चीनी दूतावास में 800 भेड़ लेकर क्यों पहुंचे थे अटल बिहारी वाजपयी? पीएम मोदी ने कब छोड़ा था घर?
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चीनी दूतावास में 800 भेड़ लेकर क्यों पहुंचे थे अटल बिहारी वाजपयी? पीएम मोदी ने कब छोड़ा था घर?

Time Machine on Zee News: बेबाक और निर्भीक अटल बिहारी वाजपयी को हर चीज स्वीकार थी. लेकिन ये बात कभी स्वीकार नहीं थी कि उनके देश के खिलाफ कोई कुछ भी बोल जाए.

चीनी दूतावास में 800 भेड़ लेकर क्यों पहुंचे थे अटल बिहारी वाजपयी? पीएम मोदी ने कब छोड़ा था घर?

Zee News Time Machine: ज़ी न्यूज के खास शो टाइम मशीन में हम आपको बताएंगे साल 1967 के उन किस्सों के बारे में जिसके बारे में आप शायद ही जानते होंगे. ये वही साल था जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी चीनी दूतावास में 800 भेड़ लेकर पहुंच गए थे. इसी साल जामा मस्जिद से पहले मुस्लिम राष्ट्रपति का ऐलान किया गया था. इसी साल इंदिरा गांधी की नाक पर चोट भी लगी थी. आइये आपको बताते हैं साल 1967 की 10 अनसुनी अनकही कहानियों के बारे में.

800 भेड़ों के साथ चीनी दूतावास पहुंचे अटल

बेबाक और निर्भीक अटल बिहारी वाजपयी को हर चीज स्वीकार थी. लेकिन ये बात कभी स्वीकार नहीं थी कि उनके देश के खिलाफ कोई कुछ भी बोल जाए. चीन ने भारत पर आरोप लगाया कि भारतीय सैनिकों ने उसके 800 भेड़ और 59 याक चोरी कर लिए हैं और अगर ये भेड़ और याक वापिस नहीं किए गए तो भारत को इसके बुरे परिणाम भुगतने होंगे. चीन के बेतुके आरोप का विरोध जताने का अटल बिहारी वाजपेयी ने नया तरीका निकाला. वो दिल्ली में चीनी दूतावास में भेड़ों का झुंड लेकर ही चले गए. वहां, प्रदर्शनकारियों ने कहा कि अब चीन भेड़ों और याक पर विश्व युद्ध शुरू करेगा. भेड़ों के गले में तख्ते थे जिनपर लिखा था, 'हमें खा लीजिए, लेकिन दुनिया को बचा लीजिए. ये देखकर चीन अधिकारी बौखला गए और उन्होनें भारत सरकार को पत्र लिखकर इसे अपना अपमान और भारत सरकार समर्थित प्रदर्शन बताया. जिसका जवाब तत्कालीन भारत सरकार ने देते हुए लिखा था कि कुछ नागरिकों ने दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किया है लेकिन इसका सरकार से कोई लेना देना नहीं है. यह लोगों का चीन के खिलाफ त्वरित, शांतिपूर्ण और व्यंग्यात्मक प्रदर्शन था. अटल बिहारी वाजपयी उस वक्त 43 साल के सांसद थे!

जब इंदिरा की नाक पर लगी चोट

फरवरी 1967 के चुनावों की बात है. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी घूम घूमकर देशभर चुनाव प्रचार कर रही थीं. 1967 के चुनावों में वो देश के दूरदराज के हिस्सों में गईं. लाखों लोग खुद ब खुद उनका भाषण करने के लिए इकट्ठा होते थे. ऐसे ही चुनाव प्रचार के सिलसिले में जब वो ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर गईं, तो वहां भीड़ में कुछ उपद्रवी भी थे. जिन्होंने इंदिरा के भाषण शुरू करते ही उन पर पथराव करना शुरू कर दिया था. तभी एक ईंट का टुकड़ा आकर उनकी नाक पर लगा. इंदिरा की नाक से खून बहने लगा. सुरक्षा अधिकारी उन्हें मंच से हटा ले जाना चाहते थे. मगर इंदिरा ने किसी की नहीं सुनी. इंदिरा खून से डूबी नाक को रूमाल से दबाए, निडरता से भीड़ के सामने भाषण देती रहीं. उन्होंने उपद्रवियों को फटकारते हुए कहा कि ये मेरा अपमान नहीं है बल्कि देश का अपमान है. क्योंकि प्रधानमंत्री होने के नाते मैं देश का प्रतिनिधित्व करती हूं. इस घटना से सारे देश को गहरा झटका लगा है. इस घटना के बाद उनके स्टाफ और सुरक्षाकर्मियों ने उनसे दिल्ली लौटने का अनुरोध किया लेकिन इंदिरा नहीं मानी और टूटी नाक पर पट्टी लगवा अगली रैली के लिए कोलकता रवाना हो गई.

नरेंद्र मोदी ने छोड़ा घर

आज पूरी दुनिया में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कितनी है, ये सबको पता है. पीएम मोदी की सफलता के पीछे उनके संघर्ष का वो अतीत है. जिसका एक पन्ना साल 1967 में खुला. क्या कभी किसी ने सोचा था कि एक चाय बेचने वाला कभी देश का पीएम भी बनेगा, जी हां, ये किसी ने सोचा नहीं था. मोदी ने राजनीति शास्त्र में एमए किया. बचपन से ही उनका संघ की तरफ खासा झुकाव था और गुजरात में आरएसएस का मजबूत आधार भी था. फिर मोदी ने गृहस्थ जीवन का त्याग कर देश सेवा का निर्णय लिया और इसकी शुरूआत साल 1967 से ही हुई. जिस वक्त मोदी ने घर छोड़ा, उस समय वो 18 साल के हुए भी नहीं थे. उसी साल अप्रैल महीने में नरेंद्र मोदी की शादी बगल के ही ब्राह्मणवाड़ा गांव में रहने वाली जशोदाबेन से हुई थी. मोदी में वैराग्य के संकेत पाते ही परिवार ने ये सोचकर नरेंद्र मोदी की शादी जल्दी कर दी थी कि इस बंधन में बंधकर मोदी गृहस्थ जीवन में रम जाएंगे. लेकिन हुआ इसका उल्टा ही, साल 1967 में 17 साल की उम्र में नरेंद्र मोदी घर छोड़कर अहमदाबाद पहुंचे और उसी साल उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्यता ली. नरेंद्र मोदी ने घर छोड़कर हिमालय, ऋषिकेश और रामकृष्ण मिशन सहित पूरे भारत की यात्रा की. फिर धीरे-धीरे राजनीति के सफर की उन्होंने शुरूआत की. आज पीएम मोदी किस मुकाम पर हैं. ये हमें आपको बताने की जरूरत नहीं है.

सांसद जिसे देखकर लगती मरीजों की लंबी लाइन

जब कोई नेता जनता से मिलने के लिए अपने घर से निकलता है तो जनता उसे इस उम्मीद में घेर लेती है कि शायद उनकी समस्याओं का निवारण हो जाए,या उनको आश्वासन मिल जाए. लेकिन 1967 में मध्य प्रदेश के विदिशा से सांसद चुने गए Pandit Shiv Sharma का मामला जरा हटकर था. सांसद शिव शर्मा को देखते ही मरीजों की लंबी लाइन लग जाती थी. शर्मा जी का दौरा लोगों की नब्ज टटोलने में पूरा हो जाता था. दरअसल, शिव शर्मा मूलत: मुंबई के रहने वाले थे और ख्यात आयुर्वेद विशेषज्ञ थे. अपने नाड़ी ज्ञान के कारण वे वर्षों राष्ट्रपति के चिकित्सा दल में शामिल रहे. 1967 में शिव शर्मा ने विदिशा से MP का चुनाव लड़ा और जीत गए. चुनाव के वक्त शिव शर्मा का प्रचार भी आयुर्वेद विशेषज्ञ के रूप में किया गया था. इसलिए जब शिव शर्मा चुनाव जीते तो लोग उनके पास अपनी समस्याएं नहीं बिमारी लेकर आते थे. शर्मा मुंबई से हर तीसरे महीने विदिशा लोकसभा क्षेत्र के दौरे पर आते थे और जहां रूकते थे वहीं अपना अस्पताल जमा लेते थे. विदिशा में शिव शर्मा का ज्यादा वक्त मरीजों की नब्ज टटोलने में ही निकल जाता था. उनके विदिशा आने की खबर मिलते ही दूरदराज के भी मरीज बैलगाडिय़ों से विदिशा पहुंचते थे और घंटों लाइन में लगकर अपनी बीमारी बताते थे. शिव शर्मा भी संयम के साथ लोगों की बातें सुनते और उनका इलाज करते.

जामा मस्जिद से किया गया मुस्लिम राष्ट्रपति का ऐलान

आजाद भारत के तीसरे और पहले मुस्लिम राष्ट्रपति के तौर पर डॉ. जाकिर हुसैन ने 13 मई 1967 को राष्ट्रपति बनने की शपथ ली. लेकिन क्या आप जानते हैं कि जाकिर हुसैन की जीत का ऐलान जामा मस्जिद से किया गया था. जाकिर हुसैन ने अपने प्रतिद्वंद्वी के सुब्बाराम को लगभग 1 लाख 8 हजार वोटों से हराया था. जाकिर हुसैन को 8,38,170 वोटो में से 4,71,244 वोट मिले थे, जबकि के सुब्बाराम को 3,63,971 वोट मिले थे. उस वक्त जाकिर हुसैन को बधाई देने सबसे पहले इंदिरा गांधी पहुंची थीं. 6 मई, 1967 की शाम ऑल इंडिया रेडियो के जरिये जाकिर हुसैन की जीत के बारे में सूचना दी गई. दिल्ली की जामा मस्जिद से भी डॉ. जाकिर हुसैन की जीत का ऐलान किया गया था. जर्मनी के बर्लिन से अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले डा जाकिर को सिर्फ 23 साल की उम्र में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की स्थापना की थी. 1963 में जाकिर हुसैन को भारत रत्न से सम्मानित किया गया था. 1967 में उन्हें राष्ट्रपति बनाया गया. डा. जाकिर हुसैन का राष्ट्रपति शासन काल सिर्फ 2 साल का था और पद पर रहते हुए ही 1969 में उनका निधन हो गया था.

शास्त्री की 'अंतिम ख्वाहिश'

11 January 1966 को देश ने एक ऐसे कोहिनूर हीरे को खोया जिसके जाने से पूरे हिंदुस्तान की आंखों में नमी थी. वो थे लाल बहादुर शास्त्री. लेकिन क्या आप जानते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री की एक ख्वाहिश फिल्म अभिनेता मनोज कुमार ने पूरी की थी. दरअसल शास्त्री जी मनोज कुमार के देशभक्ति किरदारों से काफी प्रभावित थे. 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद मनोज कुमार किसी फिल्म के सिलसिले में उस वक्त प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी से मिलने गए थे. शास्त्री जी ने मनोज कुमार से कहा कि उन्होंने जो नारा ‘जय जवान जय किसान’ देश को दिया है, उस पर एक फिल्म बनाई जानी चाहिए ताकि किसानों की देशभक्ति और मेहनत से जनता रूबरू हो सके. लाल बहादुर शास्त्री जी की सलाह पर मनोज कुमार ने भी विचार किया. कुछ दिन बाद उन्होंने फिल्म ‘उपकार’ की स्क्रिप्ट तैयार कर ली. उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से एक ऐसी कहानी लिखी जिसके जरिए किसाद को देशभक्त के रूप में दिखाया जाए. फिल्म की कहानी लिखने के बाद इसकी कास्ट फाइनल की गई जिसमें प्रेम चोपड़ा, आशा पारेख और प्राण को फाइनल किया गया. खास बात ये थी कि इस फिल्म का निर्देशन और फिल्म में अभिनय भी खुद मनोज कुमार ने ही किया. फिल्म का गाना  ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ जबरदस्त हिट हुआ.

'कलवरी' ने बढ़ाया भारत का दबदबा

8 दिसंबर 1967 की तारीख.. वो तारीख है जिसे देश की सुऱक्षा और हिफाजत करने के लिए खास तौर से याद किया जाता है. क्योंकि इसी दिन भारत में कलवरी आई और कलवरी के आने से पूरी दुनिया को भारत की ताकत का अंदाज़ा लग गया. कलवरी, मतलब भारत की पहली 'पनडुब्बी' जिसे भारतीय नौ सेना में 1967 में शामिल किया गया था. 8 दिसंबर 1967 को कलवरी भारतीय नौसेना में शामिल हुई. भारतीय नौसेना की पहली ‘कलवरी’ पनडुब्बी को सोवियत संघ से खरीदा गया था. कलवरी 'टाइप 641' क्लास की पहली पनडुब्बी थी. इसे 'नाटो' ने 'फोक्सट्रॉट' क्लास नाम दिया था. सोवियत संघ ने लातविया के रिगा बंदरगाह पर ‘कलवरी’ भारतीय नौसेना को सौंपी थी. इसका नाम हिंद महासागर में पाई जाने वाली खतरनाक टाइगर शार्क के नाम पर रखा गया. इसके बाद विभिन्न श्रेणियों की बहुत सी पनडुब्बियां नौसेना का हिस्सा बनीं. देश की पहली पनडुब्बी तीस साल के गौरवशाली इतिहास के बाद साल 1996 में 31 मार्च को रिटायर हो गई.

चंदे से विधायक बने मुलायम!

समाजवादी पार्टी के कर्ताधर्ता मुलायम सिंह यादव ने 1967 में अपने राजनीतिक सफर के पथ पर साइकल दौड़ाना शुरू कर दिया था. 1967 का विधानसभा चुनाव हो रहा था. मुलायम के राजनीतिक गुरु नत्‍थू सिंह तब जसवंतनगर के विधायक थे. उन्होंने अपनी सीट से मुलामय को उतारा और राम मनोहर लोहिया से पैरवी की और उनके नाम पर मुहर लग गई. अब मुलायम सिंह जसवंत नगर विधानसभा सीट से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे. नाम की घोषणा होते ही मुलायम सिंह चुनाव प्रचार में जुट गए. लेकिन मुलायम के पास प्रचार के लिए कोई संसाधान नहीं था. डॉ. संजय लाठर की किताब के मुताबिक, मुलायम के दोस्त दर्शन सिंह ने उनका साथ दिया. दर्शन सिंह साइकिल चलाते और मुलायम कैरियर पर पीछे बैठकर गांव-गांव जाते. दोनों के पास पैसे नहीं थे. ऐसे में दोनों लोगों ने मिलकर एक वोट, एक नोट का नारा दिया. वो चंदे में एक रुपया मांगते और उसे ब्‍याज सहित लौटने का वादा करते. इस बीच चुनाव प्रचार के लिए एक पुरानी अंबेस्‍डर कार खरीदी. गाड़ी तो आ गयी, लेकिन उसके लिए ईंधन यानी तेल की व्‍यवस्‍था कैसे हो. इसके बाद मुलायम सिंह यादव के गांव वालों ने फैसला लिया कि हम हफ्ते में एक दिन एक वक्त खाना खाएंगे औऱ उससे जो अनाज बचेगा, उसे बेचकर अंबेस्डर में तेल भराएंगे. इस तरह कार के लिए पेट्रोल का इंतजाम हुआ और फिर सियासत के अखाड़े की पहली लड़ाई मुलायम सिंह जीते और सिर्फ 28 साल की उम्र में प्रदेश के सबसे के उम्र के विधायक बने.

भारत के चक्रव्यूह में फंसा चीन

1962 में चीन के साथ भारत की तकरार हुई. भले ही चीन ने छल शह मात का खेल खेला था. लेकिन इस बार भारत के चक्रव्यूह में चीन के फंसने की बारी थी. साल था 1967...जब भारत ने चीन को ऐसा जवाब दिया कि पूरी दुनिया देखती रह गई. दरअसल चीन  के सैनिकों ने 13 अगस्त 1967 को नाथू ला में भारतीय सीमा से सटे इलाकों में गड्ढा खोदना शुरू किया था. इस दौरान कुछ गड्ढे सिक्किम के अंदर खोदे जाते देख भारतीय जवानों ने चीनी कमांडर से अपने सैनिकों को पीछे हटने के लिए कहा. इसके बाद 1 अक्टूबर को नाथू ला से थोड़ी दूर चो ला में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई. कुछ जवानों की शहादत के बावजूद भारत ने तब भी चीन को करारा जवाब दिया था और चीन को अपने इरादों के साथ पीछे धकेल दिया था. तब भारतीय सेना के ऐसे तेवर देखकर चीन भी हैरान रह गया था. उस समय भारत के 80 सैनिक शहीद हुए थे, जबकि चीन के 300 से 400 सैनिक मारे गए थे.

बिना पीएम परमिशन चीन पर बरसाएं गोले

1967 की भारत-चीन लड़ाई में कई वीर योद्धाओं के नामो का जिक्र होता है और उन्हीं में से एक हैं जनरल सगत सिंह.. जिन्होनें भारत-चीन युद्ध के वक्त प्रधानमंत्री की परमिशन का मुंह ना देखते हुए चीनी सेना की तरफ तोप से फायरिंग करनी शुरू कर दी थी. 1967 में चीन ने भारत को धमकी दी थी कि सिक्किम की सीमा पर स्थित नाथू ला और जेलेप ला की सीमा चौकियां भारतीय सैनिक खाली कर दें. भारतीय सेना के कोर मुख्यालय के प्रमुख जनरल बेवूर ने जनरल सगत सिंह को उस वक्त आदेश दिया कि वो इन चौकियों से हट जाए. लेकिन जनरल सगत सिंह नहीं माने और अपनी टुकड़ी के साथ वहीं डटे रहे और बार्डर पर बाड़ लगाना शुरू कर दिया. जनरल सगत सिंह का ये रवैय्या, चीनी सैनिकों को जरा भी बर्दाश्त नहीं हुआ और वो भारतीय सैनिकों से उलझने लग गए. बातों ही बातों में बात हाथापाई और गोलीबारी पर आ गई. चीनी सैनिकों ने भारतीय सैनिकों पर गोलीबारी शुरू कर दी. जिसके बाद जनरल सगत सिंह ने भारतीय सेना प्रमुख जनरल बेवूर से तोप चलाने की परमिशन मांगी. लेकिन जनरल बेवूर ने मना कर दिया, क्योंकि प्रधानंमत्री के आदेश के बिना तोप किसी अन्य देश पर नहीं चलाई जा सकती थी. प्रधानमंत्री की परमिशन न मिलने और तत्काल चीनी सैनिकों के वार को देखते हुए जनरल सगत सिंह ने चीनी सैनिकों की तरफ तोप का मुंह कर दिया और उनपर बमबारी शुरू कर दी. जिसमें 300 चीनी सैनिक मारे गए तो तो वहीं भारत के 65 जवान भी शहीद हुए थे. लेकिन इस लड़ाई ने भारतीय सैनिकों के मन से चीनी सैनिकों के शोर्य का सारा डर खत्म कर दिया था.

रेडियो पर आया पहला कमर्शियल एड

भारत के आधुनिक युग का दौर देश की आजादी के बाद तेज़ी से बढ़ रहा था. 60 के दशक में तो पहले टीवी की शुरूआत हुई.  फिर धीरे धीरे रेडियो पर विज्ञापनों का भी शुभारंभ हो गया. भारत में, 1927 में बॉम्बे और कलकत्ता में दो निजी ट्रांसमीटरों के साथ रेडियो प्रसारण शुरू किया गया था. 1930 में सरकार ने उन्हें अपने अधिकार में ले लिया और भारतीय प्रसारण सेवा के नाम से काम करना शुरू कर दिया और फिर 1936 में, इंडियन ब्रॉडकास्टिंग सर्विस यानि भारतीय प्रसारण सेवा से इसका नाम बदलकर ऑल इंडिया रेडियो कर दिया गया. इसके बाद प्रयोग करने के मकसद से 1967 में बॉम्बे, नागपुर और पुणे स्टेशनों पर कमर्शियल विज्ञापनों की रेडियो पर शुरूआत हुई.

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