UCC Bill: क्या है नागरिक समान संहिता कानून, आखिर क्यों है इसकी चर्चा?
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UCC Bill: क्या है नागरिक समान संहिता कानून, आखिर क्यों है इसकी चर्चा?

UCC Bill: नागरिक समान संहिता पर चर्चा बहुत समय से हो रहा है. प्रधानमंत्री ने भी पुरजोर समर्थन किया है. प्रधानमंत्री ने संकेत दिया है कि 2024 लोकसभा चुनाव से पहले समान नागरिक संहिता को प्राथमिकता दिया जा सकता है. 

UCC Bill: क्या है नागरिक समान संहिता कानून, आखिर क्यों है इसकी चर्चा?

UCC Bill: मध्य प्रदेश में भाजपा बूथ कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को समान नागरिक संहिता (UCC) का पुरजोर समर्थन किया है. यह संकेत दिया कि सरकार 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले लंबे समय से लंबित विषय समान नागरिक संहिका को प्राथमिकता दे सकती है. ऐसा तब हुआ है जब 22वें विधि आयोग ने हाल ही में इस विषय की फिर से छानबीन करने पर सहमति व्यक्त की है. जनता और मान्यता प्राप्त धार्मिक संस्थाओं से यूसीसी पर राय और राय मांगा है.

क्या है समान नागरिक संहिता 
समान नागरिक संहिता की ख्याल कानूनों के एक समूह के रूप में की गई है जो सभी नागरिकों के लिए उनके धर्म की परवाह किए बिना विवाह, तलाक, गोद लेने, विरासत और उत्तराधिकार सहित व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करता है. इसका उद्देश्य मौजूदा विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों को प्रतिस्थापित करना है जो धार्मिक संबद्धता के आधार पर भिन्न होते हैं.

भारत में व्यक्तिगत कानूनों में अंतर 
भारत में महिलाओं के विरासत संबंधी अधिकार उनके धर्म के आधार पर अलग-अलग है. जानकारी के लिए बता दें कि1956 के हिंदू उत्तराधिकार कानून के तहत हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के अधिकारों को नियंत्रित करता है. हिंदू महिलाओं को अपने माता-पिता से संपत्ति लेने का समान अधिकार है और हिंदू पुरुषों के भी समान ही अधिकार है. इसमें विवाहित और अविवाहित बेटियों के अधिकार समान हैं. महिलाओं को पैतृक संपत्ति विभाजन के लिए संयुक्त कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी गई है.

वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा शासित मुस्लिम महिलाएं अपने पति की संपत्ति में हिस्सा पाने की हकदार हैं. जो बच्चों की उपस्थिति के आधार पर 1/8  या 1/4  है. लेकिन बेटियों की हिस्सेदारी बेटों की तुलना में आधी है.

इसमें ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों के लिए 1925 का भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम लागू होता है. ईसाई महिलाओं को बच्चों या अन्य रिश्तेदारों की मौजूदगी के आधार पर पूर्व निर्धारित हिस्सा मिलता है. वहीं पारसी विधवाओं को उनके बच्चों के समान हिस्सा मिलता है. यदि मृतक के माता-पिता जीवित हैं तो बच्चे का आधा हिस्सा उनके माता-पिता को दिया जाता है.

भारतीय संविधान में समान नागरिक संहिता का प्रावधान
संविधान के अनुच्छेद 44 जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में से एक है. संविधान में कहा गया है कि राज्य को पूरे भारत के क्षेत्र में लोगों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए. लेकिन अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि निर्देशक सिध्दांत सरकारी नीतियों के लिए मार्गदर्शक सिध्दांत है. इसे आदालतों द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है.

समान नागरिक संहिता के समर्थन में तर्क
भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का विचार था कि यूसीसी मानने योग्य है. लेकिन संविधान सभा में महत्वपूर्ण विभाजन के बाद उन्होंने इसे फिलहाल स्वैच्छिक बने रहने का प्रस्ताव दिया था.

उन्होंने कहा था कि "यह पूरी तरह से संभव है कि भविष्य की संसद शुरुआत करके एक प्रावधान कर सकती है कि संहिता केवल उन लोगों पर लागू होगी जो यह घोषणा करते हैं कि वे इसके लिए बाध्य होने के लिए तैयार हैं, ताकि प्रारंभिक चरण में इसे लागू किया जा सके. आगे कहा कि संविधान सभा में अंबेडकर ने कहा कि संहिता पूरी तरह से स्वैच्छिक हो सकती है ताकि मेरे मित्रों ने यहां जो भय व्यक्त किया है वह पूरी तरह से खत्म हो जाए."

इस प्रकार बाद में संविधान सभा इस खंड को मौलिक अधिकार के बजाय निर्देशक सिद्धांत के रूप में रखने पर सहमत हुई थी.

जानकारी के लिए बता दें कि शाह बानो मामले में अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 44 एक 'मृत पत्र' बनकर रह गया है. और आगे कहा कि एक समान नागरिक संहिता "परस्पर विरोधी विचारधारा वाले कानूनों के प्रति असमान वफादारी को हटाकर राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य में मदद करेगी". इसमें कहा गया कि विधायिका को देश के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का कर्तव्य सौंपा गया है. यदि संविधान का कोई अर्थ रखना है तो एक शुरुआत करनी होगी''.

1995 में सरला मुद्गल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधान मंत्री से अनुच्छेद 44 की फिर से जांच करने का अनुरोध किया था. जिसका लक्ष्य पूरे भारत में यूसीसी स्थापित करना था.

लेकिन अहमदाबाद महिला एक्शन ग्रुप केस (1997) और लिली थॉमस केस (2000) में बाद के आदेशों ने स्पष्ट किया कि अदालत ने सरला मुद्गल मामले में सरकार को यूसीसी बनाने का निर्देश नहीं दिया था.

समान नागरिक संहिता के विरुद्ध तर्क
21वें विधि आयोग ने अगस्त 2018 में 'पारिवारिक कानून में सुधार' पर एक सुझाव पत्र लाया जिसमें उसने कहा कि यूसीसी "इस स्तर पर न तो आवश्यक था और न ही वांछनीय". हालांकि इसने सिफारिश की कि व्यक्तिगत कानूनों में भेदभाव और असमानता से निपटने के लिए सभी धर्मों में मौजूदा पारिवारिक कानूनों को संशोधित और संहिताबद्ध किया जाए.

विधि आयोग की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बीएस चौहान ने की थी. उन्होंने ने कहा कि "सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं किया जा सकता है कि एकरूपता के लिए हमारा आग्रह ही राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरे का कारण बन जाए".

इस बात पर सहमति व्यक्त करते हुए कि प्रचलित व्यक्तिगत कानूनों के विभिन्न पहलू महिलाओं को वंचित करता है. हालांकि आयोग ने कहा कि "यह भेदभाव है न कि अंतर जो असमानता की जड़ में निहित है".

इसमें कहा गया है कि मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक और निर्विवाद तर्कों के साथ हमारी विविधता को समेटने का प्रयास करना होगा. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि विधि आयोग के सुझाव सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं हैं बल्कि आगे के निर्णयों के लिए संदर्भ के रूप में कार्य करता है.

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