1965 युद्ध: भारत जबर्दस्त पलटवार करेगा पाक को नहीं थी उम्मीद
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1965 युद्ध: भारत जबर्दस्त पलटवार करेगा पाक को नहीं थी उम्मीद

1965 युद्ध: भारत जबर्दस्त पलटवार करेगा पाक को नहीं थी उम्मीद

देश इन दिनों 1965 की लड़ाई की स्वर्ण जयंती मना रहा है। मौका खास है तो जश्न भी बनता है। 1965 की लड़ाई का अंत ताशकंद समझौते के रूप में हुआ और रक्षा जानकार बताते हैं कि संघर्षविराम लागू होने के समय भारत पाकिस्तान पर भारी था। हालांकि, पाकिस्तान इस लड़ाई को अपनी जीत के रूप में दुष्प्रचारित करता है। जबकि हकीकत दूसरी है। किसी लड़ाई में किस पक्ष को जीत और किस पक्ष को हार मिली इसका फैसला इस बात से होता है कि आक्रमणकारी का मंसूबा क्या था और क्या उसे अपने मंसूबे में कामयाबी मिली। पाकिस्तान का मंसूबा कश्मीर को भारत से छीनने की थी और उसे अपने इस मंसूबे में कामयाबी नहीं मिली। लड़ाई में किस पक्ष के कितने हालाक हुए और किसे कितना नुकसान पहुंचा यह बाद का विषय बनता है। 1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध कई वजहों से खास है। इस युद्ध ने भारत को अपनी रणनीतिक और सामरिक तैयारी को और पुख्ता बनाने के लिए प्रेरित किया। यहां पेश हैं इस युद्ध से जुड़े कुछ अहम तथ्य।

कश्मीर हड़पने का ‘सही’ समय

पाकिस्तान के हुक्मरानों राष्ट्रपति अयूब खान और सेनाध्यक्ष मोहम्मद मूसा को लगा कि कश्मीर को भारत से हड़पने का उनके पास सुनहरा मौका है। उन्हें लगा कि कश्मीर पर अगर इस बार कब्जा नहीं हुआ तो वे फिर कभी इसे हासिल नहीं कर पाएंगे। 1962 की लड़ाई में चीन से मिली हार से भारत अभी उबरा नहीं था। हार की वजह से भारतीय सेना का मनोबल उस समय काफी नीचे थे। भारतीय सेना को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया अभी प्रारंभ हुई थी। 1964 में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री को पाकिस्तान एक कमजोर पीएम मानता था। पाकिस्तान को लगा कि भारतीय सेना के गिरे हुए मनोबल, अंतरराष्ट्रीय, कूटनीतिक और सामरिक नजरिए से कमजोर हुए भारत पर हमला बोलने और कश्मीर हड़पने के लिए यह बिल्कुल सही समय है।

भारतीय फौज से ज्यादा बेहतर स्थिति में था पाक

रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि पाकिस्तानी सेना 1965 की लड़ाई के समय तकनीक और हथियारों के मामले में भारत से ज्यादा बेहतर स्थिति में थी। उसके पास बड़ी संख्या में अमेरिकी पैटन टैंक थे जबकि भारत के पास द्वितीय विश्व युद्ध के टैंकों का दस्ता था। यह युद्ध टैंकों की लड़ाई के लिए भी जाना जाता है। कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद टैंकों की यह सबसे भीषण लड़ाई थी। अमेरिका से पाकिस्तान को आधुनिक हथियार और तकनीक मिली थी और हथियारों के मामले में वह भारत से बीस था। फिर भी उसे मुंह की खानी पड़ी। इस लड़ाई ने यह साबित किया कि केवल तकनीक और अच्छे हथियार के बलबूते आप युद्ध नहीं जीत सकते। आधुनिक तकनीक को चलाने की आप में पूर्ण क्षमता भी होनी चाहिए जो उस समय के युद्ध में पाकिस्तानी सेना से नदारद थी।

गलतफहमी का शिकार हुआ पाकिस्तान

पाकिस्तान इस खुशफहमी में था कि युद्ध के समय कश्मीर के लोग उसके समर्थन में आएंगे और भारत के खिलाफ विद्रोह कर देंगे। उसकी रणनीति कश्मीर में सीमित लड़ाई लड़ने की थी। इस मंशा से उसने अगस्त के पहले सप्ताह में ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ शुरू किया। ऑपरेशन जिब्राल्टर के तहत उसने करीब 33 हजार प्रशिक्षित और आधुनिक हथियारों से लैस अपने लड़ाकों को कश्मीर में घुसपैठ कराई लेकिन उसका यह दांव उलटा पड़ गया। कश्मीरियों ने इन घुसपैठियों की मौजूदगी की जानकारी भारतीय सेना को दी और उन्हें पकड़कर जवानों को सौंपा।  

ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम

कश्मीर में हमला होने पर भारत ने जवाबी कार्रवाई की। पाक अधिकृत कश्मीर के उन क्षेत्रों का निशाना बनाना शुरू किया जहां से पाकिस्तानी सेना को मदद मिल रही थी। हाजीपीर में पाकिस्तान के पैर बुरी तरह उखड़ गए थे इस दबाव से मुक्त होने के लिए उसने एक सितंबर 1965 को अखनूर सेक्टर में ऑपरेशन ‘ग्रैंड स्लैम’ शुरू किया। पाकिस्तान अखनूर ब्रिज पर कब्जा करना चाहता था ताकि वह भारतीय सेना को पहुंच रही मदद को रोक सके। अखनूर ब्रिज पर पाकिस्तानी सेना का कब्जा होने की स्थिति में भारत के लिए कश्मीर में युद्ध लड़ना काफी मुश्किल हो जाता लेकिन ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम के दौरान पाकिस्तान के नासमझी भरे कदम और भारत की तरफ से पंजाब में युद्ध का नया मोर्चा खोल देने से उसे कश्मीर से अपने पैर वापस खींचने के लिए बाध्य होना पड़ा।

भारत इस तरह पलटवार करेगा अंदेशा नहीं था

पाकिस्तान को यह जरा भी अंदेशा नहीं था कि भारत इस तरह से पलटवार करेगा। पंजाब में भारत द्वारा मोर्चा खोले जाने और लाहौर तक भारतीय जवानों के पहुंचने पर उसके हाथ-पांव फूलने लगे। अपनी नाजुक स्थिति देखते हुए पाकिस्तान को कश्मीर से पांव पीछे खींचकर अपना सारा ध्यान पंजाब और लाहौर की तरफ केंद्रित करना पड़ा। ऑपरेशन ग्रैड स्लैम के दूसरे दिन पाकिस्तान ने मेजर जनरल अख्तर हुसैन मलिक को मोर्चे से हटाकर उनकी जगह मेजर जनरल याह्या खान को तैनात कर दिया। यह पाकिस्तान की तरफ से एक बड़ी चूक मानी जाती है। लड़ाई के दौरान जनरल के बदले जाने से पाकिस्तानी फौज में भ्रम की स्थिति बन गई। मेजर जनरल मलिक कश्मीर के मोर्चे पर पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व कर रहे थे।  

वर्ष 1965 में कश्मीर को हथियाने के लिए पाकिस्तान ने एक कुटिल चाल चली थी। लेकिन गलत तरीके से योजनाओं के क्रियान्यवन और खुद की गलतियों ने पाकिस्तान को अपने ही जाल में उलझा दिया। उसे पूरा यकीन था कि कश्मीर की अवाम उसका साथ देगी और भारत के खिलाफ विद्रोह करेगी। कश्मीर की जनता ने उसका ऑपरेशन जिब्राल्टर नाकाम कर दिया और बाद में भारतीय फौज ने ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम की हवा निकाल दी। रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि युद्ध कुछ और दिन चलता तो पाकिस्तान के दोनों हाथ ऊपर और जीभ बाहर होती। ऐसा इसलिए कि पाकिस्तान के पास आगे लड़ाई जारी करने के लिए पर्याप्त गोला-बारूद नहीं था जबकि भारतीय फौज के पास कई दिनों तक लड़ने के लिए गोला-बारूद उपलब्ध था।

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