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देश भर में यही चर्चा है कि बिहार में किसकी सरकार बनने जा रही है। राज्य में अगली सरकार राजग बनाएगा या महागठबंधन, इसे लेकर अटकलें जारी हैं। जानकारों ने मुकाबला कांटे का बताया है तो भाजपा के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन और महागठबंधन ने चुनाव में अपनी-अपनी जीत का दावा किया है। बिहार और यूपी राजनीतिक रूप से काफी सजग राज्य हैं जहां चुनाव परिणामों पर किसी तरह की भविष्यवाणी करना बहुत मुश्किल काम है। यहां जाति, धर्म, अगड़ा-पिछड़ा, दलित, विकास ये सभी मुद्दे वोट खींचने वाले होते हैं। कोई भी पार्टी इन मुद्दों पर लापरवाह रवैया नहीं अपना सकती। चुनाव से पहले उसे अपना एजेंडा साफ करना पड़ता है। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा को जो पूर्ण बहुमत मिला उसके पीछे केवल विकास का मुद्दा नहीं बल्कि जातिगत वोटों का ध्रुवीकरण भी था।
बिहार में केवल विकास के मुद्दे पर चुनाव नहीं जीता जा सकता। यह बात भाजपा को भी पता थी। नीतीश और लालू को भी। बिहार के लोगों में जाति की भावना इस कदर हावी है कि वह कभी उनके भीतर से नहीं जा सकती। उम्मीदवार भले ही दूसरी जातियों के मतदाताओं के लिए घूसखोर या गुंडा हो, लेकिन उसकी जाति के मतदाताओं के लिए तो वह ईमानदार और देवता होता है। लोग सोचते हैं कि उनकी जाति का उम्मीदवार चुनाव जीतने पर उनके लिए काम करेगा। नीतीश तो बिहार में वोट विकास के नाम पर मांग रहे हैं। अगर विकास ही उनका असली मुद्दा था तो जाति के नाम पर ऐसी पार्टी से गठबंधन करने की जरूरत क्यों पड़ी, जिसका विकास से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं? विकास और सुशासन के दावों पर चुनाव लड़ने वाली जेडीयू को बीजेपी से डरने की क्या जरूरत थी।?
बिहार में यह एक आम धारणा है कि नीतीश कुमार ने काम किया है। नीतीश ने अपनी छवि विकास पुरुष के रूप में पेश की है। लोग भी मानते हैं कि राज्य में काम हुआ है। नीतीश को यह बात पता थी लेकिन केवल सुशासन की छवि उन्हें चुनाव नहीं जिता सकती। नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं। राज्य में इस जाति की आबादी 3.6 प्रतिशत है। जबकि मुस्लिमों की आबादी करीब 17 प्रतिशत है और यादव आबादी करीब 14 प्रतिशत है। नीतीश को यह बात अच्छी तरह मालूम थी कि बिना लालू यादव के एमवाई समीकरण को अपने साथ लिए विधानसभा चुनाव जीत पाना संभव नहीं है। मुस्लिम-यादव वोटों की मजबूरी के चलते नीतीश ने राजद के साथ गठबंधन किया। तो भाजपा ने रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और पप्पू यादव को लेकर जाति के नाम पर ही सही लेकिन सत्ता हथियाने का प्रयास कर रही है, जो उसका पहला और अंतिम लक्ष्य भी है। भाजपा ने गठबंधन के साथियों के जरिए लालू-नीतीश के वोट बैंक में सेंध लगाने की पूरी कोशिश की है।
बिहार में पीएम मोदी और नीतीश कुमार दोनों को लोग पसंद करते हैं। चुनाव में दोनों नेताओं ने विकास की बात की है। लालू यादव के मंडलराज-2 से बिहार का युवा वर्ग अपने को जोड़ नहीं पा रहा है। 1990 के बाद जन्मी पीढ़ी मंडलराज प्रकरण से अनजान है। नई पीढ़ी को विकास पसंद है। इस पीढ़ी को रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या लोगों ने पिछले चार चरणों में केवल विकास के नाम पर वोट किया। बिहार में हर सियासी उथल-पुथल की अपनी अहमियत है। यहां के हर चुनाव में जातिवाद एक कटु सत्य है इससे आसानी से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। इस बात का अहसास सभी राजनीतिक पार्टियों को है और जाति विशेष के वोटों को देखते हुए भाजपा, जद-यू और राजद ने अपने उम्मीदवार उतारे हैं।
कहने का मतलब है कि बिहार चुनाव में जाति और विकास के मुद्दे को जिस पार्टी ने मजबूती से पेश किया होगा और भुनाया होगा उस पार्टी के पक्ष में ज्यादा मतदान हुआ होगा। बिहार में अकेले जाति या विकास का मुद्दा चुनावी वैतरणी पार नहीं करा सकता। दोनों मुद्दों पर अपने पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण करने वाली पार्टी इस बार बिहार के सिंहासन पर कब्जा जमा सकती है। यह कमाल किसने किया है इस बात का पता 8 नवंबर को चलेगा।