Mahatma Gnadhi and RSS : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर महात्मा गांधी की हत्या के बाद 17 महीने का प्रतिबंध लगा था. ये 17 महीने संघ और माधव सदाशिव गोलवलकर के लिए काफी चुनौतियों से भरे थे. बापू की हत्या के बाद RSS की प्रतिक्रिया क्या थी और कैसे हिंदू महासभा के करीबी नाथूराम गोडसे की वजह से आरएसएस को परेशानियां झेलनी पड़ी.
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Mahatma Gandhi and RSS : महात्मा गांधी की हत्या का सबसे ज्यादा नुकसान राष्ट्रीय स्वयंसेवक को हुआ. जिसे 75 साल बाद भी अपने निर्दोष होने के अलग अलग तर्क देने पड़ते है. उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री और सरदार वल्लभभाई पटेल गृहमंत्री थे. और उस समय संघ प्रमुख एमएस गोलवलकर थे.
महात्मा गांधी के हत्या की खबर गोलवलकर को जिस समय मिली तब वे मद्रास में थे. खबर मिलते ही तुरंत उन्हौने पीएम नेहरु और पटेल को हिंदी भाषा में एक तार भेजा. गोलवलकर ने गांधीजी को महान व्यक्तित्व और अद्वितीय संगठक बताया था. संघ प्रमुख ने देशभर की शाखाओं में भी संदेश भिजवाया कि गांधीजी की हत्या पर शाखाओं में 13 दिन का शोक मनाया जाएगा. अगले दिन उन्हौने फिर नेहरु और पटेल को लिखा- भविष्य के बारे में सोचकर मेरा ह्रदय चिंतित है.
संदेश इसके बाद भी एक भेजा गया. 3 फरवरी को देशभर की शाखाओं में संदेश भेजा गया. "गुरुजी नजर बंद है, हमें हर हाल में शांति बनाए रखनी है" इसके अगले ही दिन RSS पर पाबंदी लग गई. उस समय देशभर में मौजूद संघ के करीब 50 लाख सदस्यों में से 20 हजार को गिरफ्तार कर दिया गया. करीब 17 महीने तक ये प्रतिबंध रहा.
गांधी जी की हत्या के एक साल बाद यानि फरवरी 1949 में करीब करीब ये तय हो गया था. कि संघ का बापू की हत्या में कोई हाथ नहीं है. जुलाई 1949 में संघ से पाबंदी हटा दी गई. हालांकि संघ के सामने ये भी शर्त रखी गई कि वो अपना संविधान तैयार करेगा और उसी के हिसाब से संगठन चलाएगा.
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संघ को ये भी कहा गया कि वो अपने संविधान के मुताबिक भारतीय ध्वज और संविधान के प्रति ईमानदार रहने का वचन देगा. साथ ही हमेशा अराजनीतिक रहेगा. संघ के संविधान में इन बातों का जिक्र तो किया गया लेकिन इस प्रतिबंध से संघ को ये भी समझ में आ गया कि आजाद भारत में राजनीतिक ताकत जरुरी है.
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संघ के लोगों ने ये महसूस किया नाथूराम गोडसे का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ज्यादा हिंदू महासभा से करीबियां थी. लेकिन सरकार ने महासभा पर पाबंदी नहीं लगाई. क्योंकि अंतरिम सरकार में हिंदू महासभा के चुने हुए प्रतिनिधि संसद में थे. जबकि आरएसएस राजनीति से दूर रहता है. इसलिए संसद में उनकी आवाज उठाने वाला कोई नहीं था. बाद में चलकर शायद इसी विचार की वजह से संघ का राजनीतिक दखल और विचार धीरे धीरे बढ़ता ही गया.