कब और कैसे हुई पिनकोड की शुरुआत, किसने इस विशेष कोड को नंबरों में पिरोया?
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कब और कैसे हुई पिनकोड की शुरुआत, किसने इस विशेष कोड को नंबरों में पिरोया?

Zee News Time Machine: शिमला समझौता के दौरान पाकिस्तान से बेनजीर भुट्टो जब भारत आईं, तो उनपर उनकी खूबसूरती भारी पड़ी थी.

कब और कैसे हुई पिनकोड की शुरुआत, किसने इस विशेष कोड को नंबरों में पिरोया?

Time Machine on Zee News: ज़ी न्यूज के खास शो टाइम मशीन में हम आपको बताएंगे साल 1972 के उन किस्सों के बारे में जिसके बारे में शायद ही आपने सुना होगा. ये वही साल है जब गणतंत्र दिवस पर परेड शुरू होने से पहले इंदिरा गांधी खुली जीप में राजपथ पहुंचीं थीं. इसी साल भारत-पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता हुआ था. ये वही साल है जब गांधीवादी नेता डॉ. सुब्बाराव के कहने पर चंबल के 650 डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया था. इसी साल पिन कोड की शुरुआत हुई थी. आइये आपको बताते हैं साल 1972 की 10 अनसुनी अनकही कहानियों के बारे में.

गणतंत्र परेड रद्द करने की वकालत

दिंसबर 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की अभूतपूर्व विजय के बाद तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी पाकिस्तान के खिलाफ जंग में भारतीय सेना की शानदार जीत का उत्सव मनाना चाहती थीं. इंदिरा चाहती थीं कि गणतंत्र दिवस के मौके पर वो कुछ ऐसा करें जिससे भारतीय सेना के शौर्य का बखान पूरे विश्व में किया जाए. लेकिन उस वक्त हालात की गंभीरता को देखते हुए सेना मुख्यालय ने उनसे सिफारिश की थी कि उस साल सुरक्षा कारणों से रिपब्लिक डे परेड रद्द कर दी जाए. लेकिन इंदिरा गांधी ने सेना मुख्यालय के प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया. 1972 में गणतंत्र दिवस पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया गया. 26 जनवरी 1972 को परेड शुरू होने से पहले इंदिरा गांधी खुली जीप में राजपथ पहुंचीं. तीनों सेनाओं के प्रमुख के साथ मिलकर इंदिरा ने शहीदों को श्रद्धांजलि दी.

जब हुई पिनकोड की शुरुआत

एक वक्त हुआ करता था जब एक जगह से दूसरी जगह संदेश भेजने के लिए कबूतरों या सैनिकों का इस्तेमाल किया जाता था. उसके बाद चिट्ठी और डाक के जरिए खत लिखे जाने लगे और खत सही जगह पहुंचे उसके लिए पिन कोड सही होना जरूरी था. आज भी चिट्ठी भेजने, कुरियर या मनी ऑर्डर के लिए पिन कोड की जरूरत होती है. पिन कोड की शुरुआत 15 अगस्त 1972 को हुई थी. पिन कोड एक बहुत ही खास नंबर होता है जिस पर हमारा पूरा पोस्टल सिस्टम निर्भर करता है. पिन का मतलब पोस्टल इंडेक्स नंबर होता है. ये 1972 में श्रीराम भीकाजी वेलणकर के द्वारा शुरू किया गया था. पिन कोड 6 नंबरों को मिलाकर बनाया गया ये कोड होता है जो आपके एरिया की पूरी जानकारी देता है. इसका हर नंबर किसी खास एरिया के लिए ही बनाया गया है. इस जानकारी की मदद से ही सही जगह पर सामान की डिलीवरी हो पाती है.

जब बेनजीर भुट्टो के पीछे पड़े लड़के!

साल 1972 में भारत-पाकिस्तान के बीच एक समझौता हुआ, इस समझौते का नाम था शिमला समझौता. लेकिन क्या आप जानते हैं कि पाकिस्तान से बेनजीर भुट्टो जब इस समझौते के दौरान भारत आईं. तो उनपर उनकी खूबसूरती भारी पड़ी थी. दरअसल पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार भुट्टो ने साल 1971 में युद्ध के बाद इंदिरा गांधी के पास बातचीत का संदेश भिजवाया. इंदिरा ने बात आगे बढ़ाने का फैसला लिया और 28 जून से 2 जुलाई के बीच शिमला में शिखर वार्ता तय हुई. 3 जुलाई 1972 को आखिरकार शिमला समझौता हुआ. लेकिन इस समझौते से जुड़ा एक और मजेदार किस्सा भी है, इस यात्रा में जुल्फिकार भुट्टो के साथ उनकी पत्नी को आना था. लेकिन बीमार होने के चलते भुट्टो अपनी बेटी बेनजीर को लेकर आए. बेनजीर उस समय महज 18 साल की थीं. जुल्फिकार भुट्टो ने अपने प्रेस सचिव और शिमला आए पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के सदस्य खालिद हसन को हर समय बेनजीर के साथ रहने को कहा. लोग बेनजीर को एक नजर देखने के लिए दीवाने थे. बेनजीर भुट्टो की जीवनी - डॉटर ऑफ ईस्ट में भी इसका जिक्र है कि शिमला के लोग बेनजीर की झलक देखने के लिए बेताब थे. बेनजीर जब अपने पिता के साथ शिमला आईं तो उनके स्वागत कार्यक्रम के फोटो अखबारों में छप गए. खालिद हसन के साथ बिना सुरक्षा के घूमने निकलीं बेनजीर को शिमला में लोगों ने पहचान लिया. वो जहां-जहां जातीं भीड़ उनके पीछे दिखाई देती. हसन ने अपनी किताब में लिखा है कि उस दौरान शिमला में बेनजीर की चर्चा उनके पिता से ज्यादा हुई. हसन ने लिखा है कि इस भीड़ में कई पत्रकार भी शामिल थे. वह उनका इंटरव्यू करना चाहते थे. सिर्फ एक भारतीय पत्रकार दिलीप मुखर्जी को उनसे मिलने की अनुमति दी गई थी, वो भी इसलिए क्योंकि उन्होंने भुट्टो की जीवनी लिखी थी.

650 डाकुओं ने किया आत्मसमर्पण

गांधीवादी नेता और चंबल को डकैतों से मुक्त कराने वाले डॉ. एसएन सुब्बाराव का पूरा जीवन समाजसेवा को समर्पित रहा. डॉ. सुब्बाराव ने 14 अप्रैल 1972 को जौरा के गांधी सेवा आश्रम में 650 डकैतों का आत्मसमर्पण कराया था. चंबल के खूंखार डाकू माधो सिंह को आत्मसमर्पण करवाते वक्त सुब्बाराव सुर्खियों में आए, सरकार और डाकुओं के बीच बात करवाते हुए डाकुओं ने सुब्बाराव के सामने कई शर्त रखी. जैसे, सरेंडर करने वाले डाकुओं को खुली जेल में रखा जाएगा. जहां वो अपने परिवार के साथ रह सकेंगे. वो जेल के कैदी के तरह नहीं रहेंगे तथा खेतीबाड़ी करेंगे और सामान्य जीवन बिताएंगे. समर्पण के बाद उनके बच्चों को पुलिस में नौकरी दी जाएगी, जिससे वे समाज की मुख्य धारा से जुड़ सकें. जीवनयापन करने के लिए उनको उनके गांव में ही खेती दी जाएगी, जिससे वह सम्मानपूर्वक अपना व अपने परिवार का जीवनयापन कर सकें. सरेंडर से पहले चंबल का लगभग 300 किलोमीटर का क्षेत्र शांति क्षेत्र घोषित किया जाए, जहां डाकू आसानी से आ-जा सकें. सरकार ने कुछ नियमों के साथ डाकुओं की शर्त को मान लिया और सुब्बाराव को इसके लिए धन्यवाद भी दिया.

राजीव गांधी को हीरो बनने के लिए मिले 5 हजार!

गांधी परिवार और बच्चन परिवार के रिश्ते आज भले चाहे जैसे हों. लेकिन एक वक्त वो भी था जब गांधी परिवार बच्चन परिवार के बेहद करीब हुआ करता था. बात उन दिनों की है, जब अमिताभ मायानगरी में अपना नाम बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. तब भी राजीव उनके साथ मजबूती से खड़े थे. अक्सर राजीव गांधी, अमिताभ से मिलने फिल्म के सेट पर जाया करते थे और घंटों इंतजार करते थे. वह अपना पूरा नाम नहीं बताते थे, बल्कि सिर्फ राजीव कहकर परिचय दिया करते थे. उन्हें लगता था कि पूरा नाम बताने से लोग अलग तरह से खास व्यवहार करने लगेंगे, क्योंकि वो प्रधानमंत्री के बेटे थे. उस दौर में अमिताभ नाम बनाने में लगे थे. तो वहीं मशहूर कॉमेडियन एक्टर महमूद बुलंदियों पर थे. अमिताभ महमूद के भाई अनवर के रूम पार्टनर थे. इसी बीच एक दिन अमिताभ राजीव गांधी के साथ अपने रूम पर पहुंचे. उस वक्त अनवर के साथ महमूद भी मौजूद थे. जब राजीव और अमिताभ उनसे मिलने पहुंचे तो महमूद के छोटे भाई अनवर ने दोनों से उनका परिचय करवाया. पर महमूद उस समय कुछ समझ नहीं पाए कि उनसे क्या कहा गया. महमूद ने पांच हजार रुपए निकाले और अनवर को दिए और कहा कि ये पैसे अमिताभ के दोस्त को दे दो. नेता-अभिनेता: बॉलीवुड स्टार पावर इन इंडियन पॉलिटिक्स किताब के मुताबिक, महमूद ने कहा वो शख्स अमिताभ से कहीं ज्यादा स्मार्ट है और एक दिन जरुर इंटरनेशनल स्टार बनेगा. वो नौजवान उनके नए प्रोजेक्ट का हिस्सा है और ये उसका साईनिंग अमाउंट है. वो नौजवान कोई और नहीं बल्कि राजीव गांधी ही थे. इसके बाद अनवर ने महमूद को फिर से बताया कि ये राजीव हैं. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे हैं. तब जाकर महमूद को सब समझ में आया.

बाघ को बनाया गया राष्ट्रीय पशु

शालीनता, दृढ़ता, फुर्ती और अपार शक्ति की वजह से 'रॉयल बंगाल टाइगर' को 1972 में भारत का राष्ट्रीय पशु बनाया गया. इसका वैज्ञानिक नाम 'पैंथेरा टिगरिस -लिन्नायस' है. क्योंकि देश के बड़े हिस्सों में इन टाइगर्स की मौजूदगी है इसी के कारण ही इसे भारत के राष्ट्रीय पशु के रूप में चुना गया. बाघ भारत के वन्यजीवन की समृद्धि का प्रतीक है. बाघ का शरीर मजबूत और रंग भूरा होता है जिसमें काले रंग की पट्टियां होती हैं. बाघ का यही रूप इसे जंगलो में छुपकर शिकार करने में बहुत मदद करता है. बाघ भारत के उत्तर-पश्चिम भाग को छोड़कर बाकी सारे देश में पाया जाता है. एक वयस्क बाघ छह मीटर से भी अधिक दूरी तक छलांग लगा सकता है और पांच मीटर की ऊंचाई तक उछल सकता है. बाघ की टांगें घोड़े के समान मजबूत होती हैं. कैट फैमिली के अन्य जानवरों के समान ही बाघ भी पानी में खेलने और तैरने का शौकीन होता है. बाघ मछलियों के शिकार के लिए कई किमी. तक तैर सकते हैं .

जब प्रज्जवलित हुई अमर जवान ज्योति

3 दिसंबर से 16 दिसंबर, 1971 तक भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध चला, जिसमें भारत की जीत हुई और बांग्लादेश अस्तित्व में आया. इस दौरान, भारत के कई वीर जवानों ने प्राणों का बलिदान दिया. जब 1971 युद्ध खत्म हुआ तो 3,843 शहीदों की याद में एक अमर ज्योति जलाने का फैसला हुआ. जिसे जलाने के लिए दिल्ली के इंडिया गेट को चुना गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 26 जनवरी 1972 को अमर जवान ज्योति को प्रज्जवलित किया. तभी से तीनों सेनाओं के प्रमुख और देश-विदेश से आने वाले प्रतिनिधि अमर जवान ज्योति पर जाकर अपना सिर झुकाते हैं और शहीदों का सम्मान करते रहे हैं. गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस जैसे सभी महत्वपूर्ण दिनों में भी, तीनों सेनाओं के प्रमुख अमर जवान ज्योति पर उपस्थिति भी दर्ज कराते रहे हैं.

मीना कुमारी की आखिरी फिल्म

एक कहानी के जरिए हमेशा के लिए अमर होने वाली मीना कुमारी उन अभिनेत्रियों में से एक थीं, जो आईं और सिनेमा के ऐतिहासिक पन्नों में समा गईं. साल 1972 में आई पाकीजा फिल्म कहने को तो मीना कुमारी की आखिरी फिल्म थी. पर क्या आप जानते हैं कि इस फिल्म को बनाने में करीब 14 से 15 साल लगे. निर्माता निर्देशक कमाल अमरोही के लिए ये फिल्म किसी ख्वाब से कम नहीं थी. मीना कुमारी के प्यार में गिरफ्तार कमाल अमरोही एक मास्टरपीस बनाना चाहते थे. पर अफसोस दोनों के संबंध आगे चलकर बिगड़ने लगे और 'पाकीज़ा' की शूटिंग रुक गई. इस रुकावट की एक वजह धर्मेंद्र भी थे. जो फिल्म में लीड रोल के लिए फाइनल थे. लेकिन धर्मेंद्र भी मीना कुमारी के इश्क में थे. इसीलिए फिल्म के कुछ सीन शूट करने के बाद धर्मेंद्र को हटाकर फिल्म में राजकुमार को लिया गया. अब क्योंकि उस दौर में फिल्म शूट करना काफी महंगा था. ऐसे में फिल्म में धर्मेंद्र के कुछ सीन रह गए और कुछ सीन को फिल्म से हटा लिया गया. फिल्म पर कमाल अमरोही ने 1958 में ही काम शुरू कर दिया था. लेकिन इसे बनाने में करीब 14 साल से ज्यादा का वक्त लगा और इस फिल्म के लिए मीना कुमारी ने सिर्फ 1 रुपए फीस ली. हालांकि फिल्म रिलीज के बाद मीना कुमारी भी चल बसीं. पाकीजा के जरिए मीना कुमारी हमेशा के लिए अमर हो गईं.

मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा का स्थापना दिवस

आजादी के बाद कई राज्यों का गठन हुआ. भाषा के आधार पर राज्य बनाए गए. साल 1972 में पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा को आखिरकार अलग-अलग राज्यों का दर्जा मिला. 21 जनवरी, 1972 वो तारीख है जब इन तीनों राज्यों की स्थापना की गई. इनकी स्थापना पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम, 1971 के तहत हुई और तीनों राज्यों को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान किया गया. हालांकि इन राज्यों का भारत का विलय आजादी के वक्त ही हो गया था. पर इन्हें पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला. जो साल 1972 में किया गया.

जम्मू पहुंची भारत की स्वतंत्र ट्रेन!

भारतीय रेल जो आज दुनिया के सबसे बड़े रेल नेटवर्क में शुमार है. पूरे देश में आज अलग-अलग शहरों को जोड़ती है और हमारी जीवन का अहम हिस्सा है. कई वर्षों तक जम्मू और कश्मीर पहुंचने के लिए रेलवे का साधन नहीं था. पर फिर साल 1972 में वो हुआ जिसका इंतजार सभी को लंबे वक्त तक रहा. वो तारीख थी 2 दिसंबर जब जम्मू में पहली बार स्वतंत्र भारत की ट्रेन पहुंची. एक दिसंबर को नई दिल्ली से चली श्रीनगर एक्सप्रेस 2 दिसंबर को जाकर जम्मू रेलवे स्टेशन पहुंची. ये वही ट्रेन है जिसे अब हम झेलम एक्सप्रेस के नाम से जानते हैं. स्वतंत्र भारत में ये पहला मौका था जब जम्मू में कोई ट्रेन यात्रियों को लेकर पहुंची थी. इसमें केंद्र और राज्य सरकार के मंत्री सवार होकर इस ऐतिहासिक पल के गवाह बने थे. इससे पहले ट्रेनों का सफर सिर्फ पठानकोट तक ही था और यात्री वहीं तक जा पाते थे.

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