What is Postpartum Depression: बच्चे के जन्म के बाद महिला की जिंदगी पूरी तरह बदल जाती है, जिसके कारण उन्हें नई लाइफस्टाइल से एडजस्ट करने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
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Who Faces Postpartum Depression More, Rural Women or Urban Women: चाइल्ड बर्थ के बाद कई महिलाओं को पोस्टपार्टम डिप्रेशन (PPD) का सामना करना पड़ता है, जो कि एक गंभीर प्रकार का अवसाद है. ये आमतौर पर डिलवरी के बाद शुरुआती हफ्तों या महीनों में दिखाई देता है. पीपीडी खाने और स्लीप साइकिल में असामान्यताओं के साथ-साथ लगातार परेशान रहना और चिड़चिड़ेपन की भावनाओं को विकसित करता है. ऐसे हालात में माताओं को खुद को बेकार, थका हुआ महसूस हो सकता है और उन्हें अपने बच्चे के साथ जिंदगी जीने में कठिनाई हो सकती है.
पोस्टपार्टम डिप्रेशन (Postpartum Depression) मां और बच्चे के सामान्य स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है और साथ ही रोजमर्रा के काम में भी दिक्कतें पैदा कर सकता है. पीपीडी अधिक गंभीर और स्थायी होता है, इसको और 'बेबी ब्लूज़' के बीच फर्क जानना जरूरी है, जो डिलिवरी के बाद एक सामान्य और अस्थायी मानसिक स्थिति है. पोस्टपार्टम डिप्रेशन को ठीक से मैनेज और इलाज करने के लिए, पेशेवर मदद लेनी चाहिए, जैसे कि थेरेपी या दवाएं लेना अहम है.
पोस्टपार्टम डिप्रेशन किसे ज्यादा होता है?
मशहूर क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट प्राची मित्तल (Prachi Mittal) के मुताबिक पोस्टपार्टम डिप्रेशन का तजुर्बा हर जगह की महिलाएं करती हैं, हालांकि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में इसका असर अलग-अलग हो सकता है. हाल में कई रिसर्च के जरिए कोशिश की गई हैं जिससे ग्रामीण और शहरी परिवेश में पीपीडी के बीच मामूली अंतरों की खोजा जा सके. इसमें साइंटिफिक अप्रोच पैदा करने का लक्ष्य होना चाहिए, इसमें से सोसाइटी के बीच गैप से मेंटल हेल्थ रिसोर्सेज का पता चलता है. हमें और आपको इस परेशानी को अच्छी तरह समझने की जरूरत है जिससे अवेयरनेस फैल सके.
पोस्टपार्टम डिप्रेशन को समझें
पीपीडी एक तरह का क्लीनिकल डिप्रेशन है जो बच्चे के जन्म के बाद मां के मेंटल हेल्थ को प्रभावित करता है. इस सिंड्रोम के कई कारण हैं, जैसे हार्मोन में उतार-चढ़ाव, नींद की कमी और मदरहुड से एडजस्ट होने में परेशानी. साथ ही, पर्यावरण, सोशल सपोर्ट और सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पोस्टपार्टम डिप्रेशन की इंटेंसिटी और कोर्स पर असर पड़ता है.
पोस्टपार्टम डिप्रेशन को तय करने वाले फैक्टर्स
1. सोशल सपोर्ट (Social Support)
शहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं को दोस्तों, परिवार और स्थानीय सेवाओं से बने सपोर्ट सिस्टम तक ज्यादा पहुंच मिल सकती है, जो पीपीडी के खिलाफ एक प्रिवेंटिव मेजर के रूप में काम कर सकते हैं.इसके उलट रिमोट लोकेशन में सपोर्ट नेटवर्क तक पहुंच की कमी के कारण, ग्रामीण महिलाएं तुलनात्मक रूप से अधिक अकेला महसूस कर सकती हैं, जिससे उनमें पोस्टपार्टम डिप्रेशन का खतरा बढ़ सकता है.
2. हेल्थकेयर की मौजूदगी (Access to Healthcare)
शहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं के पास मेंटल हेल्थ सर्विसेज और हेल्थकेयर फैसिलिटीज तक अधिक पहुंच होती है, जिससे अर्ली डिटेक्शन और इंटरवेंशन की संभावना बढ़ जाती है. ग्रामीण क्षेत्रों में हेल्थकेयर की कमी के कारण पीपीडी केस की पहचान मुश्किल हो सकती है.
3. एनवायरनमेंट फैक्टर्स (Environmental Factors)
हद से ज्यादा शोर, पॉल्यूशन, फास्ट लाइफस्टाइल कुछ ऐसे प्रेशर हैं जो शहर में रहने वाली मांओं को झेलने पड़ सकते हैं, ये आमतौर पर पोस्टपार्टम डिप्रेशन का रिस्क बढ़ा देते हैं, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को ऐसा महसूस नहीं करना पड़ता. हालांकि रूरल एरिया में सामाजिक आर्थिक स्थिति, संसाधनों की कमी और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में अज्ञानता पीपीडी को बढ़ा सकते हैं.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट?
काउंसेल इंडिया के को-फाउंडर और सीईओ एवं इमोशनल एक्सपर्ट शिवम दीक्षित के मुताबिक, "पोस्टपार्टम डिप्रेशन पैरेंटहुड के नाजुक संतुलन पर एक असर डालता है, जो एक महिला की ताकत के साथ-साथ उनकी डिलिवरी तक की जर्नी को सपोर्ट करने करने वाले माहौल पर भी सवाल उठाता है. शहरी और ग्रामीण दोनों वातावरण कठिनाइयों के विभिन्न सामंजस्य को दर्शाते हैं. जबकि उनके शहरी महिलाएं, व्यस्तता से घिरी होती हैं, वो सोशल डिमांड और फास्ट पेस सिटी लाइफ से स्ट्रगल कर सकती हैं. वहीं शांतिपूर्ण क्षेत्रों से घिरी ग्रामीण महिलाएं हेल्थकेयर की आइसोलेशन और संसाधनों की कमी से संघर्ष कर सकती हैं. समाधान तैयार करते समय, हर स्थिति में मौजूद खास तनाव को पहचानना जरूरी है. साइकोलॉजिस एक बेहतर तरीके अपनाते हैं जिससे पीपीडी से बचने या इसे दूर करने का रास्ता निकाला जा सके, भले ही परेशानियां कैसी भी हों."
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