकों ने 400 से अधिक निहत्थे महिला पुरुष, वृद्ध और बच्चों को गोलियों से मार डाला था. यह खूंटी जिले के मुरहू प्रखंड अंतर्गत गुटूहातु पंचायत के अंतर्गत आनेवाले पहाड़ियों के बीच डोम्बारी बुरु से आज भी वो अनुभूति का साक्ष्य मिले जाता है.
अंग्रेजी हुकूमत के बर्बरता का शिकार हुए इन्हीं शहीदों की याद में डोम्बारी बुरु में शहीद मेला का आयोजन किया जाता है. इन शहीदों की याद में मेले की शुरुआत गांधी जी के सहयोगी स्वतंत्रता सेनानी सिंगराज सिंह मानकी, हाथीराम मुण्डा, कोलाय मुण्डा, डॉ. रामदयाल मुंडा आदि कई लोगों ने मिलकर शुरू किया था.
अंग्रेजी हुकूमत में अंग्रेज सनिकों ने जालियांवाला बाग हत्याकांड के पहले खूंटी के इस धरती के भूभाग में अंग्रेजों के बर्बरतापूर्ण हत्याकांड को अंजाम दिया था. जिन सभी शहीदों को डोंबारी बुरु में श्रद्धांजलि अर्पित किया जाता है और मुंडारी संस्कृति और भाषा में शहीदों के नाम गीत गाये जाते हैं.
स्थानीय ग्रामीण गोवर्धन सिंह मानकी ने बताया कि यह सेल रकम डोमरी पहाड़ अंग्रेजों के बर्बरता पूर्ण गोलियों के शिकार 400 से अधिक महिला पुरुष, वृद्ध बच्चे की शहादत का ऐतिहासिक स्थल है. यहां अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा के अनुयायियों और भोले भाले जनजातीय लोगों पर गोलियां चलाई थी, जो जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए लोगों को जागृत कर रहे थे.
खूंटी जिला केंद्र से लगभग 15 किमी पूरब की ओर मुरहू प्रखण्ड अंतर्गत यह डोम्बारी बुरु सुरम्य पहाड़ियों के बीच एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक है, जो खून से लाल हो गई थी जब बिरसा मुण्डा ने एक सदी से भी अधिक समय पहले अंग्रेजों के खिलाफ अपने पौराणिक उलगुलान (विद्रोह) का नेतृत्व किया था, जो झारखंड की राजधानी से 50 किमी दूर स्थित है, डोम्बारी बुरु में मानक स्तूप शैल रकब है. जो एक दर्शनीय स्थल है.
बिरसा महाविद्यालय के इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ आशुतोष कुमार ने बताया कि डोंबारी पहाड़ के इर्द-गिर्द ही उनके सगे संबंधी और मामा मौसी का घर हुआ करता था. बिरसा मुंडा के पिताजी गरीबों के कारण पढ़ा नहीं पाते थे. इसलिए वे यहां आकर बकरियां भी चलाते थे और पढ़ाई भी करते थे. इसीलिए इस क्षेत्र के लोगों से उनका परिचय भी अच्छा था.
उन्होंने बताया कि जब यहां से पढ़ाई करने के बाद चाईबासा लुधियाना स्कूल चले गए तो फिर वहां से उनके कृत्य का विरोध करते हुए भाग गए और फिर इसी क्षेत्र में आकर उलगुलान का बिगुल फूँका, क्योंकि अंग्रेज जंगलों पर टैक्स लागू करना चाह रहे थे. जिसका बिरसा मुंडा आने पुरजोर विरोध किया था, फिर पहाड़ के ऊपर बिरसा मुंडा लोगों को मार्गदर्शित कर रहे थे उसी समय अंग्रेजों ने निहत्थे जनजाति लोगों पर गोलियां और सैकड़ो लोगों को गोलियों से भून डाला. जिनकी याद में 9 जनवरी को शहीदों की कोई नमन करने के लिए लोग पहुंचते हैं.
रिपोर्ट: ब्रजेश कुमार
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