India Supports Palestine in UNHRC: भारत ने फिलिस्तीनी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करते हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया है.
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UNHRC resolution: आजाद भारत में चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो लेकिन मानवीय आधार पर भारत ने हमेशा से फिलिस्तीन के लोगों की मदद का समर्थन किया है. 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद भी भारत के रुख में कोई बदलाव नहीं आया. यही वजह है कि अप्रैल 2024 में भी भारत में भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) के उस प्रस्ताव के समर्थन के पक्ष में वोट किया जो फिलिस्तीनी लोगों के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार (राज्य का दर्जा) का समर्थन करता है. अमेरिका और पैराग्वे ने इस मतदान के दौरान प्रस्ताव के विरोध में अपना वोट किया.
वहीं UNHRC के पूर्वी यरुशलम और अधिकृत फलस्तीनी क्षेत्र में मानवाधिकार की स्थिति, जवाबदेही और न्याय सुनिश्चित करने के दायित्व संबंधी एक अन्य प्रस्ताव पर भारत समेत कुल 13 देशों ने मतदान से दूरी बना ली.
भारत-फिलिस्तीन संबंध और यासर अराफात
भारत और फिलिस्तीन के संबंध बहुत पुराने हैं. यासर अराफात (Yasser Arafat) वहां के सर्वमान्य नेता थे. दुनिया के कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों से उनके करीबी रिश्ते थे. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिलिस्तीन की संप्रभुता का सम्मान किया है. यासर अराफात अपने जीवन काल में भारत भी आए. वो भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बड़ी बहन मानते थे. यही वजह रही कि भारत, यासर अराफात की अगुवाई वाले Palestine Liberation Organisation (PLO) को अपना समर्थन देता रहा. आगे चलकर राजीव गांधी ने भी इसी लाइन पर चलते हुए इजरायल से दूरी बनाए रखी और फिलिस्तीन को समर्थन दिया.
भारतीय नेताओं अधिकारियों और पत्रकारों से थी यासर अराफात की दोस्ती
बीबीसी के एक रिपोर्ट के मुताबिक अराफात का अक्सर भारत आना होता था. इंदिरा गांधी उन्हें हमेशा रिसीव करने हवाई अड्डे पर जाती थीं. भारत के पूर्व विदेश सचिव रोमेश भंडारी, भारत के पूर्व राजनयिक और संयुक्त राष्ट्र महासचिव चिनमय गरेखान से अक्सर उनकी बातचीत और मुलाकात होती रहती थी. मार्क्सवादी कमयूनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचूरी को भी उनसे कई बार मिलने का मौका मिला था. मशहूर पत्रकार श्याम भाटिया को भी यासर अराफात से कई बार मिलने का मौका मिला था.
1983 की वो अनसुना किस्सा
1983 में भारत में गुटनिरपेक्ष देशों का शिखर सम्मेलन हुआ तो भी यासर अराफात भारत आए थे, हालांकि तब वो इस बात पर गुस्सा हो गए थे कि नई दिल्ली ने उनसे पहले जॉर्डन के शाह को भाषण देने का मौका दिया था. तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह उस सम्मेलन के सेक्रेट्री जनरल थे. अराफात गुस्से में फौरन अपने देश लौट जाना चाहते थे.
एक किताब में ये किस्सा कुछ इस तरह लिखा है- 'दिल्ली के विज्ञान भवन में यासर अराफात कह चुके थे कि वो वापस जाएंगे वो भी तुरंत. फौरन इंदिरा गांधी को फोन किया गया. विदेश विभाग के अफसरों ने इंदिरा गांधी से अपने साथ फीदेल कास्त्रो को लाने की गुजारिश की. कास्त्रो के भी अराफात से अच्छे रिश्ते थे. कास्त्रो ने उन्हें इंदिरा गांधी से उनके रिश्ते की दुहाई थी और शाम को होने वाले सत्र में रुकने के लिए मना ही लिया.' पूर्व पीएम राजीव गांधी से भी उनकी गहरी दोस्ती थी. वो उनके दौर में भी भारत आए
साल 1990 में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) के प्रमुख ने इजरायल से बातचीत की और 1993 में ओस्लो समझौता किया जिससे फिलिस्तीन को पश्चिमी तट और गाजा पट्टी में शासन मिल सका. साल 1994 में यासर अराफात ने इजराइली नेता यित्झक राबिन और शिमोन पेरेज के साथ शांति का नोबेल पुरस्कार जीता.
फिलिस्तीन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
फरवरी 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने फिलिस्तीन दौरे के बीच उस शख्शियत को श्रद्धांजलि देने पहुंचे थे, जिसके भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों से अच्छी दोस्ती थी. पीएम मोदी उस दौरे में यासर अराफात के मकबरे पर गए. अराफात को श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद प्रधानमंत्री ने हमदल्ला के साथ अराफात संग्रहालय की सैर की. यह संग्रहालय अराफात के मकबरे के पास ही है. साल 1929 में काहिरा में जन्मे यासर अराफात का निधन 11 नवंबर 2004 को हुआ था. वो कई साल फिलिस्तीन के राष्ट्रपति रहे.
अगस्त 2018 में भारतीय विदेश मंत्रालय (Ministry of External Affairs) की वेबसाइट https://www.mea.gov.in में अपलोड की गई एक प्रेस रिलीज के मुताबिक मोदी सरकार ने भी फिलिस्तीन को लेकर पूर्ववर्ती सरकारों के रुख को सिरे खारिज नहीं किया. इस दौरान इजरायल-फिलिस्तीन के तनाव को मानवीय नजरिए से देखा गया. विदेश मंत्रालय की इस रिपोर्ट के मुताबिक फिलिस्तीनी मुद्दे के लिए भारत का समर्थन देश की विदेश नीति का एक अभिन्न अंग है.
1947 से 2024 तक अपने स्टैंड पर कायम रहा भारत
2018 की विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 1974 में, भारत, फिलिस्तीन मुक्ति संगठन को मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब राज्य बना था. भारत ने फिलिस्तीनी लोगों के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में हमेशा उदारवादी रवैया अपनाया है. भारत ने विभिन्न बहुपक्षीय मंचों पर फिलिस्तीन के हित में समर्थन बढ़ाने में सक्रिय भूमिका निभाई है.
भारत ने 'फिलिस्तीनियों के अधिकार' पर लाए गए मसौदा प्रस्ताव को सह-प्रायोजित कर चुका है. संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के 53वें सत्र के दौरान भारत ने इसके पक्ष में वोट किया. भारत ने अक्टूबर 2003 में भी UNGA प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था. 2011 में, भारत ने फिलिस्तीन को यूनेस्को का पूर्ण सदस्य बनाने के पक्ष में मतदान किया. इस तरह भारत ने कई मौकों पर फिलिस्तीनियों के अधिकार का समर्थन किया है.
1962 के भारत-चीन युद्ध और 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान जब अरब देशों ने भारत विरोधी रुख अपनाया, तब भी भारत ने फिलीस्तीन से दूरी नहीं बनाई. उस दौर की सरकार के इस रुख की आलोचना हुई थी. बाद में इजरायल से भारत की नजदीकी बढ़ी. जिसे पीएम नरेंद्र मोदी नए मुकाम पर ले गए. पीएम मोदी और इजरायली पीएम बेंजामिन नेतन्याहू के बीच दोस्ती को इस संदर्भ में जोड़कर देखा जा सकता है.