ऐसे ही राजनीति के 'धरतीपुत्र' नहीं कहे गए मुलायम, मुंहजुबानी याद था हर एक कार्यकर्ता का नाम

Mulayam Singh Yadav: उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय नेता और 'धरतीपुत्र' के नाम से पहचाने जाने वाले मुलायम सिंह यादव को सफलता और असफलता ने कभी प्रभावित नहीं किया. मुलायम सिंह यादव अपनी उस पीढ़ी के राजनेताओं में से एक थे, जिन्होंने अपने मूल्यों को बरकरार रखा और राजनीति में किसी भी चीज से समझौता नहीं किया.

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : Oct 10, 2022, 06:58 PM IST
  • कुछ ऐसा रहा मुलायम का राजनीतिक सफर
  • साल 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना
ऐसे ही राजनीति के 'धरतीपुत्र' नहीं कहे गए मुलायम, मुंहजुबानी याद था हर एक कार्यकर्ता का नाम

लखनऊ: उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय नेता और 'धरतीपुत्र' के नाम से पहचाने जाने वाले मुलायम सिंह यादव को सफलता और असफलता ने कभी प्रभावित नहीं किया. मुलायम सिंह यादव अपनी उस पीढ़ी के राजनेताओं में से एक थे, जिन्होंने अपने मूल्यों को बरकरार रखा और राजनीति में किसी भी चीज से समझौता नहीं किया. उनके लिए हर कोई महत्वपूर्ण था. चाहे वह उनके परिवार वाले हों या गांव का कोई व्यक्ति. वह दोस्तों के दोस्त थे. वह अपने दुश्मनों को भी दोस्त बना लेते थे.

कुछ ऐसा रहा मुलायम का राजनीतिक सफर

मुलायम सिंह ने पहली बार 1967 में राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर करहल से विधानसभा चुनाव लड़ा था. मुलायम सिंह यादव ने राज्य विधानसभा के सदस्य के रूप में आठ बार सेवा की.

1975 में, इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने के दौरान, यादव को गिरफ्तार कर लिया गया और 19 महीने तक हिरासत में रखा गया. वह पहली बार 1977 में राज्य मंत्री बने. बाद में, 1980 में उत्तर प्रदेश में लोक दल के अध्यक्ष बने और इसके बाद में जनता दल का हिस्सा बन गए.

1982 में, वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद में विपक्ष के नेता चुने गए और 1985 तक उस पद पर रहे. जब लोक दल पार्टी का विभाजन हुआ, तो यादव ने क्रांतिकारी मोर्चा पार्टी का शुभारंभ किया.
मुलायम सिंह यादव पहली बार 1989 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे.

साल 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना

एक चालाक राजनेता होने के नाते, उनमें राजनीति में उथल-पुथल को भांपने की अदभुत क्षमता थी. नवंबर 1990 में वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय सरकार के पतन के बाद, यादव चंद्रशेखर की जनता दल (सोशलिस्ट) पार्टी में शामिल हो गए और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री के पद पर बने रहे. कांग्रेस ने अप्रैल 1991 में समर्थन वापस ले लिया, इससे उनकी सरकार गिर गई. मुलायम सिंह मध्यावधि चुनावों में भाजपा से हार गए.

1992 में, यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी की स्थापना की और फिर नवंबर 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के लिए बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन ने राज्य में भाजपा की सत्ता में वापसी को रोक दिया और वो कांग्रेस और जनता दल के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

उत्तराखंड के लिए अलग राज्य की मांग के आंदोलन पर मुलायम का रुख उतना ही विवादास्पद था, जितना कि 1990 में अयोध्या आंदोलन पर. 2 अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर में अयोध्या के कार्यकर्ताओं और तत्कालीन उत्तराखंड के कार्यकर्ताओं पर फायरिंग उनके शासन काल में काले धब्बे की तरह रहे.

कुख्यात गेस्ट हाउस कांड से टूटा सपा-बसपा गठबंधन

1995 में, कुख्यात राज्य गेस्ट हाउस की घटना के साथ सपा-बसपा गठबंधन टूट गया, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने सुनिश्चित किया कि उनकी पार्टी 2003 में सत्ता में वापस लौट आए. उन्होंने सितंबर 2003 में तीसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.

यादव ने 2004 का लोकसभा चुनाव मैनपुरी से लड़ा था, जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. हालांकि, बाद में उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और 2007 तक मुख्यमंत्री के रूप में बने रहे. मुलायम सिंह यादव उन कुछ राजनेताओं में से एक थे जिन्होंने खुले तौर पर भाई-भतीजावाद को बढ़ावा दिया. किसी समय में, उत्तर प्रदेश में राजनीति में परिवार के लगभग एक दर्जन सदस्य थे.

उनके एक भतीजे ने कहा, उन्होंने हमेशा हमें राजनीति की ओर जाने के लिए प्रोत्साहित किया. यह हमेशा उन्होंने ही तय किया कि हमारे लिए सबसे अच्छा क्या है और हमारे करियर में उन्होंने गहरी दिलचस्पी दिखाई थी.

कार्यकर्ताओं के बेहद करीबी नेता रहे मुलायम

मुलायम सिंह अपने दोस्तों को काफी महत्व देते थे. चाहे फिर बेनी प्रसाद वर्मा हो, आजम खान हो, मोहन सिंह हो या फिर जनेश्वर मिश्र हों, हर किसी का उनके जीवन में एक विशेष स्थान है. इटावा में बलराम सिंह यादव और दर्शन सिंह यादव के साथ उनकी तनातनी काफी बढ़ गई थी, लेकिन मुलायम ने समय के साथ अपने समीकरण बदलने में कामयाबी हासिल की और दोनों उनके दोस्त बन गए.

मुलायम ने मीडिया से प्यार-नफरत का रिश्ता रखा. कुछ अखबारों के खिलाफ उनके 'हल्ला बोल' आंदोलन ने राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरीं. हालांकि, मुलायम ने यह सुनिश्चित किया कि पत्रकारों के साथ उनके व्यक्तिगत संबंध कभी खराब न हों. 

पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए वे उनके प्रिय 'नेताजी' बने रहे. पार्टी के एक वरिष्ठ विधायक ने कहा, मुझे एक भी ऐसा मौका याद नहीं है, जब मैं मुलायम सिंह से मिलने गया हूं और खाली हाथ लौटा हूं. उन्हें पार्टी के सबसे छोटे कार्यकर्ता का नाम भी याद रहता था.

मुलायम सिंह यादव एक ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने नौकरशाहों से सही तरीके से काम लिया. उन्होंने कड़े फैसले लिए और उनके अधिकारियों ने उन्हें लागू किया. वास्तव में, कई लोग दावा करते हैं कि नौकरशाही का राजनीतिकरण मुलायम के मुख्यमंत्री बनने के बाद ही शुरू हुआ.

पिछले पांच सालों में अखिलेश यादव के पार्टी की कमान संभालने के बाद मुलायम सिंह लोगों के बीच बने रहे. उनके एक करीबी ने कहा, वह अक्सर हमसे पूछते थे कि क्या उनसे मिलने के लिए कोई इंतजार कर रहा है. उन्हें पार्टी कार्यालय जाना पसंद था. वह वहां की हलचलों का आनंद लेते थे.

मुलायम अपने परिवार में हाल की घटनाओं से परेशान थे. बहू अपर्णा का भाजपा में शामिल होना, बेटे अखिलेश और भाई शिवपाल के बीच फूट. उन्होंने इसका कोई सार्वजनिक उल्लेख नहीं किया, लेकिन यह स्पष्ट था कि जो कुछ हो रहा था, वह उससे बहुत प्रभावित थे.

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