भारत में रविवार को छुट्टी क्यों और किस लिए शुरू हुई थी? पढ़ें- 135 साल पुराने आंदोलन की कहानी

Movement for sunday holiday: लोखंडे ने देखा कि सरकार ने उनकी याचिका को नजरअंदाज कर दिया है, तो उन्होंने पूरे देश में एक आंदोलन शुरू किया जिसे मिल मजदूरों का समर्थन प्राप्त था. वे देश के अलग-अलग हिस्सों में गए और मजदूरों के साथ बैठकें कीं. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण बैठक 1890 में बंबई के रेसकोर्स मैदान में हुई.

Written by - Nitin Arora | Last Updated : Feb 2, 2025, 07:31 PM IST
भारत में रविवार को छुट्टी क्यों और किस लिए शुरू हुई थी? पढ़ें- 135 साल पुराने आंदोलन की कहानी

Sunday Holiday History: कहानी स्वतंत्रता-पूर्व भारत में मजदूरों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले बहुजन आदर्श नारायण मेघाजी लोखंडे के योगदान की, जिनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. नारायण मेघाजी लोखंडे का जन्म 1848 में महाराष्ट्र के ठाणे में हुआ था. वे भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन के जनक हैं. उनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था, लेकिन इससे उन्हें महान उपलब्धियां हासिल करने से नहीं रोका जा सका. वे 'फूलमाली' समुदाय से थे. उनका परिवार अपनी आजीविका के लिए फूलों का व्यवसाय करता था, इसलिए उन्होंने भी यही किया. वे बहुजन आइकन महात्मा ज्योतिराव फुले और उनके अनुयायियों से बहुत प्रभावित थे. स्कूली शिक्षा के दौरान, वे बॉम्बे में सामाजिक गतिविधियों में लगे रहे. उन्होंने बॉम्बे में एक कपड़ा मिल में स्टोरकीपर के रूप में काम किया.

उन्होंने मिल मजदूरों के बीच एक मजबूत नेटवर्क बनाया, कई बिल्डरों और ठेकेदारों सहित विभिन्न जाति समुदायों के लोग उनके साथ जुड़ गए. अपने कुछ तेलुगु मित्रों की मदद से उन्होंने 1880 में 'दीनबंधु' अखबार का प्रकाशन करवाया, यह अखबार उस समय मजदूर वर्ग की आवाज बन गया.

लोखंडे के साथ ज्योतिराव ने बॉम्बे में कपड़ा मजदूरों की बैठकों को भी संबोधित किया. लोखंडे ने भारत में पहला मजदूर संघ शुरू किया-'बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन.'

अखबार नियमित रूप से अप्रभावी प्रबंधन और मजदूरों की समस्याओं को उजागर करता था, और बताता था कि मजदूरों को किस दयनीय स्थिति में काम करना पड़ता था. लोखंडे के लेखन ने कई मजदूरों के दिलों को छुआ और क्रांतिकारियों पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा.

मजदूरों का शोषण
फैक्ट्री मालिक और प्रबंधन मजदूरों का इस हद तक शोषण करते थे कि कई मजदूर काम करते हुए फैक्ट्री के अंदर ही मर जाते थे. यह औद्योगिकीकरण का दौर था और बॉम्बे इलाके में कई कपास, कपड़ा और जूट मिलें खुल रही थीं. गांवों में गुजारा न कर पाने वाले कई किसान काम के लिए शहरों की ओर जा रहे थे, लेकिन फैक्ट्री मालिक अधिक पैसे कमाने के चक्कर में मजदूरों को बेहद खराब परिस्थितियों में काम पर लगा देते थे.

मजदूरों का हाल
मिलों में मजदूरों को सूर्योदय से सूर्यास्त तक काम करने के लिए मजबूर किया जाता था, सर्दियों में काम के घंटे 10-12 घंटे और गर्मियों में 13-14 घंटे होते थे. उद्योग खुलने का समय तय नहीं था, मजदूर गेट के सामने इकट्ठा होते थे. कुछ मजदूर सुबह देर से आने से बचने के लिए मिल गेट के बाहर ही सो जाते थे. मजदूरों को काम करने के लिए कोई तय घंटे नहीं दिए गए थे और दोपहर के भोजन के लिए कोई ब्रेक नहीं था. मजदूरों को काम करते हुए ही अपना दोपहर का खाना खाना पड़ता था, न ही मिल मालिकों ने मजदूरों को किसी तरह की सफाई या बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराईं - उन्हें शौचालय का इस्तेमाल करने के लिए बहुत दूर तक पैदल जाना पड़ता था.

मशीनरी संचालन में उच्च तापमान आम बात थी, जिसका श्रमिकों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता था. यहां तक ​​कि जब कारखाने रखरखाव के लिए बंद होते थे, तब भी किसी भी श्रमिक को छुट्टी नहीं दी जाती थी. उन्हें सफाई और मरम्मत के लिए आना पड़ता था. पुरुषों के अलावा, महिलाओं और बच्चों को भी कारखानों में काम पर रखा जाता था और उनका शोषण भी किया जाता था.

ट्रेड यूनियन की स्थापना हुई
भारत सरकार ने 1881 में पहला कारखाना अधिनियम पारित किया था. 1884 में पहली बार 'बॉम्बे मिल्स हैंड्स एसोसिएशन' के नाम से एक ट्रेड यूनियन की स्थापना हुई, तब नारायण लोखंडे इसके अध्यक्ष बने. एसोसिएशन के माध्यम से उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजों से 1881 में पारित कारखाना अधिनियम को बदलने की बात की. हालांकि, सरकार ने उनकी मांगों को सिरे से खारिज कर दिया. उसी साल लोखंडे ने देश की पहली मजदूर सभा का आयोजन किया. 

उन्होंने मजदूरों के लिए रविवार की छुट्टी की मांग उठाई. इसके साथ ही भोजन के लिए अवकाश, काम के घंटे तय करने, काम के दौरान दुर्घटना होने पर मजदूर को सवेतन छुट्टी देने और दुर्घटना में मजदूर की मौत होने पर उसके आश्रितों को मुआवजा देने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई. पेंशन मिलने के प्रस्तावों को मंजूरी दी गई.

इन सभी मांगों को लेकर एक याचिका तैयार की गई, जिसमें 5500 मजदूरों ने हस्ताक्षर किए. जैसे ही यह याचिका फैक्ट्री कमीशन के पास पहुंची, मिल मालिकों ने विरोध शुरू कर दिया. उनकी मिलों में काम करने वाले मजदूरों को क्षमता से दोगुना काम देकर परेशान किया जाने लगा.

आंदोलन शुरू
जब लोखंडे ने देखा कि सरकार ने उनकी याचिका को नजरअंदाज कर दिया है, तो उन्होंने पूरे देश में एक आंदोलन शुरू किया जिसे मिल मजदूरों का समर्थन प्राप्त था. वे देश के अलग-अलग हिस्सों में गए और मजदूरों के साथ बैठकें कीं. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण बैठक 1890 में बंबई के रेसकोर्स मैदान में हुई, जिसमें बंबई और आस-पास के जिलों से लगभग 10,000 मजदूरों ने हिस्सा लिया. इस बैठक का असर यह हुआ कि मजदूरों ने मिलों में काम करने से इनकार कर दिया.

अब यह देशभक्ति आंदोलन देशव्यापी हड़तालों का रूप ले चुका था. मुंबई समेत सूरत, अहमदाबाद, शोलापुर, नागपुर की कई फैक्ट्रियों में ताले लग गए.

सरकार झुक गई
आखिरकार सरकार को विरोध प्रदर्शनों की भनक लगने लगी और वह मजदूरों की मांगों के आगे झुक गई. नतीजतन, फैक्ट्री लेबर कमीशन का गठन किया गया, जिसमें मजदूरों का प्रतिनिधित्व लोखंडे ने किया. इसके बाद मजदूरों को भोजन अवकाश मिलना शुरू हुआ और काम के घंटे तय किए गए, लेकिन साप्ताहिक अवकाश अभी भी तय होना बाकी था.

लोखंडे ने 1890 में एक बार फिर मजदूर आंदोलन की शुरुआत की. इस संघर्ष में कई महिला कर्मचारियों ने भी हिस्सा लिया. फिर 10 जून 1890 को भारत को रविवार को अपना पहला साप्ताहिक अवकाश मिला. भारत में मजदूर आंदोलन और ट्रेड यूनियनों के विकास में नारायण मेघाजी लोखंडे के योगदान को जितना पहचाना जाना चाहिए, उतना नहीं माना जाता.

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