Urdu Poetry in Hindi: तेरी ख्वाहिश भी न हो तुझ से शिकायत भी न हो...

Siraj Mahi
Jan 22, 2025

चुपके चुपके अपने अंदर जाते हैं, सहमे सहमे बाहर आना पड़ता है

क़ाफ़िले में हर इक फ़र्द मुख़्तार है, क़ाफ़िला देख लेना लुटेगा ज़रूर

दिल लगाने को सारा जहाँ था मगर, सोचता कौन है दिल लगाते हुए

कितने रिश्तों का मैं ने भरम रख लिया, इक त'अल्लुक़ से दामन छुड़ाते हुए

गुमान होने लगा है ये किस के होने पर, कहीं कहीं जो नहीं है कहीं कहीं है बहुत

तुम ने चुनी है राह जो हमवार है बहुत, ज़ाहिद तुम्हारी राह में पत्थर नहीं कोई

शायद मैं अपने आप से ग़ाफ़िल न रह सका, कुछ लोग मेरी ज़ात से मंसूब हो गए

मौत बर-हक़ है जब आ जाए हमें क्या लेकिन, ज़िंदगी हम तिरी रफ़्तार से डर जाते हैं

तेरी ख़्वाहिश भी न हो तुझ से शिकायत भी न हो, इतना एहसान मिरी जान नहीं करना था

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