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कहते हैं कि जब तक पिता आपके जिंदा है कोई भी परिवार का बाल भी बांका नहीं कर सकता. पिता को भारत में बापू, अब्बू, डैडी आदि कई नामों से बुलाते हैं, लेकिन जो सबसे कॉमन नाम है वह है 'पापा'. पापा का नाम लेते ही सबसे पहले मन में जो ख्याल आता है वह है परिवार का रखवाला और दिन-रात मेहमत करके घर के हर सदस्य का सपना पूरा करने के लिए डटे रहना, लेकिन क्या आपने कभी पापा के सपने के बारे में पूछा? चलिए आज हम एक ऐसे मंचन के बारे में बात करने जा रहे हैं, जिसे हेमंत अग्रवाल ने डायरेक्ट किया है और इस प्ले का नाम है 'पापामैन'.
क्या है कहानी?
पापामैन की कहानी की शुरुआत कानपुर की एक शादी वाले घर से शुरू होती है. चंद्रप्रकाश गुप्ता अपनी बड़ी बेटी शादी के बाद उसे खुशी-खुशी अलविदा करते हैं. उसकी एक और छोटी बेटी भी होती है जिसको छुटकी नाम से बुलाते हैं. छुटकी आईआईटी कानपुर से डिग्री लेने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना चाहती है. उसके पापा भी उसके लिए पूरा सपोर्ट करते हैं, लेकिन इसी दौरान गुप्ताजी ने अपने भी सपने के बारे में बताया कि वह एक सिंगर बनना चाहते हैं, लेकिन उनकी पत्नी व बच्चे उन्हें 52 साल की उम्र में मुंबई नहीं भेजना चाहते. फिर क्या? शुरू होती है पापा के सपनों की उड़ान. मुंबई नहीं जा पाए तो कानपुर में ही रहकर बैंड-बाजा वालों के साथ सिंगिंग करने लग जाते हैं और इससे गुप्ताजी के परिवार वालों को काफी शर्मिंदगी महसूस होती है. बेटियों के रोक-टोक के बावजूद गुप्ता जी छुप-छुपकर अपने सिंगिंग करने लगे, लेकिन इसी दौरान छुटकी ने उन्हें अकेले ही सिगिंग करते हुए देख लिया. आगे की कहानी जानने के लिए आपको पूरा मंचन देखना होगा. आखिर में जो हुआ उसे देखकर थियेटर में बैठे सभी कलाकार भावुक हो उठे और तालियों के गड़गड़ाहट नहीं रुकी.
कैसा था थियेटर का प्लॉट?
पापामैन एक फैमिली कॉमेडी प्ले है. यह एक्ट हर एक घर की कहानी लगती है. पापा को ऑफिस जाते और वापस आते वक्त सब्जियां लाते. बिल भरते, घर का काम करते और चट्टान की तरह हर जगह खड़े होते हुए देखा जा सकता है, लेकिन कभी भी उनके सपनों के बारे में नहीं पूछा जाता. कहानी की शुरुआत शादी वाले घर के साथ काफी ही दिलचस्प तरीके से हुई, जिसमें सारे किरदार से रूबरू करा दिया. पिता और बेटियों के बीच प्यारा रिश्ता, गुप्ता जी का अपनी पत्नी के साथ नोंक-झोंक वाला रिश्ता, पड़ोस की मिश्राइन, मोहल्ले के आवारा लड़के पिंटू-अन्नू की मसखरी... लगभग सभी दृश्यों ने सामने बैठे दर्शकों को कुर्सी से बांधे रखा. बीच में कॉलेज में छुटकी को सेकेंड अवार्ड जब मिला तो प्ले की स्पीड थोड़ी रुकी, लेकिन अगले ही सीन में फिर से भाग पड़ा और फिर ऐसा भागा कि आखिर में ही जाकर रुका.
कैसे थे किरदार?
इस प्ले को डायरेक्ट करने वाले हिमांशु अग्रवाल खुद ही मुख्य किरदार चंद्रप्रकाश गुप्ता का रोल निभा रहे थे. उनकी पत्नी सुलेखा बखूबी अपनी भूमिका में रहीं. बड़ी बेटी मिट्ठू ने बिल्कुल वैसा ही रोल किया, जैसा अमूमन यूपी के घरों में देखने को मिलता है. वहीं छुटकी ने अपनी एक्टिंग से अपने चंद्रप्रकाश गुप्ता जी को भी पीछे छोड़ दिया. छुटकी ने शुरू से पीक बांधे रखा और अंत तक अपने किरदार में रही. बाकी मोहल्ले के पिंटू-अन्नू ने मसखरी वाले अंदाज में लोगों को खूब हंसाया और दिल जीत लिया. हालांकि, मिश्राइन ने बीच में आकर पड़ोसी का मजेदार अंदाज दिखाया, जिसपर लोगों के ठहाके भी लगाए. बाकी के किरदार अपनी भूमिका में सही उतरे.
लाइट-साउंड और सबकुछ
प्ले के दौरान स्टेज पर लाइट काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है. इस प्ले में अक्षत ने लाइटिंग पर काफी बढ़िया कोशिश की, लेकिन कुछ जगहों पर लाइटिंग की थोड़ी कमी लगी. जब-जब स्टेज के कॉर्नर का इस्तेमाल किया गया, वहां पर किरदार के चेहरे छुप गए. हालांकि, बाकी जगहों पर अक्षत में पुरजोर कोशिश की. वहीं साउंड में अरुण ने बॉलीवुड के नए-पुराने गानों का बढ़िया इस्तेमाल किया. कुछ जगहों पर गानों को लंबा खींचा गया, लेकिन स्टेज पर प्रॉप्स को बदलते वक्त इसकी जरूरत आन पड़ती है.
सेट के पीछे साहिल, बैकस्टेज पर यश शर्मा और सुदीप्ति ने काफी मेहनत की. एंबियस भी काफी सही रहा, क्योंकि बीच-बीच में तालियों की गड़गड़ाहट से थियेटर गूंजता रहा. कैरेक्टर्स के डॉयलॉग डिलीवरी भी सटिक रही. प्रॉप्स का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया. सभी सीन में प्रॉप्स को जैसे-जैसे यूज किए गए, वह बिल्कुल भी महसूस नहीं होने दिया कि वो जगह सिर्फ स्टेज की ही थी. ऐसा लगा कि पूरे मोहल्ले के सीन को हम देख रहे हैं और आखिर में हम कॉस्ट्यूम की बात करें तो भई मजा आ गया. बैंड-बाजा वाली ड्रेस हो या फिर सुलेखा और छुटकी का बार-बार ड्रेस बदलना. मिश्राइन हों या फिर गुप्ता जी की बहन लगभग सभी किरदारों ने अपने-अपने कॉस्ट्यूम को बेहतरीन ढंग से कैरी और जस्टिफाई किया.
क्यों देखें?
एक पिता के सपनों की कहानी जिसे अक्सर उनकी जिम्मेदारियों के बोझ के तले हम घरवाले भूल जाते हैं. वे अपने सपनों की उड़ान किसी भी उम्र में भर सकते हैं. फैमिली कॉमेडी अगर अच्छी लगती है तो जरूर देखें, आपको यह बिल्कुल भी बोर नहीं करने वाली. इस एक्ट में आखिर में एक बेहतरीन मैसेज भी दिया गया है और हां, यह मूवी है नहीं कि किसी भी नजदीकी सिनेमा घरों में देख सकते हैं, क्योंकि हफ्ते या महीनों में एक ही बार लगता है तो ऐसे एक्ट को नहीं छोड़ा जा सकता.
क्यों न देखें?
परिवारिक चीजें देखना नहीं पसंद तो यह आपके लिए नहीं है.
वन लाइनर रिव्यू-
बेटी की खुशियों में पापा के सपने का मर जाना ही सबकुछ नहीं, जिंदा है तो सिर्फ हौसलों की उड़ान...
कितने स्टार?
कुल 5 में से 3.5 स्टार- 3.5/5