कभी कॉकरोच देखकर डरती थीं, अब लावारिश शवों का करती हैं अंतिम संस्कार; 26 साल की पूजा के साहस को सलाम
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कभी कॉकरोच देखकर डरती थीं, अब लावारिश शवों का करती हैं अंतिम संस्कार; 26 साल की पूजा के साहस को सलाम

26 साल की पूजा शर्मा कभी सोच भी नहीं सकती थीं कि जो वह कभी एक कॉकरोच को देखकर भी दूर भाग जाती थीं, आज अपना पूरा दिन मुर्दाघरों और श्मशानों में गुजारती हैं.

कभी कॉकरोच देखकर डरती थीं, अब लावारिश शवों का करती हैं अंतिम संस्कार; 26 साल की पूजा के साहस को सलाम

26 साल की पूजा शर्मा कभी सोच भी नहीं सकती थीं कि जो वह कभी एक कॉकरोच को देखकर भी दूर भाग जाती थीं, आज अपना पूरा दिन मुर्दाघरों और श्मशानों में गुजारती हैं, लावारिस शवों को अंतिम विदाई देती हैं.

पूजा अब भले ही मृतकों के साथ काफी समय बिताती हों, लेकिन उन्हें सम्मानपूर्वक विदाई देना उनका जुनून बन चुका है. अपने मारे गए भाई के अंतिम संस्कार में परिवार में कोई पुरुष सदस्य न होने के कारण उन्हें ही ये जिम्मेदारी संभालनी पड़ी थी. इसके बाद से उन्हें उन लोगों का ख्याल सताने लगा, जिनके पास अंतिम संस्कार के लिए कोई परिवार या रिश्तेदार नहीं है. उन्होंने इस काम को अपना मिशन बना लिया और दावा करती हैं कि 2022 से अब तक वह 4 हजार से ज्यादा लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुकी हैं.

कैसे इस काम में आई पूजा?
पूजा बताती हैं कि 2022 में मां की बीमारी से मौत के बाद मेरे बड़े भाई की हत्या हो गई. इससे मेरे पिता सदमे में कोमा में चले गए. पहली बार मुझे परिवार में एक पुरुष की भूमिका निभानी पड़ी. भाई के अंतिम संस्कार में मुझे ही पगड़ी पहनकर रस्में पूरी करनी पड़ीं. यहीं से मुझे लगा कि अगर मैं अपने भाई के लिए ये सब नहीं कर पातीं तो क्या होता? उसी वक्त मैंने समझा कि ऐसे कितने लोग होंगे, जो अकेले दुनिया छोड़कर चले जाते हैं. मैंने उन्हीं के लिए परिवार बनने का फैसला किया.

जाति और धर्म का भेदभाव नहीं
पूजा ने जाति और धर्म का भेदभाव किए बिना अब तक 4 हजार अधिक मृतक लोगों का अंतिम संस्कार किया है. अगर कभी किसी मरे हुए व्यक्ति का धर्म पता चल पाता है तो उसी धर्म के अनुसार रस्में की जाती हैं. पूजा बताती हैं कि पिछले साल एक अज्ञात शव का अंतिम संस्कार करने के कुछ महीने बाद उस शख्स का परिवार मुझसे मिला. उन्होंने बताया कि उनका बेटा घर से चला गया था और वो उसे ढूंढ नहीं पाए थे. उन्होंने मेरा आभार व्यक्त किया जिससे मुझे लगा कि मैं सही रास्ते पर हूं.

एक शव पर 2200 का खर्च
पूजा अस्पतालों की मोर्चरी से संपर्क में रहती हैं जहां से उन्हें लावारिस शवों की सूचना मिलती है. वे शव को श्मशान घाट तक पहुंचाने के लिए गाड़ी का इंतजाम करती हैं. उन्होंने बताया कि एक शव के अंतिम संस्कार में करीब 2,200 रुपये का खर्च आता है.

दादी और पिताजी करते हैं मदद
पूजा ने सोशल वर्क में मास्टर्स किया है और दो साल पहले सफदरजंग अस्पताल में एचआईवी काउंसलर की नौकरी छोड़कर वो इस मिशन में पूरी तरह जुट गईं. वो बताती हैं कि मेरी दादी शहीद की पत्नी होने के नाते मिलने वाली पेंशन से मेरी मदद करती हैं. दिल्ली मेट्रो में कॉन्ट्रैक्ट ड्राइवर के रूप में काम करने वाले पिताजी भी उन्हें मदद देते हैं.

ब्राइट द सोल फाउंडेशन
उन्होंने अब तक इस काम पर अपनी सारी जमा पूंजी खर्च कर दी है. पूजा ने कहा, "मैंने अपनी ज्यादातर चीजों पर खर्च कम कर दिया है ताकि इस काम के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसे बचा सकूं. खुशी की बात है कि मेरे इस साहस को देखते हुए अब कुछ लोग मुझे आर्थिक मदद भी दे रहे हैं." पूजा ने 'ब्राइट द सोल फाउंडेशन' नाम से एक NGO भी शुरू किया है, जो आम समुदायों से निकाल दिए गए लोगों के कल्याण के लिए काम करता है. उनका लक्ष्य लोगों को प्रेरित और सशक्त बनाना है.

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