अलवर में कलाकंद की शुरुआत एक पंजाबी परिवार ने की थी. भारत पाकिस्तान के विभाजन के बाद अलवर आये बाबा ठाकुर दास जो दूध का व्यवसाय करते थे, एक दिन दूध फटने पर उन्होंने उसे कढ़ाई में गर्म कर उसे फेंटना शुरू किया. फिर उसमें चीनी डाली. जब वह गाढ़ा हो गया तब एक सिल्वर के भगोने में रख दिया.
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Alwar: अलवर जिले की पहचान यहां की मिठास से है, जिसे कोई उसे अलवर का मावा कहता है तो कोई उसे पंजाबी कलाकंद. जी हां, यह वो मिल्क केक है, जिसकी मांग नेता से लेकर अभिनेता तक सब करते हैं. सब इसके स्वाद के लिए लालायित रहते हैं.
बताते हैं आखिर क्या है इस कलाकंद में, कैसे बनता है, कैसे इसकी शुरुआत हुई. अलवर के कलाकंद का नाम आते ही मुंह में स्वाद आ जाता है. इसकी पहचान देश ही नहीं, विदेशों तक भी है. अलवर आने वाले पर्यटक भी इसे अपने साथ ले जाना नही भूलते. यहां तक कि नेता हो या अभिनेता सब अलवर का बाबा कलाकंद पसंद करते हैं.
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अलवर में कलाकंद की शुरुआत एक पंजाबी परिवार ने की थी. भारत पाकिस्तान के विभाजन के बाद अलवर आये बाबा ठाकुर दास जो दूध का व्यवसाय करते थे, एक दिन दूध फटने पर उन्होंने उसे कढ़ाई में गर्म कर उसे फेंटना शुरू किया. फिर उसमें चीनी डाली. जब वह गाढ़ा हो गया तब एक सिल्वर के भगोने में रख दिया. दूध का टेम्परेचर ज्यादा था जब उसे सिल्वर के भगोने में रखा गया तो वह कलाकंद अंदर से लाल हो गया.
वह खाने में बेहद स्वादिष्ट बना लेकिन लोगों को लगा बाबा ने इसमें कुछ नॉनवेज मिलाया है तब बाबा ने उसे सबके सामने बनाकर खिलाया तो अंगुलियों को चाटते रहे. उसे आज कोई कलाकंद कहता है कोई अलवर का मावा. 1947 में अलवर आने के बाद घंटाघर होपसर्कस के पास दुकान खोली, जिसे आज 75 वर्ष हो चुके हैं यानी अलवर का कलाकंद भी अमृत महोत्सव मना रहा है. अभिषेक तनेजा ने बताया आज कलाकंद नेता से लेकर अभिनेता तक सबकी पसंद बन चुका है.
लोगों का भरोसा कायम रखना चुनौती
यहां मौजूद महेंद्र तनेजा का कहना है कि आज के इस दौर में विश्वास बनाये रखना किसी चुनौती से कम नहीं है. वह अच्छी क्वालिटी का दूध लेते हैं, जिसे वह अपनी लैब में चेक करते है. अच्छी क्वालिटी के दूध के साथ ही अच्छा कलाकंद तैयार होता है.
आशीष का कहना है कि मिलावटखोरों से दूर रहकर बाजार में विश्वास बनाये रखने के लिए ईमानदारी से काम करना होता है. आशीष ने कहा उन्हें बाबा ने सिखाया अच्छा खाओ, अच्छा खिलाओ.
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