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Emergency or only economic emergency in India: आपातकाल नहीं देश का अंधकाल जब 25 जून 1975 को अचानक पूरे देश को एक ऐसी आग में झोंक दिया गया जिसकी घोषणा तो देश को बचाने के नाम पर की गई लेकिन इसमें इंदिरा गांधी के निजी फायदों और सत्ता को बचाने के प्रयास के अलावा कुछ भी नहीं था. देश आजाद होकर एक बार फिर से गुलाम हो गया था और यह गुलामी 21 महीनवे लंबी चली थी.
आपातकाल की घोषणा 25 जून की आधी रात को हुई और सभी राज्यों में विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश पहुंच गए. इंदिरा के सबसे मुख्र विरोधी जयप्रकाश नारायण को उसी रात गिरफ्तार कर लिया गया. आपको बता दें कि मीडिया पर रात से ही प्रतिबंध लगा दिया गया. इंदिरा गांधी चाहती थी कि यह आपातकाल वाली बात देश में आग की तरह फैलने से अच्छा है कि धीरे-धीरे फैले. इस सब के बीच इस आपातकाल को आर्थिक आपातकाल कहकर भ्रम भी फैलाया गा. जबकि जनता ने 21 महीने जो पीड़ा झेली थी वह कहीं से भी आर्थिक आपातकाल वाला दिख नहीं रहा था बल्कि वह तो दमन चक्र था जो जनता के लिए सरकार के द्वारा प्रायोजित तौर पर इस दौरान चलाया गया था.
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अगर आपातकाल आर्थिक था तो पिर गरीबों और मजदूरों का इस दौरान जमर शोषण कैसे किया गया, केवल पश्चिम बंगाल जैसे राज्य की बात करें तो यहां करीब 16 हजार मजदूरों को जेल में ठूंस दिया गया. सरकारी महकमों में काम कर रहे कर्मचारी भी जब सरकार के फैसले के लिए उतरे तो उनका भी दमन किया गया.
इस आपातलाक की आग में देश की अदालतें भी झुलसती रहीं. जिसने भी सरकार की अदालतों में नहीं सुनी उसे इसको लेकर खामियाजा भुगतना पड़ा. सरकारी जजों के धड़ाधड़ तबादले किए गए. बता दें कि जस्टिस खन्ना ने जब आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों का समर्थन किया तो उनकी वरीयता की उपेक्षा करते हुए जस्टिस एच. एम. बेग को उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया.
अगर आपातकाल आर्थिक आधार पर किया गया था तो लोगों की नसबंदी क्यों कराई गई. दिल्ली से गरीबों के घर उजाड़कर रातों-रात शहर से बाहर कर दिया गया. स्टेशन पर सो रहे लोगों से लेकर सड़क पर चल रहे मासूम तक को पकड़-पकड़कर नसबंदी करा दी गई.