नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश की सियासत में जीत हार जातीय आधार पर तय होती है, बिना ये समीकरण साधे सत्ता की बैतरनी पार नहीं लगती. अब जब चुनाव नजदीक है तो सियासी दलों ने अपने फॉर्मूले पर काम करना शुरू कर दिया है, पिछले 9 साल से यूपी की सत्ता से बेदखल बीएसपी अपने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले के साथ फिर से जोर आजमाइश को तैयार है.
मायावती को 14 साल पुराने हिट फॉर्मूले पर भरोसा क्यों?
'ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा' 14 साल पुराना ये नारा तो सभी को याद होगा. 2007 में मायावती को बंपर सीट के साथ इसी फॉर्मूले ने फिर से सत्ता के शिखर तक पहुंचाया था, लेकिन उसके बाद 9 साल से बीएसपी सत्ता के लिए संघर्ष ही कर रही है. 2022 के चुनाव में मायावती को फिर से अपने पुराने फॉर्मूले की याद आई है और ब्राह्मण वोट को साधने की कवायद शुरू हो चुकी है.
इसके लिए 2007 की तर्ज पर ही ब्राह्मण सम्मेलन की तैयारी है. जिसकी शुरुआत राम की नगरी अयोध्या से हो रही है, 2007 में ब्राह्मणों को लाने के लिए मायावती ने उस वक्त 'हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश है' और 'ब्राह्मण शंख बजाएगा हाथी बढ़ता जाएगा'.. जैसे नारे गढ़े थे. ये नारा और फॉर्मूला कामयाब भी रहा, (BMOD) ब्राह्मण, मुसलमान ओबीसी और दलित का गठजोड़ बनाकर मायावती ने 206 सीटों के साथ सरकार बनाई थी. सीटों के लिहाज से ये बीएसपी का एक रिकॉर्ड था.
टिकट बंटवारे में ब्राह्मणों को मिलगी खास तवज्जो
इस बार के चुनाव में बीएसपी ने फिर से ब्राह्मण कार्ड खेलने की तैयारी कर ली है. मायावती की रणनीति में टिकट बंटवारे में ब्राह्मणों को खास तवज्जो दी जाएगी. 2007 के चुनाव में 55 से ज्यादा ब्राह्मणों को टिकट दिया गया था, ब्राह्मणों ने भी बीएसपी के पक्ष में बंपर वोट किया. जिसकी बदौलत 41 ब्राह्मण विधायक बनने में कामयाब रहे. इस बार भी बीएसपी की रणनीति में 100 से अधिक ब्राह्मण चेहरे को टिकट देने की है.
BJP से ब्राह्मणों की नाराजगी, फायदा उठाने की फिराक में BSP
2007 में समाजवादी से ब्राह्मणों की नाराजगी का फायदा बीएसपी को मिला और उसने हाथी को सत्ता तक पहुंचा दिया. इस बार विपक्ष ने ब्राह्मणों को लेकर बीजेपी सरकार के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया है. ब्राह्मणों पर दर्ज SC-ST मुकदमे, अफसरों की नियुक्ति, ट्रांसफर, पोस्टिंग में ब्राह्मणों से भेदभाव का आरोप लगा. खासतौर पर कुख्यात अपराधी विकास दुबे के एनकाउंटर पर भी ब्राह्मण कार्ड खेल दिया गया.
इसके अलावा यूपी मंत्रिमंडल में संख्या के लिहाज से ब्राह्मणों की कम भागीदारी को भी ब्राह्मणों की नाराजगी से जोड़ा गया. बीजेपी ने इसके काट के लिए ब्राह्मणों की उपेक्षा को लेकर मोर्चा बनाने वाले कांग्रेस के जितिन प्रसाद को अपने पाले में लाकर डैमेज कंट्रोल की कोशिश की है, लेकिन इस बार के केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में बीजेपी ने ओबीसी और एससी पर ही फोकस किया और यूपी से ब्राह्मण चेहरे के नाम पर सिर्फ एक अयज मिश्र को मंत्रिमंडल में जगह दी गई. बीएसपी का टारगेट इस वर्ग को अपने पाले में लाने का है.
ब्राह्मणों को साधने के लिए परशुराम की मूर्ति को लेकर होड़
ब्राह्मणों को रिझाने के लिए यूपी की सियासत में होड़ पिछले साल ही शुरू हो गई थी, जब समाजवादी पार्टी ने सत्ता में आने पर सूबे में परशुराम की मूर्ति लगाने का वादा किया तो मायावती भी ब्राह्मणों को रिझाने को लेकर चल रही राजनीति में कूद गई.
मायावती ने कहा कि 'समाजवादी पार्टी को भगवान परशुराम की मूर्ति लगवानी थी तो अपनी सरकार में लगवाते अब क्यों याद आ रही है.' सपा ने लखनऊ में 108 फीट की परशुराम की प्रतिमा लगाने का वादा किया तो जवाब में मायावती ने कहा कि जब प्रदेश में बीसपी की सरकार आएगी तो ब्राह्मणों के देवता परशुराम की सबसे बड़ी मूर्ति बनवाएंगी. यही नहीं पार्क और अस्पताल के नाम भी परशुराम के नाम पर करने का ऐलान कर दिया.
अकेली पड़ी बहनजी के सामने चुनौतियां बड़ी
एक समय जिस बीएसपी का यूपी में जलवा था, वो जलवा अब नहीं दिखता. बीएसपी सुप्रीमो मायावती आज की तारीख में अकेली पड़ती जा रहीं है. 2017 में 19 विधायक जीतने वाली पार्टी के पास सिर्फ 7 विधायक ही बचे हैं, इसकी वजह है कुछ ने पाला बदल लिया और कईयों को मायावती ने पार्टी से बाहर कर दिया.
कभी कांशीराम के साथ मिल कर यूपी में बीएसपी को खड़ा करने और सत्ता में पहुंचाने वाले सहयोगियों में राज बहादुर, आरके चौधरी, दीनानाथ भास्कर, मसूद अहमद, बरखूराम वर्मा, दद्दू प्रसाद, जंगबहादुर पटेल, बाबू सिंह कुशवाहा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी और सोनेलाल पटेल जैसे बड़े नेताओं ने पार्टी से किनारा कर लिया या यूं कहें कि बाहर कर दिए गए.
स्वामी प्रसाद मौर्य, जुगल किशोर, रामवीर उपाध्याय, जयवीर सिंह, ब्रजेश पाठक, रामअचल राजभर, इंद्रजीत सरोज, मुनकाद अली जैसे कद्दावर नेता भी बीएसपी को छोड़कर दूसरे दलों के साथ जुड़ गए. इनमें से ज्यादातर एसपी, बीजेपी और कुछ ने कांग्रेस में अपना राजनीतिक ठिकाना तलाश लिया. बीएसपी के पुराने नेताओं में आज मायावती के साथ सतीश चंद्र मिश्रा, अंटू मिश्रा, सुखदेव राजभर जैसे चंद लोग ही बचे हैं. खबर ये भी है कि विधानसभा चुनावों को देखते हुए अभी कुछ और नेताओं का पालाबदलने का खेल देखने को मिल सकता है, मायावती के सामने अपने कुनबे की ढहती ईंटों को संजोए रखना एक बड़ी चुनौती है.
मुस्लिम वोटर मायावती से क्यों हुआ दूर?
मुस्लिम वोट बैंक पर परंपरागत तौर पर एक समय कांग्रेस का कब्जा हुआ करता था. बाद में समाजवादी पार्टी ने उस पर कब्जा जमा लिया. हालांकि कुछ वक्त के लिए बीएसपी के पाले में भी कुछ तबका जरूर गया, लेकिन आज की तारीख में सियासी हालात काफी बदले हुए हैं. कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मुसलमान समुदाय का बसपा से भरोसा कम हुआ है.
इसके पीछे उनकी आशंका बीजेपी से नजदीकी को लेकर है जैसे अनुच्छेद-370 या सीएए पर मायावती ने खुल कर बात नहीं की, दबी जुबान से बात की. जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटाने का मायावती ने खुलकर समर्थन किया और संसद में सरकार का समर्थन भी किया. यहां तक कि अनुच्छेद-370 के खिलाफ बोलने के चलते अमरोहा के सांसद दानिश अली को लोकसभा में पार्टी के नेता पद से हटा दिया गया. मायावती को पता है कि इस वोट बैंक के लिए कितने भी हाथ पैर मार ले बहुत ज्यादा फायदा नहीं होगा, इसलिए भी मायावती का ज्यादा फोकस ब्राह्मण वोटर्स पर है.
उत्तर प्रदेश चुनाव में ब्राह्मण वोट क्यों है अहम?
यूपी में आप ब्राम्हण वोट को इग्नोर नहीं कर सकते ये अकेले दम पर सरकार तो नहीं बनवा सकते, लेकिन इन्हें दरकिनार कर के भी आप सरकार नहीं बना सकते. सभी दलों के लिए ये सत्ता की चाबी से कम नहीं है यूपी के जातीय समीकरण में करीब 12 फीसदी ब्राह्मण हैं. करीब 1 दर्जन जिलों में इनकी आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है. वाराणसी, चंदौली, महाराजगंज, गोरखपुर, देवरिया, जौनपुर, बस्ती, संत कबीर नगर, अमेठी, बलरामपुर, कानपुर, प्रयागराज में ब्राह्मण मतदाता 15 फीसदी से ज्यादा है. यहां किसी भी उम्मीदवार की हार या जीत में ब्राह्मण वोटर्स का रोल अहम होता है.
यूपी की राजनीति में ब्राह्मण कार्ड की जीत का ट्रैक रिकॉर्ड
पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में ब्राह्मण कार्ड और उम्मीदवारों के जीत के ट्रैक रिकॉर्ड को खंगाले तो बीजेपी के 1993 में 17 विधायक, 1996 के चुनाव में 14, 2002 में 8 विधायक, 2007 में 3 और 2012 में 6 ब्राह्मण विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे. 2017 में भी करीब 44 विधायक ब्राह्मण जाति से चुनकर विधानसभा पहुंचे.
सपा की बात करें तो 1993 में 2 विधायक, 1996 में 3, 2002 में 10 विधायक, 2007 में 11 और 2012 में 21 ब्राह्मण चेहरे जीतकर विधानसभा पहुंचे. 2017 में भी सपा ने 10% ब्राह्मणों को टिकट दिया था.
कांग्रेस के 1993 में 5 विधायक, 1996 में 4, 2002 में 1, 2007 में 2 और 2012 में 3 ब्राह्मण विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे थे जबकि 2017 में कांग्रेस ने 15% ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दिया था.
बीएसपी से 1993 में एक भी विधायक ब्राह्मण जाति से नहीं था लेकिन 1996 में 2, 2002 में 4 विधायक, फिर 2007 के चुनाव में बीएसपी ने अपने सियासी फार्मूले में ब्राह्मणों को ऐसा फिट किया जिसकी बदौलत उसके 41 विधायक चुन कर आए और 206 सीटों के साथ बीएसपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुई.
1990 के आंदोलन से पहले ब्राह्मण कांग्रेस का वोट बैंक होता था. 1990 के आंदोलन के दौरान ब्राह्मणों ने बीजेपी का दामन थामा, जिससे पार्टी सीधे 221 सीट जीतकर सूबे की सत्ता पर काबिज हो गई थी. वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर और ब्राह्मणों का साथ मिलने से लोकसभा की प्रदेश से 73 सीट हासिल की थी.
कुल मिलाकर ब्राह्मण वोटर उत्तर प्रदेश में वोट के हिसाब से एक खास हैसियत रखते हैं और ये जिस तरफ भी मुड़ जाते हैं उस पार्टी की सियासी नैया पार लग जाती है. यही वजह है कि 2022 के सियासी रण में कोई भी दल इनकी नाराजगी का जोखिम नहीं उठाना चाहता.
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