अनोखी शादीः यहां होली पर सात फेरों में बंधकर एक दूजे के होते हो जाते है लड़के
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अनोखी शादीः यहां होली पर सात फेरों में बंधकर एक दूजे के होते हो जाते है लड़के

Holi Unique rituals: राजस्थान के उदयपुर में एक अनोखी परंपरा है जिसमें  लड़के की लड़के से शादी  की जाती है. चलिए जानते आखिर इस रोजक भरी परंपरा के पीछे का कारण क्या है .

 

अनोखी शादीः यहां होली पर सात फेरों में बंधकर एक दूजे के होते हो जाते है लड़के

Holi Unique rituals: होली का रंग आसमान की फिजाओं में घुल चुका है. देश के उत्तरी भारत के अधिकांश राज्यों में होली के रंग में सराबोर हो चुके है. होली पर हर  राज्य की अपनी अपनी एक अनोखी परंपरा है जिसे वह सदियों से निभाता चला आ रहा है. राजस्थान के उदयपुर में भी कुछ ऐसी ही एक अनोखी परंपरा है जिसे सुनकर आप और हम चौक पड़ेंगे. क्योंकि इस परंपरा के तहत जिस तरह से होली मनाने का रिवाज है वह बड़ा ही अजीब और रोजक है. 

उदयपुर के वागड़ क्षेत्र में होली पर लड़के की लड़के से शादी k की जाती है. यहां लड़का दूल्हा और लड़का ही दुल्हन बनती है. इतना ही  नहीं इन दोनों के सात फेरे  भी करावाकर सुबह विदाई भी करवाई जाती है.  जिसे बिनौला  कहा जाता है. यह सब  उदयपुर के वागड़ यानी बांसवाड़ा जिले के एक छोटे कस्बे में होता है. चलिए जानते आखिर इस रोजक भरी परंपरा के पीछे का कारण क्या है .

लड़को को खोजने निकलता है दल

इस परंपरा को निभाने के लिए  बांसवाड़ा जिले के बड़ोदिया कस्बे में.गांव के मुखिया के नेतृत्व में युवाओं का एक समूह  ऐसे दो अविवाहित बालकों को खोजने निकलता है जिनका यज्ञोपवित संस्कार न हुआ हो. जन मान्यताओं के चलते ऐसा जरूरी है कि सम्मिलित बालक न तो विवाहित हो न ही यज्ञोपवितधारी हो. इन  पंरम्परा को स्थानीय बोली वागड़ी में ‘गेरिया’ कहा जाता है

जो पहले मिला वह दूल्हा और बाद में मिला वह दुल्हन

रात में ढोल की थाप के साथ नाचते गाते गेरियों का यह समूह शादी योग्य दो बालकों को तलाश में पूरे गांव में घूमता हैं.  इस प्रथा से छोटे लड़के बेदह डरते है वह घरों से भी नहीं निकते. भूले भटके रास्ते में घूमता जो भी बालक  उन्हें पहले मिलता है वह उसे पकड़ कर गांव के बीच स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर चौक पर पहले से स्थापित किए गए  विवाह मण्डप पर लाता है. खोज प्रक्रिया में पहले मिलने वाले बालक को वर और बाद में मिलने वाले बालक को वधू घोषित किया जाता  है. पंडित इन्हीं गेरियों में सम्मिलित एक व्यक्ति होता है. वह दोनों युवकों के साथ वर-वधु के साथ मण्डप में बैठाकर शादी की सम्पूर्ण रस्में अदा की जाती हैं. मण्डप में हवन वेदिका भी होती है और दूल्हा-दुल्हन के फेरे भी होते हैं. इस दौरान उपस्थित गैरिये ढोल-तासों की संगत के साथ शादी-ब्याह के गीत गाते है व मौज- मस्ती करते हैं.

 सुबह निकला है बिनौला

शादी की यह रस्म अदायगी सारी रात चलती है और तड़क़े वर-वधू बने दोनों बालकों को बैलगाड़ी में बैठाकर गांव भर में बिनौला निकाला जाता है. बिनौले को देखने के लिये लोग उत्साहित दिखाई पड़ते है. बिनौले की रस्म के दौरान शादी में सम्मिलित होने वाले सभी लोग बारी-बारी से वर-वधू बने बालकों के घर पहुंचते हैं व शादी की खुशी की मिठाई रूप में शक्कर अथवा नारीयल का बना प्रसाद  लेते है.इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में वर-वधु बने बालक भी इस क्रिया का प्रतिकार न करते हुए इस प्रहसन का आनन्द लेते हैं. सामजिक बंधनों में बंधे ग्रामीण जन भी समाज के नियमों के कारण इसका विरोध नहीं करते हैं. नियम है कि जो भी इस प्रकार की परम्परा का विरोध करता है उसके घर गांव के पंच ढूंढ की पापड़ी बनाने नहीं जायेंगे व उसके साथ गांव का पंचायती व्यवहार बंद कर दिया जाएगा.

इस कारण होती है लड़कों की आपस में शादी

इस परंपरा के पीछे सामाजिक एकता बढ़ाने का प्रगाढ़ उद्देश्य छिपा हुआ है. इस परम्परा के बारे में बड़े-बुजुर्ग  कहते है कि पहले इस गांव में खेडुवा जाति के लोग रहते थे . गांव के ठीक बीच में ही एक नाला बहता था जो गांव को दो भागों में बांटता था. उस समय प्रत्येक भाग से एक-एक बालक इस तरह की शादी में स्वेच्छा से दिया जाता था. माना जाता था कि दोनों भागों के लड़कों की आपस में शादी हो जाने पर दोनों भागों में पारिवारिक संबंध स्थापित हो जाता है और इसके चलते दोनों भागों के वाशिंदों में किसी प्रकार का बैर भाव नहीं रहता है. इसी मान्यता के चलते दोनों भागों के लोग होली पर्व पर सांस्कृतिक एकता प्रदर्शित करने के उद्देश्य से सदियों से इस परंपरा को निभा रहे हैं.

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