Supreme Court SBI Notice: एसबीआई को नोटिस मिलने के बाद हर किसी के मन में सवाल है कि आखिर इलेक्टोरल बॉन्ड का नंबर जरूरी क्यों है? आइए इसका गणित समझ लेते हैं.
Trending Photos
Electoral Bonds Number: सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने सवाल उठाया है कि एसबीआई ने इलेक्टोरल बॉन्ड (Electoral Bond) के जो आंकड़े चुनाव आयोग को दिए हैं, उनमें इलेक्टोरल बॉन्ड नंबर का उल्लेख नहीं किया है. कोर्ट ने SBI को इस पर नोटिस जारी कर जवाब मांगा है. सुप्रीम कोर्ट का ये रुख इसलिए अहम है क्योंकि इलेक्टोरल बॉन्ड नंबर से ही एक आम वोटर को ये पता चला सकता है कि किस शख्स या कंपनी ने किस राजनीतिक पार्टी को कितना चंदा दिया.
अभी सार्वजनिक हुई जानकारी में क्या है?
अभी एसबीआई ने चुनाव आयोग को जो जानकारी सौंपी है, उसी जानकारी को चुनाव आयोग ने 14 मार्च को अपनी वेबसाइट पर शेयर किया है. जो जानकारी अभी वेबसाइट पर उपलब्ध है, उससे ये पता चलता है कि किस शख्स ने कितने का इलेक्टोरल बॉन्ड, कब खरीदा है. इसके अलावा जो दूसरी फाइल है कि उसमें इलेक्टोरल बॉन्ड को भुनाने वाली राजनीतिक पार्टियों की जानकारी है. लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड नंबर का उल्लेख न होने के चलते दोनों जानकारियों का कोई मिलान नहीं हो रहा है.
आम वोटर के लिए क्या है मुश्किल?
अभी वोटरों के सामने जो दुविधा है, उसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. मसलन अभी चुनाव आयोग की वेबसाइट से पता चलता है कि 'A' नाम के शख्स ने 1000 रुपये का इलेक्टोरल बॉन्ड अमुक तारीख को खरीदा है. जानकारी के दूसरे सेट से पता चल जाता है कि 'B' नाम की राजनीतिक पार्टी ने 1000 रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड को भुनाया है. तब भी ये पुख्ता तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि B को जो पैसा मिला है, वो A का ही है. क्योंकि हो सकता है कि C नाम के शख्स ने भी 1 हजार रुपये का इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदा हो. ऐसे में ये सुनिश्चित करने के लिए कि B को जो पैसा मिला है, वो A का है या C का, इलेक्टोरल बॉन्ड नंबर का होना जरूरी है.
SC के फैसले की भावना- क्यों रद्द हुई थी स्कीम
कायदे से देखा जाए तो इलेक्टोरल बॉन्ड नंबर की जानकारी के बिना, सुप्रीम कोर्ट के इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को रद्द करने के फैसले का कोई मतलब नहीं रह जाता. 15 फरवरी को संविधान पीठ ने इस स्कीम को रद्द ही इस आधार पर किया था कि वोटर को जानने का हक है कि किसने, किसको कितना चंदा दिया. तब संविधान पीठ ने कहा था कि हमारे यहां पैसा और राजनीति का जो गठजोड़ है, उसमें इस बात की पूरी संभावना है कि चंदा सत्तारूढ़ दल के लिए घूस का जरिया बन जाए और इसके एवज में सरकार ऐसी नीतियां बनाए जिससे चंदा देने वाले कॉरपोरेट को फायदा हो. ऐसे में अगर आम वोटर को इस बात की जानकारी रहेगी कि किस पार्टी को किस कॉरपोरेट से कितना पैसा मिला है तो वो ये तय कर सकता है कि सरकारी की किसी नीति के पीछे वजह उसे मिला चंदा तो नहीं है.