नई दिल्ली: 7 महीने बाद जिन 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें पंजाब भी एक है यूपी के साथ साथ इस राज्य पर भी सबकी नजरें टिकी हैं और चुनाव से ठीक पहले सत्ता पर काबिज कांग्रेस में जो कलह मची उसने सबकी दिलचस्पी इस सूबे की सियासत में और बढ़ा दी है. हालांकि कैप्टन बनाम गुरू की जंग में सिद्धू ने भले ही बाजी मार ली हो लेकिन सियासत के पुराने खिलाड़ी कैप्टन की अगली चाल का सबको इंतजार है सत्ता से बाहर अकाली और बीजेपी की राहें इस बार जुदा हैं आइए समझते हैं क्या है इस बार के पंजाब का सियासी समीकरण, कौन बनेगा पंजाब का किंग?
वाकई कैप्टन और सिद्धू में सुलह हो गई?
पंजाब कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू की ताजपोशी में कैप्टन अमरिंदर सिंह भी पहुंचे दोनों की मुलाकात भी हुई. माना जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी पंजाब यूनिट की कलह और कैप्टन सिद्धू दोनो को साधने में कामयाब रही है, लेकिन सवाल है कि घर में मची कलह के बाद क्या संगठन और सरकार के बीच तालमेल बन पाएगा.
डैमेज कंट्रोल के बाद आगे चुनाव में कांग्रेस की राह क्या होगी, क्या कैप्टन अपमान का घूंट पीकर यूं ही शांत रह जाएंगे. जो लोग कैप्टन को जानते हैं उनके मुताबिक कैप्टन फिलहाल वेट एंड वॉच की रणनीति पर हैं. कैप्टन खामोश रह कर सिद्धू के एक्सपोज होने का इंतजार करेंगे. कैप्टन इंतजार करेंगे कि अगले साल की शुरुआत में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव से पहले ही सिद्धू की कमियां उजागर हो जाएं और आलकमान फिर उन्हें कमान सौंप दे.
भले ही एक मंच पर सिद्धू और कैप्टन को लाकर कांग्रेस ने ये मैसेज देने की कोशिश की हो कि एक ऑल इज वेल, लेकिन जिस तरह से दोनों के बीच लंबी जंग चली संगठन में दरार तो पड़ ही गई है. सिद्धू-कैप्टन विवाद में कांग्रेस काफी हद तक दो फाड़ हो चुकी है. कहा जा रहा है कि पार्टी ने कैप्टन को भरोसा दिलाया है कि सिद्धू सरकार या मंत्रिमंडल में दखल नहीं देंगे और सिर्फ पार्टी संगठन का काम ही देखेंगे.
ऐसे में अगर सिद्धू ने सरकार के कामकाज में दखल देने की कोशिश की तो कैप्टन को मौका मिल जाएगा. कहते हैं ना कि राजनीति में हवा अपने पक्ष में न हो तो सारे फैसले झक मार कर मानने पड़ते हैं और अपने सही समय आने का इंतजार करना पड़ता है ऐसे में देखना होगा कि कैप्टन का अगला कदम क्या होगा.
सिद्धू ने 6 साल पुराने कैप्टन के ही दांव से दी मात
याद कीजिए साल 2015 को जब कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कई विधायकों का समर्थन लेकर कांग्रेस हाई कमान पर दबाव बनाया था और प्रताप सिंह बाजवा को पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटवा कर पार्टी की कमान अपने हाथों में ली थी, आज नवजोत सिंह सिद्धू ने भी वही किया.
आलाकमान से सिद्धू को हरी झंडी मिलने के बाद विधायकों और संभावित उम्मीदवारों को ये लगता है कि सिद्धू उन्हें 2022 के विधानसभा चुनावों में अपनी सीट जीतने में मदद कर सकते हैं, यही वजह है कि जो कल तक कैप्टन को सलाम किया करते थे, आज वे नवजोत सिंह सिद्धू के साथ मिलकर 'ताली ठोक रहे' हैं. 6 साल पहले भी यही हुआ था 2015 में विधायकों का मानना था कि उन्हें जीत की ओर अमरिंदर सिंह ही ले जा सकते हैं न कि बाजवा. अमरिंदर को पार्टी विधायकों और अन्य वरिष्ठ नेताओं से इतना समर्थन प्राप्त हुआ कि बाजवा अलग-थलग पड़ गए और आलाकमान को उन्हें बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा.
अपनी ही सरकार की छीछालेदर कर सिद्धू कैसे करेंगे गुणगान?
7 महीने बाद पंजाब में चुनाव होने हैं, एक बड़ा सवाल पंजाब की सियासी फिजा में घूम रहा है कि जो सिद्धू सत्ता पर काबिज अपनी ही सरकार की जमकर छीछालेदर कर चुके हैं वो जनता के सामने उसका गुणगान किस मूंह से कर पाएंगे. कैप्टन अमरिंदर को बेअदबी, बिजली और ड्रग्स जैसे मुद्दों पर घेरने वाले सिद्धू अब अपनी पार्टी की सरकार के मुखिया को लोगों के सामने कैसे पेश करेंगे.
क्योंकि जाहिर सी बात है कि चुनाव में पार्टी की जीत के लिए सिद्धू जब वोट मांगने जाएंगे तो उन्हें अमरिंदर सरकार के कामकाज की तारीफ करनी होगी. सवाल है कि सिद्धू और कैप्टन के रिश्तों की खटास क्या दूर हो गई है ऐसे में अगर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और उसी पार्टी के मुख्यमंत्री के बीच ही तालमेल नहीं होगा तो चुनाव में कांग्रेस कैसे मजबूती से लड़ पाएगी.
2017 की तरह इस बार भी "सिंह इज किंग" बन पाएंगे कैप्टन?
अपनी पार्टी में भले ही इस बार कैप्टन की ना चली हो, लेकिन इसी कैप्टन ने कांग्रेस को 5 साल पहले जब पंजाब में सत्ता दिलाई थी. जब यूपी समेत कई राज्यों में उसे हार का मूंह देखना पड़ा था उस वक्त कैप्टन अपनी पार्टी और पंजाब में सिंह इज किंग बन कर उभरे थे. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के उभार के बीच बड़ी जीत हासिल की थी.
कांग्रेस ने कैप्टन के नेतृत्व में 117 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 77 सीटों पर जीत का परचम फहराया था. पार्टी को 38.5 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. संगठन के दिग्गज खासकर पार्टी प्रधानों से हमेशा से ही कैप्टन का 36 का आंकड़ा रहा है बावजूद इसके 41 साल के अपने राजनीतिक सफर में पहले भी वह कई मुश्किल दौर से उबर चुके हैं.
लेकिन क्या इस बार कैप्टन पंजाब में दूसरी पारी खेल पाएंगे, क्या इस बार भी 2017 वाला करिश्मा दोहरा पाएंगे कह पाना बड़ा मुश्किल है.
संगठन में बदलाव के जरिए कांग्रेस का जाति कार्ड
सिद्धू-कैप्टन विवाद में सुलह का रास्ता निकालने के साथ कांग्रेस ने पंजाब के जातीय समीकरण को भी साधने की कोशिश की है. सिद्धू के साथ 4 कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाए गए हैं. पार्टी ने जिन 4 नेताओं को कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया है, उनमें कुलजीत नागरा, सुखविंदर सिंह डैनी, संगत सिंह और पवन गोयल शामिल है.
कांग्रेस आलाकमान ने नवजोत सिद्धू के साथ चार कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति करते हुए जाति और क्षेत्रीय संतुलन बनाने की कोशिश की है. सुखविंदर सिंह डैनी माझा क्षेत्र से आने वाले दलित नेता हैं. पंजाब में दलित वोटर्स की अच्छी-खासी संख्या होने के चलते सुखिविंदर सिंह डैनी को अहम जिम्मेदारी दी गई है.
संगत सिंह गिलजियां पंजाब के दोआबा क्षेत्र के पिछड़े समुदाय से आते हैं. वे पंजाब विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक भी लगा चुके हैं. पंजाब के मालवा क्षेत्र से आने वाले कुलजीत सिंह नागरा जाट सिख हैं, तो वहीं पवन गोयल भी मालवा क्षेत्र से आते हैं. अकाली और बीएसपी की काट के लिए कांग्रेस ने ये जाति कार्ड खेलकर हिंदू के साथ साथ दलित और पिछड़े वोटबैंक को साधने की कोशिश की है.
2022 में हिन्दू-दलित वोट पर फोकस क्यों?
पंजाब में इस बार दलित-हिंदू वोटबैंक सियासत का केंद्र बिंदु बनता नजर आ रहा है, सभी दल सत्ता के ध्रुवीकरण की जुगत में हैं. अभी तक यहां शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस दोनों राज्य की कुल आबादी में 19% का हिस्सा रखने वाले जट्टसिखों पर ही दांव लगाते रहे हैं, मगर इस बार सबकी नजर 70% दलित-हिंदू वोट बैंक पर है. जिनके राजनीतिक नसीब में कभी CM की कुर्सी नहीं रही.
अकाली दल का हिंदू और दलित डिप्टी CM का फॉर्मूला सूबे में कांग्रेस के सरकार को रिपीट करने के सपने को तोड़ सकता है. दरअसल, शिरोमणि अकाली दल ने बड़ा सियासी दांव चलते हुए ऐलान कर दिया है कि पंजाब में SAD सरकार बनी तो 2 डिप्टी CM होंगे, 1 हिंदू तो दूसरा दलित.
तो वहीं दलितों और हिंदुओं को पंजाब की सियासत में तरजीह नहीं मिलने का दोष बीजेपी अकाली दल और कांग्रेस पर मढ़ती है और इस 32% दलित वोट बैंक को अपने पक्ष में करने के लिए भाजपा ने अकालियों के अलग होते ही दलित CM बनाने का दांव खेल दिया. बीजेपी का कहना है कि अगर पंजाब विधानसभा चुनावों में बीजेपी सत्ता में आती है, तो राज्य के लिए एक दलित मुख्यमंत्री होगा.” अकाली दल के दलित डिप्टी सीएम के दावे पर बीजेपी मजाक उड़ाते हुए कहती है कि अगर SAD एक दलित को डिप्टी सीएम बना सकती है तो सीएम क्यों नहीं.
25 साल बाद अकाली बीएसपी क्यों आए साथ?
पंजाब के सियासी फलक पर इस बार 25 साल बाद अकाली और बीएसपी एक साथ मिलकर चुनावी ताल ठोक रहे हैं गठबंधन में बीएसपी 20 और अकाली 97 सीटों पर लड़ेगी, इससे पहले 1996 में जब बीएसपी-अकाली साथ थे तो लोकसभा की 13 में से 11 सीटों पर कब्जा किया था.
गठबंधन के बाद सुखबीर सिंह बादल का कहना है कि इस बार 1+1=2 नहीं बल्कि होगा 11 होगा, उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से, हम 25 साल तक अलग रहे. 1996 में हमने क्लीन स्वीप दर्ज किया था और अब इस बार हम इसे दोहराएंगे.
पंजाब में बीएसपी की ताकत पर नजर डालें तो दोआबा इलाके में पार्टी का ठीक ठाक असर है. होशियारपुर, कपूरथला, जालंधर और नवांशहर इसी इलाके में आते हैं. बहुजन समाज पार्टी ने इस साल फरवरी में हुए नगर निकाय चुनाव के दौरान यहां अच्छी मौजूदगी दर्ज कराई थी. इन नगर निगमों में पार्टी ने 17 सीटों पर जीत हासिल की थी.
32 फीसदी दलित वोट किस तरफ जाएगा?
देश में सबसे ज्यादा 32 फीसदी दलित आबादी पंजाब में रहती है, जो राजनीतिक दशा और दिशा बदलने की पूरी ताकत रखती है यूपी में दलितों के बीच मजबूत पैठ रखने वाली बीएसपी के संस्थापक कांशीराम पंजाब के होशियारपुर से आते थे. आज की तारीख में अकाली दल और बीएसपी की दोस्ती को सियासत में एक नए प्रयोग के तौर पर देखा जा रहा है.
लेकिन सवाल है कि क्या दलित वोट बैंक सीधे एक मुश्त इस तरफ मुड़ पाएगा, क्योंकि पंजाब का यह वर्ग पूरी तरह कभी किसी पार्टी के साथ नहीं रहा है. दलित वोट आमतौर पर कांग्रेस और अकाली के बीच बंटता रहा है. हालांकि, बीएसपी ने इसमें सेंध लगाने की कोशिश की, लेकिन उसे भी कभी एकतरफा समर्थन नहीं मिला.
वहीं आम आदमी पार्टी के पंजाब में दलित वोटों को साधने के लिए तमाम कोशिश की. लेकिन बहुत हिस्सा उसके साथ नहीं गया. दरअसल पंजाब में जाति का उभार यूपी की तरह नहीं हुआ है. इसकी एक वजह ये है कि सिख धर्म में जाति आधारित समाज नहीं रहा है.
यहां दलितों में वाल्मीकि, रविदासी, कबीरपंथी और मजहबी सिख जैसे टुकड़ों में बंटे समुदाय हैं. इनमें से कुछ तबके कांग्रेस की तरफ तो कुछ अकाली के खेमे में रहे हैं. ऐसे में यहां दलित कभी वोट बैंक नहीं बन पाया. अब 2022 के चुनाव में देखना दिलचस्प होगा कि क्या दलित समुदाय अकाली दल के पक्ष में गोलबंद हो पाता है या नहीं ?
अकेले दम पर पंजाब में कमल खिला पाएगी बीजेपी?
अकाली दल के एनडीए से अलग हो जाने के बाद पंजाब में 2022 की जंग के लिए भारतीय जनता पार्टी ने एकला चलो की नीति अपना लिया है, पार्टी ने साफ कर दिया है कि वह विधानसभा चुनावों में सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. बीजेपी का दावा है कि वो सभी सीटों पर मैदान पर उतरेगी और राज्य में सरकार भी बनाएगी.
बीजेपी पंजाब में इससे पहले अकाली दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ती रही, लेकिन कृषि कानूनों के विरोध के चलते उसने केंद्र से समर्थन वापस ले लिया और इस बार वो बीएसपी के साथ चुनाव लड़ रही है. 1997 के बाद पहली बार बीजेपी पंजाब में अकेले दम पर चुनाव मैदान में उतर रही है.
1997 से लेकर अभी तक पंजाब में अकाली दल और बीजेपी के बीच लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए सीटों के बंटवारे की अंडरस्टैंडिंग चली आ रही थी. जिसके मुताबिक राज्य की 13 लोकसभा सीटों में से 3 पर बीजेपी लड़ती थी 10 पर अकाली, तो वहीं विधानसभा की 117 सीटों में से 23 पर बीजेपी अपने उम्मीदवार उतारती थी, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में पंजाब में कांग्रेस पार्टी ने अकाली दल-बीजेपी गठबंधन से 10 साल बाद सत्ता छीन ली थी, विरोधी जहां किसान आंदोलन से बीजेपी को नुकसान की बात कर रहे हैं तो वहीं बीजेपी फिलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे और केंद्र सरकार के कामकाज को आगे कर ही सारी रणनीति बनाती रही है.
कुल मिलाकर पंजाब की सियासत में इस बार सियासी दलों का राजनीतिक समीकरण काफी बदल चुका है अपने पराए हो गए और पराए अपने हो गए. अब देखना है कि क्या बीजेपी यहां अकेले दम पर कमल खिला पाएगी या अकाली बीएसपी का सियासी प्रयोग सफल होगा, या फिर कांग्रेस सत्ता पर फिर पंजा जमाने में कामयाब होगी, इसका जवाब सभी को 2022 में मिल जाएगा.
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