Swami Vivekananda: आज स्वामी विवेकानंद जी की जयंती है, इस मौके पर हम आपको उनके अमेरिका में दिए गए एतिहासिक भाषण और कन्याकुमारी में मौजूद आखिरी टीले पर 'ध्यान' के बारे में बताने जा रहे हैं.
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Swami Vivekananda: जब हम तारीख के पन्ने पलटते हैं तो कुछ हर पन्ना किसी अहम घटना के बारे में बता रहा होता है. आज 12 जनवरी है और आज ही के दिन 12 जनवरी 1863 को एक ऐसी हस्ती ने दुनिया में जन्म लिया था, जिसने सारी दुनिया को अपने विचारों पर गौर करने के लिए मजबूर कर दिया था. वो हस्ती है स्वामी विवेकानंद. स्वामी जी की जिंदगी अनगनित दिलचस्प और हैरान कर देने वाली घटनाओं से भरी पड़ी है लेकिन आज हम आपको उनके एक ऐसे भाषण के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे सुनने के बाद अमेरिका के शिकागो में लगभग 2 मिनट तक तालियां बजती रहीं.
स्वामी विवेकानंद जब लगभग 30 वर्ष के थे उन्होंने 11 सितंबर 1893 को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा (World Parliament of Religions) में यह भाषण दिया था. उनका यह भाषण न सिर्फ उनके व्यक्तिगत विद्वान होने और आध्यात्मिकता का अनुभव करवा करवा रहा था बल्कि भारत और हिंदू धर्म की संस्कृति और विचारधारा को वैश्विक मंच पर स्थापित करने वाला लम्हा भी था.
उन्होंने जब अपने भाषण का आगाज किया तो शुरुआती शब्द कुछ यूं थे-'Sisters and Brothers of America'. जैसे ही स्वामी विवेकानंद जी ने ये लाइन कही तो सभा में बैठे हज़ारों लोगों के दिल पर जाकर लगी और उन्हें लगभग 2 मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सम्मान दिया गया. इस भाषण में विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति, वेदांत और विश्व बंधुत्व का संदेश दिया. उनके की मुख्य बातें इस तरह हैं.
स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषण में जोर दिया कि सभी धर्मों का मकसद एक ही है और वो मकसद है इंसानियत को सच्चाई और ईश्वर तक पहुंचाना.
अपने इस भाषण में स्वाणी विवेकानंद जी ने सांप्रदायिकता, कट्टरता और धर्मांधता की सख्त निंदा की. उन्होंने कहा कि इन विचारों ने मानव समाज में हिंसा, युद्ध और संघर्ष की वजह बनाया है. उन्होंने एक ऐसा विश्व बनाने की अपील की थी, जहां सभी मज़हब एक-दूसरे की इज्ज़त करें.
स्वामी विवेकानंद जी की इस यात्रा के पीछे और दिलचस्प बात बताई जाती है. भारत के कोने-कोने में भ्रमण करने के बाद स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी में भारतीय चट्टान के आखिरी टुकड़े पर पहुंचे और 25, 26 व 27 दिसंबर 1892 को यहां ध्यान में बैठे. कहा जाता है कि उनका ध्यान एक मील का पत्थर बन गया क्योंकि यहीं पर उन्होंने हिंदू धर्म और भारत की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने के लिए पश्चिम जाने का फैसला किया था.
बाद में इस जगह को एकनाथजी रानाडे के दूरदर्शी नेतृत्व ने 'शिला स्मारक' में बदल दिया गया. निर्माण के लिए 1.35 करोड़ का बजट था और इसमें से 85 लाख रुपये आम लोगों से दान के तौर पर इकट्ठा किए गए थे. साथ ही राज्य और केंद्र सरकार ने इस स्मारक को बनाने के लिए दान दिया था. बताया जाता है कि इस स्मारक का उद्घाटन समारोह 2 महीने तक चला था और लगभग सभी राज्यों को लोगों ने इसमें शिरकत की थी.