यूपी में कितना गूंजेगा चुनावी नारा? कौन भरेगा हुंकार, किसे करेगी जनता इनकार

आगामी 2022 में उत्तर प्रदेश समेत 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में हर किसी को इंतजार है कि इस चुनाव में कौन सा नारा गूंजेगा? ऐसा इसलिए कि चुनावों में नारों का अपना अलग ही मजा है.

Written by - Pratyush Khare | Last Updated : Jul 12, 2021, 11:30 PM IST
  • चुनावी नारों का शोर, किसका चलेगा जोर?
  • अबकी बार कौन से नारों की बौछार?
यूपी में कितना गूंजेगा चुनावी नारा? कौन भरेगा हुंकार, किसे करेगी जनता इनकार

नई दिल्ली: देश के चुनावी इतिहास में नारों का बेहद अहम रोल रहा है, हालिया बंगाल चुनाव में नारों का खेल देखने को मिला. खासकर टीएमसी के नारे "खेला होबे" ने जबरदस्त लोकप्रियता बटोरी और सत्ता की हैट्रिक मारने में भी कामयाब रही.

यूपी में चुनावी नारे की क्या भूमिका?

देश के सबसे बड़े सूबे यूपी के चुनाव में बमुश्किल कुछ महीने ही बचे है, यहां भी नारे गढ़ने शुरू हो गए हैं सपा के लिए "राधे राधे हरे हरे अखिलेश भईया घरे घरे" का नारा गढ़ा गया है.

हांलाकि बीजेपी इसे हर हर मोदी घर घर मोदी और बंगाल मे बीजेपी के नारे "हरे कृष्ण हरे हरे पद्मफूल घरे घरे" की कॉपी बता रही है. यूपी के पिछले चुनावी नारों को टटोले तो एक से बढ़कर एक दिलचस्प नारे मिलते हैं 2019 के लोकसभा में "बुआ बबुआ ने मिलाया हाथ, प्रियंका राहुल खाली हाथ, "साइकिल पर हाथी की सवारी, माया अखिलेश सब पर भारी" जैसे नारे चुनावी फिज़ाओं में खूब गूंज रहे थे.

करीब ढाई दशक बाद ऐसा हुआ था कि सपा बसपा साथ आए थे इससे पहले 1993 में जब दोनो साथ थे तब नारा था, "मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गए जयश्री राम" लेकिन सियासत एक सी कभी नहीं रहती, वक्त के साथ सियासी समीकरण और हालात बदलते ही नारे भी बदलते हैं.

2017 के विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस सपा ने हाथ मिलाया तो नारा दिया "यूपी को ये साथ पसंद है" बीजेपी ने इसका जवाब दिया था. "यूपी को ये सात पसंद हैं" इसमें पीएम मोदी अमित शाह सहित 7 नेताओं को जगह दी गई थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में  बीजेपी ने अबकी बार मोदी सरकार का नारा दिया था उसी तर्ज पर 2017 में यूपी में अबकी बार 300 पार का नारा दिया गया और वो हिट भी रहा और बीजेपी ने प्रचंड जीत दर्ज की.

सपा ने 2017 के चुनाव में "काम बोलता है" का नारा दिया लेकिन वो पार्टी के काम नहीं आया, कांग्रेस ने 2017 में सपा से गठबंधन के पहले नारा दिया था 27 साल यूपी बेहाल, लेकिन गठबंधन के बाद "यूपी के लड़के बनाम बाहरीवाले" के नारे को प्रचलित करवाया. वहीं बीएसपी का नारा था "कमल साइकिल पंजा होगा किनारे, यूपी चलेगा हाथी के सहारे", लेकिन 'अबकी बार 300 पार'  के साथ कमल सब पर भारी पड़ा.

लाल किले पर लाल निशान का नारा

अतीत में थोड़ा और पीछे चलें तो नारों की दिलचस्प जुगलबंदी देखने को मिलती है, आजादी के बाद कम्युनिस्टों ने एक नारा दिया था- "देश की जनता भूखी है यह आजादी झूठी है." उनका एक और नारा बहुत लोकप्रिय था- "लाल किले पर लाल निशान मांग रहा है हिन्दुस्तान?" 60 के दशक में भारतीय जनसंघ के कार्यकर्ताओं का नारा था- "जली झोंपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल" इसके जवाब में कांग्रेस का नारा था- "इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं"

समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया का पिछड़ों को सत्ता में पर्याप्त भागीदारी देने के लिए वह नारा आज भी याद किया जाता है जिसमें उन्होंने कहा था- "संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ" इस नारे ने पिछड़ों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई थी. गोरक्षा आंदोलन के दौरान जनसंघ का यह नारा लोगों की जुबान पर चढ़ गया था- "गाय हमारी माता है, देश धर्म का नाता है"

चल गया था गरीबी हटाओ नारे का करिश्मा

इंदिरा गांधी ने 1971 का लोकसभा चुनाव 'गरीबी हटाओ' के नारे पर लड़ा और सफलता पाई. 1974 में जब बिहार में जेपी का आंदोलन शुरू हुआ तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियाँ जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति का नारा बनीं "सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास तुम्हारा है", "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" ये पंक्तियां इमरजेंसी के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बनी. उनका नारे की तरह इस्तेमाल हुआ.

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद "जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिराजी तेरा नाम रहेगा", जैसे नारे ने पूरे देश में सहानुभूति लहर पैदा की, और कांग्रेस को बड़ी भारी जीत हासिल हुई. भाजपा ने अस्तित्व में आने के बाद कई चुनावी नारे दिए, जिनमें लाल गुलामी छोड़कर बोलो वंदेमातरम और 'सबको परखा बार-बार हमको परखो एक बार' जैसे नारे शामिल हैं. इससे पहले, जनसंघ की ओर से आपातकाल के बाद "अटल बोला इंदिरा का शासन डोला" जैसे नारे लगाए गए.

फेल हुआ "इंडिया शाइंनिंग" का नारा

बीजपी के कुछ लोकप्रिय नारों में अटल बिहारी को बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करनेवाला नारा था "अबकी बारी, अटल बिहारी" भाजपा का एक और नारा था "इंडिया शाइंनिंग", लेकिन ये कमाल नहीं कर पाया.

राम मंदिर आंदोलन के दौरान के कई नारों ने जनता को बहुत आंदोलित किया जैसे "सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे", वीपी सिंह को नारों में- "राजा नहीं फकीर है देश की तकदीर है" बताया गया. तो समाजवादी पार्टी ने "जिसने कभी न झुकना सीखा उसका नाम मुलायम है" नारा दिया.

1990 के आसपास तो कई जातिवादी नारे भी गूंजे. तभी "भूरा बाल साफ करो" का नारा दिया गया. भारतीय राजनीति के नाराकोष में बसपा के भड़काऊ नारे अपना अलग स्थान रखते हैं. तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार, ठाकुर बाभन बनिया चोर बाकी सारे डीएस फोर, बनिया माफ, ठाकुर हाफ और ब्राह्मण साफ, जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी ने खूब सुर्खियां बटोरी.

अपने चुनाव चिन्ह 'हाथी' की प्रतिष्ठा में बसपा के इस नारे ने भी काफी धूम मचायी थी- "हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश है" बीएसपी के सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मुले वारा नारा था "ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा"

जरूरी नहीं नारे जीत की गारंटी ही हैं, लेकिन बिना नारे के चुनाव में सियासी तड़का भी नहीं लगता. दरअसल में चुनाव में नारे ही माहौल बनाते हैं. अब देखना है 2022 के महासंग्राम में यूपी की सियासी फिज़ा में कौन कौन से नारे गूंजते हैं और किसके पक्ष में माहौल बनाते हैं.

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