नई दिल्ली: दीदी को देश कैसे भुला सकता है! वो भले ही दुनिया को अलविदा कहकर चली गईं लेकिन उन्होंने जो संस्कृति देश को दी है, जो आदर्श उन्होंने देश के लोगों को दिया है, वो नये युग में नई लता के बीज बोता रहेगा. एक खास शख्सियत लेकिन बिल्कुल आम लोगों के जैसी रूहानियत, आम लोगों की लता, हम लोगों की लता, जो सिर्फ दिलों में नहीं, मानव सभ्यता की संस्कृति में अनवरत प्रेम और एकता का रस घोलती रहेंगी.
सोचकर देखिए कितना मुश्किल होता है सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर भी लगातार सर्वोच्च बने रहना, स्वयं को इतना पवित्र और पूजनीय रखना!
ये लता की संस्कृति है जो उन्हें न सिर्फ बड़ा बनाती है बल्कि बड़े बनकर भी बेहतरीन बने रहने की कला सिखाती है. सोचकर देखिए किसी एक शख्स के बारे में जो कामयाबी की बिल्कुल साफ सुथरी तस्वीर बना हो, जो अरबों आत्माओं के लिए श्रद्धेय रहा हो, जिसकी छवि में साक्षात सरस्वती की तस्वीर समाहित हो. जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के सबके लिए देवी का दर्जा हासिल किया हो. ये नजरें सिर्फ और सिर्फ लता का चित्रण कर पाती हैं.
लता की आवाज वतनपरस्त बनाती रहेगी
92 सालों का ये दौर फख्र करता है कि वो सुरों के उस युग का हिस्सा रहा जिसकी सारथी स्वयं मां शारदे की प्रतिरूप लता मंगेशकर रहीं. फख्र है कि हम लता की हर एक आवाज, हर एक स्वर, उनके अमूमन हर एक एहसास के साक्षी रहे. ये युग साक्षी रहा उनके शून्य से शिखर तक के सफर का. हमने उनके गीतों में प्रेम को महसूस किया, रोष भी देखा, देश और समाज के लिए कड़ा संदेश भी देखा, राष्ट्र के लिए बुलंद आवाज देखी, दिलों को देशभक्ति से भर देने वाली उनकी उस शक्ति का रसपान किया, जो आने वाले कई युगों तक हर एक वतनपरस्त को वीर बनाती रहेगी.
ये वो दौर है जिसमें हमने उनको महान बनते देखा, भारत रत्न बनते देखा. हालांकि वो सिर्फ भारत का रत्न नहीं थी, वो इस ग्रह पर आईं वो साधिका थीं, जिनकी साधना से उनकी शख्सियत की निर्माण प्रक्रिया अनवरत काल तक विश्व के हर एक शख्स को सीख देती रहेगी. लता की ये संस्कृति हमारे घरों में कायम रहेगी, पीढ़ियों के अंतर को मिटाती रहेगी, उनके बोल जैसे आज भी हमें ही पुकारते हैं, वो हम लोगों की लता हैं.
सिर्फ सुरों और संगीत ही नहीं, एक उम्दा इंसान बनने की वो ख़ूबियां किसी एक शख्स में कहां पाएंगे? वो जिसने कभी किसी के विरोध में अपने स्वर को ऊंचा नहीं होने दिया. जो 5 साल की उम्र में किसी के गलत सुर पकड़ने पर उतनी ही अनुशासित थीं, जितनी कि वो स्वर कोकिला या सुर साम्राज्ञी बनने पर रहीं. वो जो सिनेमा के उस कालेपन के बीच भी रहीं लेकिन कभी दागदार नहीं हुईं.
लता, जो सुर और स्वर के प्रति जितनी ईमानदार थीं, उतनी ही ईमानदारी मुल्क की उम्मीदों के प्रति, समाज के संस्कार के प्रति, इस प्रकार से जारी रखी कि आगे भी अगर कोई उस पराकाष्ठा को प्राप्त कर पाएगा तो लता के नाम से ही जाना जाएगा.
लता का जीवन एक बड़ा संदेश
आज के प्रतिद्वंदी समाज के लिए भी लता का जीवन एक बड़ा संदेश है. जिनके लिए सुरों के साधक कभी उनके प्रतिद्वंदी नहीं रहे, बल्कि उनकी ही तरह एक साधक रहे. जिनकी बराबरी करने की किसी की हिम्मत भले न हो, लेकिन हौसले पूरे थे. एक ऐसी गुरू जिनसे हार जाना भी एक सम्मान था. जो जितनी ज्यादा सम्मानित होती, उतनी ही सौम्य होती जातीं. सरल होती गईं.
हम कभी लता को भुला न पाएंगे, देश लता को भुला न पाएगा
जज़्बे की वो मिसाल, जिन्होंने उम्र के आगे अपने जीवन को थकने नहीं दिया. उम्र के हर एक पायदान के साथ ये साधिका सरस्वती के स्वरूप की ओर बढ़ती रहीं. एक शताब्दी ने उस एक शख्स की संस्कृति को महसूस किया है. उसे खुद में जीया है और यकीन है कि लता की संस्कृति आनेवाली हर एक पीढ़ी को उससे पहले बीती पीढ़ी और उसके बाद आनेवाली पीढ़ी से जोड़ती रहेगी, ठीक एक लता की तरह, जो आगे बढ़ती है तो सबको गले लगाती जाती है. हम कभी लता को भुला न पाएंगे, देश लता को भुला न पाएगा.
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