नई दिल्ली: Chikankari Embroidery: नवाबों का शहर लखनऊ अपनी शानो-शौकत, तहजीब, नवाब शाही और बिरयानी के लिए बखूबी जाना जाता है. अदब और इल्म का ये शहर लाजवाब बिरयानी और कबाब के अलावा अगर और किसी खास चीजे के लिए मशहूर है तो वह है यहां का चिकनकारी कढ़ाई . मलमल के कपड़े में सफेद धागों से की जाने वाली ये कलाकारी हर महिला के आउटफिट का हिस्सा बन चुकी है. शायद ही कोई महिला या लड़की हो, जिसे चिकनकारी का कुर्ता न पसंद हो. जितना खूबसूरत चिकनकारी का कुर्ता होता है उतना ही खूबसूरत इसका इतिहास भी है.
क्या है चिकनकारी कुर्ता
लखनऊ की सबसे पुरानी और बेहतरीन टेक्सटाइल डेकोरेशन स्टाइल में शामिल चिकनकारी कढ़ाई का नाम तुर्किश शब्द 'चिक' से लिया गया है. जिसका अर्थ है किसी कपड़े में छोटे-छोटे छेद करना. चिकनकारी की कढ़ाई पहले सफेद मलमल के कपड़े पर सफेद मलमल के धागे से की जाती थी, लेकिन अब वक्त बदलने के साथ ही इसकी कढ़ाई कई रंगीन कपड़ों पर भी की जाने लगी है.
चिकनकारी का इतिहास
इतिहास को पलटकर देखें तो चिकनकारी कढ़ाई का ईजाद मुगल काल से हुआ है. माना जाता है कि यह कला मुगल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां के दौर में भारत आई थी और वहीं से इसका परवान चढ़ता गया. कहा जाता है कि चिकनकारी की इस नायाब कला को नूरजहां की एक कनीज ने बाकी लोगों से रूबरू करवाया था. यह कला दिखने में बेहद ही हसीन थी, जिसके चलते हर कोई इसे सीखने बैठ जाता था. बत दें कि लखनऊ के गांवों में करीब 5 हजार घरों की महिलाएं आज भी चिकनकारी का काम करती हैं.
भारत में कैसे पहुंचा चिकनकारी
माना जाता है कि चिकनकारी का काम सबसे पहले ईरान में शुरू हुआ था. कहा जाता है कि ईरान के कई ईलाकों में काफी झीलें हुआ करती थी. झील में मौजूद स्वान की लचीली गर्दन से टांके का कॉन्सेप्ट आया और चिकनकारी कला की शुरुआत हुई. यह कला ईरान से दिल्ली पहुंची, दिल्ली से मुर्शिदाबाद और मुर्शिदाबाद से बांग्लादेश की राजधानी ढाका पहुंची, जो पहले भारत का ही हिस्सा हुआ करता था. इसके बाद इस कला ने लखनऊ में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई.
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