अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारतीय दौरा कई मायनों में महत्वपूर्ण माना जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ओबामा के बीच की 'केमेस्ट्री' दोनों देशों के आपसी रिश्तों को एक नई ऊंचाई पर ले गई है।
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अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारतीय दौरा कई मायनों में महत्वपूर्ण माना जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ओबामा के बीच की 'केमेस्ट्री' दोनों देशों के आपसी रिश्तों को एक नई ऊंचाई पर ले गई है। नई दिल्ली-वाशिंगटन के बीच एक नए युग का सूत्रपात हुआ है। ओबामा ने भारत को अपना ग्लोबल पार्टनर घोषित किया है। मोदी का 'बराक' संबोधन और ओबामा द्वारा भारतीय प्रधानमंत्री को उनके नाम से बुलाना उनके खुलापन और आत्मीयता का ही परिचायक है। टेलीविजन पर ऐसे कई दृश्य उभरे जिन्होंने मोदी और ओबामा के संबंधों की इस प्रगाढ़ता को बयां किया। अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश के साथ नई दिल्ली के संबंध मधुर बने यह भारत के राष्ट्रीय हित में है।
ओबामा के भारत दौरे के समय रक्षा व्यापार 10 साल के लिए आगे बढ़ाने, जलवायु परिवर्तन, आंतरिक सुरक्षा, निवेश, कारोबार जैसे तमाम मुद्दों पर चर्चा हुई लेकिन सबसे ज्यादा जोर असैन्य परमाणु करार पर रहा। ओबामा-मोदी की संयुक्त बैठक के बाद न्यूक्लियर डील की अड़चनों को दूर करने की बात कही गई। करार पर छह साल से चले आ रहे गतिरोध को दूर करने का दावा किया गया। लेकिन गौर से देखें तो इस करार की सबसे बड़ी अड़चन परमाणु दुर्घटना के समय क्षतिपूर्ति के दावे को लेकर है। क्षतिपूर्ति के दावे को लेकर चीजें अभी पूरी तरह से साफ नहीं हो पाई हैं।
साल 2008 में यूपीए की सरकार ने अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार किया था लेकिन उसके बाद दोनों देशों के बीच इसे लेकर गतिरोध बन गया। अमेरिका अपना 'ट्रैकिंग क्लॉज' हटाने के लिए तैयार नहीं था तो भारत परमाणु रिएक्टरों से होने वाली दुर्घटना के मुआवजा की भरपाई परमाणु ऊर्जा एवं उपकरण आपूर्तिकर्ता कंपनियों से चाहता था जो अमेरिका को मंजूर नहीं था। अब ओबामा के दखल के बाद करार से 'ट्रैकिंग क्लॉज' को हटाया गया है। इसका सीधा मतलब है कि अमेरिका अपनी तरफ से आपूर्ति किए जाने वाले यूरेनियम की निगरानी नहीं करेगा। अमेरिका का कहना था कि वह यूरेनियम के भेजे जाने से लेकर उसके री-साइक्लिंग स्तर तक उसकी निगरानी करेगा जो भारत को मंजूर नहीं था। भारत यह कहता आया है कि उसके असैन्य परमाणु संयंत्रों की निगरानी अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा संगठन (आईएइओ) करता है तो ऐसे में किसी और के द्वारा निगरानी करने की बात बेमानी है। 'ट्रैकिंग क्लॉज' के हट जाने से यह मामला तो निपट गया लेकिन 'लाइबिलिटी' का मसला इतनी आसानी से सुलझ जाएगा, इसमें संदेह है।
भारत का कहना है कि परमाणु दुर्घटना होने पर रिएक्टरों की सप्लाई करने वाली कंपनियां मुआवजे का भुगतान करेंगी। जबकि अमेरिका इसे सिरे से खारिज करता आया है। अमेरिकी कंपिनयों का कहना है कि मुआवजे की भरपाई रिएक्टरों को चलाने वाली कंपनियों (ऑपरेटर्स) को करना होगा। इसके लिए भारत तैयार नहीं था। अमेरिकी कंपनियों का तर्क है कि रिएक्टर्स एक बार चालू हो जाने के बाद उसकी देखरेख, रखरखाव अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप करना होता है। यह सारा काम ऑपरेटर्स का होता है। ऐसे में परमाणु दुर्घटना के समय मुआवजे की जिम्मेदारी ऑपरेटर्स की बनती है न कि सप्लायर्स की। इस गतिरोध को दूर करने के लिए भारत ने अब मुआवजे की राशि को लेकर एक वृहद फंड बनाने की बात कही है। भारतीय बीमा कंपनियों की मदद से कोई 750 करोड़ का एक फंड बनेगा जिसमें इतनी ही राशि भारत सरकार भी जमा करेगी ताकि हादसा होने की स्थिति में प्रभावितों के लिए राशि का इंतजाम हो सके। आने वाले दिनों में इस फंड को लेकर विपक्षी दल सरकार को घेर सकते हैं। इससे सरकार कैसे निकलती है यह देखना दिलचस्प होगा।
भारत-अमेरिका के बीच संबंधों को नई ऊंचाई पर ले जाने की दिशा में असैन्य परमाणु करार एक महत्वपूर्ण कदम है लेकिन यह भी सही है कि अगर इस दिशा में आगे अवरोध बनते हैं तो नई दिल्ली-वाशिंगटन के रिश्तों में खटास आ जाएगी, यह कहना गलत होगा। आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा, व्यापार, तकनीक और अपार संभावनाओं से जुड़े ऐेसे कई क्षेत्र हैं जहां दोनों देशों के द्विपक्षीय हित गहराई से जुड़े हैं। दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन और अपने बाजार की जरूरतों को पूरा करने के लिए अमेरिका के पास भारत के नजदीक आने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। अमेरिका इस बात को अब समझने लगा है। वह भारत के साथ अपना व्यापार 100 अरब डॉलर तक ले जाना चाहता है।
ओबामा के भारत दौरे की सबसे बड़ी खासियत है कि दोनों देशों के बीच 'ट्रस्ट फैक्टर' बढ़ा है। अमेरिका को यह अहसास हो चला है कि भारत मात्र एक कारोबारी पार्टनर नहीं बल्कि उभरते विश्व की एक बड़ी ताकत और भविष्य का नायक है। ओबामा ने कहा है कि भारत और अमेरिका साथ-साथ आगे बढ़ सकते हैं और विकास कर सकते हैं। बराबरी का यह दर्जा शायद पहले नहीं था। आने वाले दिनों में ओबामा और मोदी की 'केमेस्ट्री' वैश्विक राजनीति एवं कूटनीति में नए रंग भर सकती है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का ओबामा ने समर्थन किया है। भारत लंबे समय से संयुक्त राष्ट्र में सुधार और अपनी स्थायी सदस्यता की मांग करता आया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ओबामा और मोदी की 'केमेस्ट्री' भारत को उसका हक दिलाएगी।