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Margaret Alva vs Jagdeep Dhankhar: राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे सामने आने के बाद अब लोगों को उपराष्ट्रपति चुनाव के परिणाम का इंतजार है. उपराष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार जगदीप धनखड़ और विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा के बीच मुकाबला है. चुनाव से पहले ही विपक्ष में मतभेद देखने को मिल रहा है. टीएमसी ने खुद को उपराष्ट्रपति चुनाव से अलग कर लिया है. ऐसे में यह चुनाव एकतरफा होता दिखाई दे रहा है. इस बीच विपक्ष की उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा ने विपक्षी दलों में लगातार बढ़ रहे मतभेद और संख्या बल उनके पक्ष में नहीं होने को लेकर कहा कि वह चुनावी नतीजों को लेकर बिल्कुल भी परेशान नहीं हैं, क्योंकि वोटों का गणित कभी भी बदल सकता है. अल्वा ने कहा, 'हम यह कहकर पीछे नहीं हट सकते कि हमारे पास पर्याप्त संख्या बल नहीं है, इसलिए हम चुनाव नहीं लड़ेंगे.' उपराष्ट्रपति चुनाव में एक पखवाड़े से भी कम समय बचा होने के बीच उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि ममता बनर्जी के पास उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के मतदान से दूर रहने संबंधी फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए ‘पर्याप्त वक्त’ है.
..तो काफी डर लगता है
विपक्ष की उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा ने कहा कि जब मैं आसपास देखती हूं तो काफी डर लगता है. आप जो चाहते हैं, वह खा नहीं सकते. आप जो चाहते हैं, वह पहन नहीं सकते. आप जो चाहते हैं, वह कह नहीं सकते. आप उन लोगों से मिल भी नहीं सकते, जिनसे आप मिलना चाहते हैं. यह कैसा समय है? अल्वा सोमवार को संसद भवन के सेंट्रल हॉल में विभिन्न दलों के सांसदों से मुलाकात कर उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए अपना अभियान शुरू करेंगी. आइये आपको बताते हैं मार्गरेट अल्वा ने उपराष्ट्रपति चुनाव से जुड़े अहम सवालों का क्या जवाब दिया....
सवाल : निर्वाचक मंडल का गणित स्पष्ट रूप से विपक्ष के खिलाफ है, ऐसे में कुछ लोग पूछ रहे हैं कि एक हारी हुई लड़ाई क्यों लड़ें?
जवाब : चूंकि, संख्या बल हमारे पक्ष में नहीं है, इसलिए हमें चुनाव नहीं लड़ना चाहिए? मेरा मानना है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में, जीत हो या हार, आपको चुनौती स्वीकार करनी होगी और उन सांसदों के सामने अपनी बात रखनी होगी, जो अब निर्वाचक मंडल का हिस्सा हैं. हमारा सरकार से अलग नजरिया है और जरूरत उन लोगों की है, जो चुनौती को स्वीकार करने के लिए एक साझा मंच पर हैं. अल्वा ने कहा कि विपक्षी दलों ने इस चुनाव में उनका उम्मीदवार बनने के लिए मुझसे संपर्क किया था. मैं भले ही बेंगलुरु में जा बसी थी, लेकिन मुझे महसूस हुआ कि इस चुनौती का सामना करना होगा और मैंने हां कर दी. हम सभी समझते हैं कि जीत और हार चुनाव का हिस्सा हैं.
सवाल : विपक्षी खेमे में शामिल तृणमूल कांग्रेस ने उपराष्ट्रपति चुनाव से दूर रहने की घोषणा की है, आप उसके इस फैसले को किस रूप में देखती हैं?
जवाब : मैं इस घोषणा से स्तब्ध हूं. ममता बनर्जी विपक्ष को एकजुट करने के अभियान की अगुवाई करती रही हैं. वह पिछले कई वर्षों से मेरी दोस्त हैं और मेरा मानना है कि उनके पास अपना फैसला बदलने के लिए पर्याप्त समय है.
सवाल : क्या इससे विपक्ष में मतभेद उजागर नहीं होते?
जवाब : यह एक पारिवारिक झगड़े की तरह है. कभी-कभी मतभेद, अलग-अलग धारणाएं और शायद अलग-अलग स्थितियां होती हैं. लेकिन, हम बैठकर बात करेंगे और इसे सुलझा लेंगे. वह (ममता) हमारा हिस्सा हैं और उनकी मूल विचारधारा कांग्रेस जैसी है. मैं हमेशा उन्हें हममें से एक मानती हूं. मेरा मानना है कि हम बैठकर बात करके किसी भी मतभेद को सुलझा सकते हैं. वह हमेशा से ही भाजपा से लड़ती आई हैं. वह चुनाव जीतने में भाजपा की मदद करेंगी, इसका सवाल ही नहीं उठता.
सवाल : हाल में संपन्न राष्ट्रपति चुनाव में भी विपक्ष में मतभेद की बात सामने आई थी. कई राज्यों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में ‘क्रॉस वोटिंग’ हुई थी.
जवाब : इस बार भी ऐसा हो सकता है और वोट इस तरफ आ सकते हैं. ‘क्रॉस वोटिंग’ इन दिनों बहुत आम हो गई है. मुझे लगता है कि एक आदिवासी महिला को निर्वाचित करने के विचार ने बहुत अहम भूमिका निभाई और वह राष्ट्रपति बनने की पात्र भी हैं. मैं उन्हें बधाई देती हूं. वह राष्ट्रपति चुनाव में पहली आदिवासी महिला उम्मीदवार थीं और मैं उपराष्ट्रपति चुनाव में दक्षिण भारत से पहली महिला प्रत्याशी हूं.
सवाल : संभावित नतीजों से वाकिफ होने के बावजूद उपराष्ट्रपति चुनाव लड़ने का आपका मकसद क्या है?
जवाब : मेरा कोई व्यक्तिगत मकसद नहीं है. विपक्षी दल एक ऐसा उम्मीदवार चाहते थे, जो सभी को स्वीकार्य हो. इसलिए उन्होंने मुझसे अपना प्रत्याशी बनने का आग्रह किया. और भले ही वर्तमान में संख्या बल विपक्ष के पक्ष में नहीं है, मैंने हां कर दी और यह चुनौती स्वीकार कर ली. हम यह कहकर पीछे नहीं हट सकते कि हमारे पास पर्याप्त संख्या बल नहीं है, इसलिए हम चुनाव नहीं लड़ेंगे. और इस तरह के चुनाव में वोटों का गणित कभी भी बदल सकता है.
सवाल : हाल में संपन्न राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा ने आरोप लगाया है कि चुनाव में धन बल का इस्तेमाल किया गया था.
जवाब : त्रासदी यह है कि आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता का फैसला बरकरार नहीं रहता. कर्नाटक को ले लीजिए, महाराष्ट्र को ले लीजिए, मध्य प्रदेश को ले लीजिए. विभिन्न राज्यों में जनादेश की अनदेखी की जाती है और बाहुबल, धनबल और धमकियां निर्वाचित ढांचे की संरचना को बदल देती हैं.
सवाल : आप एक कुशल राजनेता हैं और चार राज्यों की राज्यपाल रह चुकी हैं. क्या आपको लगता है कि अगर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चयन आम सहमति से होता तो राष्ट्रीय एकता को लेकर बेहतर संदेश जाता?
जवाब : मैं इस बात से सहमत हूं. इसलिए सरकार को मेरा समर्थन करने के बारे में सोचना चाहिए. अगर इन दोनों पदों के लिए सभी पक्षों से बातचीत कर आम सहमति कायम कर ली जाती तो बेहतर होता.
सवाल : द्रौपदी मुर्मू की जबरदस्त जीत को आप किस रूप में देखती हैं?
जवाब : मुझे लगता है कि यह पहले से ही तय थी, क्योंकि विधायकों ने भी मतदान किया था और ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकार है. फिर भी मैं कहूंगी कि यशवंत सिन्हा ने बहुत दमदार टक्कर दी. उन्होंने ऐसे मुद्दे और बिंदु उठाए, जो आज देश के लिए चिंता का विषय हैं.
सवाल : आप संसद के दोनों सदनों में पीठासीन अधिकारी रह चुकी हैं. संसद की कार्यवाही का नियमित हिस्सा बनकर उभर रही व्यवधान की राजनीति पर आपका क्या कहना है?
जवाब : यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. लेकिन मुद्दा यह है कि व्यवधान क्यों हो रहा है? इसका कारण यह है कि सभापति समझौता करवाने और ऐसा तरीका निकालने में असमर्थ हैं, जिससे विपक्षी दलों के दृष्टिकोण और चर्चा और बहस कराने की उनकी मांगों को सदन के एजेंडे में शामिल किया जा सके. आप बिना किसी बहस के, बिना किसी चर्चा के, बिना किसी तरह के विचार-विमर्श के, सिर्फ 12 मिनट में 22 विधेयक पारित नहीं कर सकते. यहां तक कि बजटीय अनुदान भी सदन में बिना बहस के पारित कर दिया गया. और यह करदाताओं का पैसा है, जिस पर जनप्रतिनिधियों की राय ली जानी चाहिए.
सवाल : उच्च सदन की जरूरत को लेकर भी सवाल उठते हैं और इसे एक अवरोधक सदन के रूप में पेश किया जाता है.
जवाब : उच्च सदन ने ऐसे दिग्गजों को देखा है, जिन्होंने आवाज उठाई, जो एक-दूसरे से लड़े, जिनका नजरिया अलग था, जिन्होंने सरकार और इंदिरा गांधी सहित अन्य प्रधानमंत्रियों पर निशाना साधा. लेकिन वहां बहस होती है, बोलने का अधिकार है और आपने सुना है. आखिर संसद चर्चा, बहस और समझौते कराने तथा आम सहमति बनाने वाले एक कक्ष के अलावा और क्या है? बहुमत को वोट देने दें, लेकिन सदन में अल्पमत के दृष्टिकोण को खारिज नहीं किया जा सकता है. वे अपने राज्यों के, अपने निर्वाचन क्षेत्रों के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं.
सवाल : आपके प्रतिद्वंद्वी (जगदीप धनखड़) पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रह चुके हैं. आपका आकलन क्या है?
जवाब : वह एक राज्यपाल रह चुके हैं और मैं भी एक राज्यपाल रह चुकी हूं. वह एक वकील रह चुके हैं और मैं भी. खैर, वह राज्य में एक महिला (पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी) से लड़ते आए हैं और अब उपराष्ट्रपति चुनाव में भी उनका मुकाबला एक महिला से ही है. उनके ग्रह-नक्षत्रों में ही कुछ है. वह सांसद और मंत्री भी रह चुके हैं.
सवाल : वह (धनखड़) अपने मजबूत राजनीतिक रुख के लिए भी जाने जाते हैं.
जवाब : इसीलिए उन्हें पुरस्कृत किया जा रहा है. मैं भी राज्यपाल रह चुकी हूं और इस भूमिका में आपसे निष्पक्ष रहने की उम्मीद की जाती है. आपको अपने राज्य की सरकार को काम करने में मदद देनी चाहिए. एक लक्ष्मण रेखा होती है, जिसे राजभवन में आने के बाद आपको ध्यान में रखना होता है. आप वहां बैठकर अपनी पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में काम नहीं कर सकते. मुझे लगता है कि यह अनैतिक और असंवैधानिक है.
सवाल : यह हैरान करने वाली बात है कि आपकी एक भी संतान राजनीति में नहीं है, जबकि आप एक सियासी परिवार से ताल्लुक रखती हैं.
जवाब : मेरा सबसे छोटा बेटा राजनीति में है. मेरे सास-ससुर संसद तक का सफर तय करने वाले पहले दंपति थे. वे दोनों स्वतंत्रता सेनानी थे.
सवाल : वंशवाद की राजनीति पर आपका क्या कहना है, क्योंकि प्रधानमंत्री परिवार आधारित पार्टियों पर हमलावर रहे हैं.
जवाब : भाजपा में भी ऐसे कितने नेता हैं. मैं उनका नाम नहीं लेना चाहती. हर दल में एक ही परिवार के कई सदस्य शामिल होते हैं, जो या तो अपने माता-पिता या दादा-दादी की जगह लेते हैं या फिर उनके बाद आते हैं. अगर एक चिकित्सक या वकील के बच्चे उसका पेशा अपना सकते हैं या एक व्यापारी का बच्चा उसका व्यापार संभाल सकता है तो राजनीति में एक परिवार के कई सदस्यों के आने में क्या गलत है. हालांकि, उन्हें योग्यता के आधार पर आना चाहिए. उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए. लोगों को उन्हें स्वीकार करना चाहिए. एक लोकतंत्र में अगर लोग आपको चुनते हैं तो आप अंदर हैं और अगर वे आपको नकार देते हैं तो आप बाहर. वर्ष 1977 में चुनाव में इंदिरा गांधी और संजय गांधी, दोनों को हार का सामना करना पड़ा था. लोगों की स्वीकार्यता अंतिम पैमाना है.
सवाल : क्या आप हमेशा से ही राजनीति में आना चाहती थीं या फिर यह महज एक संयोग था.
जवाब : मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं राजनीति में आऊंगी. हालांकि, मैं छात्र राजनीति में काफी सक्रिय थी. मेरी शादी एक राजनीतिक घराने में हो गई और मैं दिल्ली आ गई. शादी के समय मेरा राजनीति में कदम रखने का कोई इरादा नहीं था. 1969 में कांग्रेस में फूट ने एक तरह से लोगों को इंदिरा गांधी का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया. उस वक्त मेरी सास का निधन हो गया और मुझ पर उनकी जगह लेने का जबरदस्त दबाव था. इसके बाद का सब इतिहास है.
सवाल : आप अपने राजनीतिक सफर को किस रूप में देखती हैं?
जवाब : मैं कहना चाहूंगी कि जब हम आए थे, तब एक अलग ही दुनिया थी. उस समय आदर्शवाद था, ऐसी प्रतिबद्धातएं थीं, जिनके बारे में हमें लगता था कि उन्हें पूरा करना है. वे भारत की आजादी के शुरुआती वर्ष थे. समस्याएं थीं, लेकिन समुदाय या धर्म के अंतर के बिना एक संयुक्त राष्ट्र की भावना भी थी. जाति की राजनीति हमेशा से रही है. लेकिन, यह वैसी नहीं थी, जैसी आज है. सहिष्णुता थी, स्वीकृति थी, समझ थी. अगर मैं कहूं तो एक सहिष्णु समाज था.
सवाल : आपके राजनीतिक गुरु कौन रहे हैं?
जवाब : ईमानदारी से कहूं तो इंदिरा गांधी. राज्य में एक सार्वजनिक मंच पर मेरा संबोधन सुनने के बाद उन्होंने मुझे संसद के लिए चुना. और जाहिर है, मेरे सास-ससुर जिनके साथ मैंने बहुत करीब से काम किया. हालांकि, मैं यह स्पष्ट कर दूं कि 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद मैं एक प्रखंड अध्यक्ष, जो कांग्रेस पार्टी की सबसे निचली इकाई है, से उठकर हर पद पर रही हूं. मुझे मेरी पार्टी और उसके नेतृत्व ने मौका दिया. मैं सांसद, मंत्री और महासचिव बनी. कड़ी मेहनत, प्रतिबद्धता और ईमानदार राजनीति मेरा फलसफा रही है.
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(एजेंसी इनपुट)
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