हम सब जानते हैं कि मैनहट्टन प्रोजेक्ट के तहत अमेरिका ने एटम बम बनाया था. एटम बम बनाने के लिए प्लूटोनियम का इस्तेमाल हुआ. लेकिन इससे जुड़ी एक दिलचस्प बात शायद आप नहीं जानते होंगे. प्लूटोनियम किस तरह से इंसानों पर असर डालता है उसे समझने के लिए कुछ लोगों का चयन किया गया था जिसमें ज्यादातर को जानकारी नहीं थी कि उन्हें कौन सा इंजेक्शन दिया जाने वाला है.
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Human Plutonium Experiment: वैसे तो युद्ध का अंजाम किसी के पक्ष में हो लेकिन उसके असर को सालों साल तक महसूस किया जाता है. द्वितीय विश्वयुद्ध उनमें से एक था. अगर अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा नागासाकी पर एटम बम नहीं गिराया होता तो युद्ध और कितना लंबा चलता उसका आप और हम सिर्फ अंदाजा ही लगा सकते हैं. जापान पर गिराए गए एटम बम का संबंध मैनहट्टन प्रोजेक्ट से हैं. यहां पर हम इस प्रोजेक्ट के साथ साथ एक और बात बताने वाले हैं जो थोड़ा सा अलग है. एटम बम बनाने के दौरान कई लोगों पर रेडियो ऐक्टिव प्लूटोनियम का इस्तेमाल किया गया था. उस प्रयोग में जितने भी लोग शामिल रहे उनमें से एक शख्स सबसे लंबे समय तक जिंदा रहा. यह बात अलग है कि उसे कभी नहीं बताया गया कि उसे कौन सा इंजेक्शन लगाया जा रहा है.
पार्टिसिपेंट को नाम मिला पेशेंट सीएएल
जब मैनहट्टन प्रोजेक्ट पर काम शुरू हुआ तो वैज्ञानिकों के सामने कई चुनौती थी. बड़ी चुनौती तो यही थी कि आखिर रेडियोएक्टिव पदार्थों का इंसानों पर कैसे और कितना असर होता है. इस चुनौती के लिए ऐसे लोगों की जरूरत पड़ी जो प्रयोग के दौर से गुजर सकें. इन सबके बीच एक शख्स तैयार हुआ जिसका नाम तो अल्बर्ट स्टीफन था लेकिन उसे पेशेंट सीएएल-1 दिया गया. जो लोग उस एक्सपेरिमेंट में शामिल हुए उन्हें पार्टिसिपेंट कहा गया. पार्टिसिपेंट इसलिए भी कहते हैं कि इस बात के पुख्ता साक्ष्य नहीं है कि अल्बर्ट स्टीफेंस को इस बात की जानकारी थी कि उसके शरीर में कौन से इंजेक्शन को लगाया जाना है या उसे प्लूटोनियम से एक्सपोज किया जाएगा.
द ह्यूमन प्लूटोनियन इंजेक्शन एक्सपेरिमेंट में यह जानने की कोशिश की गई कि अगर किसी इंसान को रेडियोएक्टिन पदार्थों से गुजारा जाता है तो उसका असर किस तरह का होगा. प्लूटोनियम को एटम बम बनाने के लिए महत्वपूर्ण पदार्थ उस समय माना जा रहा था. बता दें कि जापान के खिलाफ जिस एटम बम का इस्तेमाल किया गया था उसे फैट मैन के नाम से जाना जाता है.
पहले चूहों पर किया गया था एक्सपेरिमेंट
मैनहट्टन प्रोजेक्ट के तहत 1942 में हेल्थ डिविजन गठित की गई थी. इसमें पहला प्रयोग चूहे पर किया गया. लेकिन जह चूहे पर हुए प्रयोग से खास जानकारी हासिल नहीं हुई तो यह फैसला हुआ कि अब इंसानों पर प्रयोग किया जाना चाहिए. 1962 की लॉस अलामॉस लेबोरेट्री के रिपोर्ट के मुताबिक उन मरीजों का चयन किया गया जो पहले से किसी गंभीर बीमारी का सामना कर रहे थे और उनके जीने की संभावना 10 साल से कम थी. इस तरह से कई मरीजों का चयन किया गया जिसमें स्टीवेंस पहले शख्स बने जिन्हें कैलिफोर्निया में प्लूटोनियम का इंजेक्शन दिया गया.
स्टीफन का मामला विशेष रूप से असामान्य है क्योंकि, प्लूटोनियम इंजेक्शन के बाद एक ऑपरेशन के दौरान यह पता चला कि वो बिल्कुल बीमार नहीं था. दरअसल उसे माना जा रहा था कि उसके पेट में जो अल्सर है वो कैंसरस है लेकिन वो अल्सर कैंसरस नहीं था. हाइ लेवल का रेडिएशन दिए जाने के बाद प्लूटोनियम के इंजेक्शन का स्टीफंस पर कोई तत्काल प्रभाव नहीं पड़ा. हालांकि 9 जनवरी, 1966 को कार्डियोरेस्पिरेटरी वजह से उसकी मौत हो गई.
क्या होता है प्लूटोनियम 238
रेडियो एक्टिव पदार्थ में प्लूटोनियम 238 और 239 दोनों आते हैं लेकिन 238 का ही चयन क्यों किया गया. दरसल प्लूटोनियम 239 की तुलना में 238, 276 गुना अधिक घातक है. हालांकि द प्लूटोनियम फाइल्स के लेखक आइलीन वेलसम के मुताबिक मैनहट्टन प्रोजेक्ट में जो मशीनें लगी थीं कि वो प्लूटोनियम 238 के असर को प्रभावी तौर पर माप सकती थीं. 1995 में लॉस अलमास के दो वैज्ञानिकों ने कहा कि अल्बर्ट स्टीवेंस को उसके पूरे जीवनकाल में जितना डोज दिया गया वो 6400 रेम के बराबर था. इसका अर्थ यह है कि उसे हर साल 309 रेम दिया गया या आप कह सकते हैं कि सामान्य इंसान की तुलना में उसे 858 बार अधिक डोज दिया गया.
चिकित्सा क्षेत्र के जानकार सैली ह्यूजेस के साथ एक इंटरव्यू में वेलसम लिखते हैं कि केनेथ स्कॉट नाम का वैज्ञानिक जिसने जिन्होंने स्टीफन का इंजेक्शन तैयार किया था हालांकि इस डोज को अर्ल मिलर ने उसे दिया था उसने खुलासा किया कि स्टीफन को उसके बारे में कभी नहीं बताया था कि वह किसी भी तरह के प्रयोग में शामिल थे. स्टीफंस के कैंसर को हटाने के लिए की गई सर्जरी के दौरान शरीर के कई हिस्सों के नमूने लिए गए, लेकिन इसे कभी भी पैथोलॉजी लैब में नहीं भेजा गया. हालांकि वैज्ञानिकों ने दावा किया था कि वो ऐसा करेंगे.