नई दिल्ली: विक्की कौशल की फिल्म 'छावा' की वजह से वीर मराठा छत्रपति संभाजी राजे की वीरता के किस्से एक बार फिर से चर्चा में आ गए हैं. छत्रपति शिवाजी महाराज के निधन के बाद संभाजी ने ही मराठा साम्राज्य की सत्ता संभाली थी. जब 3 अप्रैल, 1680 को शिवाजी महाराज का निधन हुआ तब तक उन्होंने न तो कोई वसीहत छोड़ी थी और न ही किसी कोई उत्तराधिकारी नियुक्त किया था. वहीं, संभाजी को उत्तराधिकारी बनने से पहले कई पारिवारिक षडयंत्रों से होकर गुजरना पड़ा था. 20 जुलाई, 1680 को उन्हें छत्रपति बना दिया गया. इसके बाद संभाजी ने भी उसी वीरता से मुगलों का सामना किया जैसे उनके पिता शिवाजी महाराज किया करते थे, लेकिन अपने ही रिश्तेदारों की गद्दारी ने उन्हें मात दिलवा दी. चलिए जानते हैं ये वाकया.
औरंगजेब की सेना को चटाई धूल
बात है वर्ष 1682 की, जब औरंगजेब की अगुवाई में मुगल सेना दक्षिण पर कब्जा करने के लिए तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश में लगी हुई थी. औरंगजेब ने इस दौरान मराठा साम्राज्य को चारों ओर से घेरने की तैयारी की, लेकिन छत्रपति संभाजी भी अपनी सेना के साथ मुगलों को जवाब देने के लिए तैयार थे. उन्होंने अपनी जबरदस्त गुरिल्ला तकनीक का इस्तेमाल किया और औरंगजेब की सेना को धूल दिया. ऐसे में संभाजी ने मुगलों के एक के बाद एक कई बार युद्ध में हराया.
मराठाओं ने दिया मुंहतोड़ जवाब
इसी बीच मराठा सेना ने बुरहानपुर में जबरदस्त हमला कर दिया, जहां मुगल सेना पहले ही तैनात थी. इस हमले में मुगल सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा. मराठा सेनाओं के हमलों का ही असर था कि 1685 तक मुगल किसी भी मराठा साम्राज्य को हासिल नहीं कर पाए. संभाजी महाराज के शासनकाल में भी मुगलों ने मराठा साम्राज्य को कब्जाने की कोशिश कीं, लेकिन इस दौरान उन्हें गोलकुंडा और बीजापुर पर कब्जा जमाने में सफलता मिल गई. 1687 में मुगलों ने हमला किया जिसका मराठाओं ने मुंहतोड़ जवाब दिया.
संभाजी ने खो दिया विश्वसनीय सेनापति
इस युद्ध में बेशक संभाजी की सेना को जीत हासिल हुई, लेकिन उनके सेनापति और विश्वासपात्र हंबीरराव मोहिते शहीद हो गए. अपने सेनापति की मौत का मराठा सेना को तगड़ा झटका लगा. संभाजी की इसी कमजोरी का फायदा उनके रिश्तेदार मराठा साम्राज्य के खिलाफ उठाने लगे. उन्होंने संभाजी को लेकर साजिशें रचनी शुरू कर दी थीं. वह उनकी एक-एक हरकत पर नजर रखने लगे थे.
दुश्मन रिश्तेदारों को मिला मौका
उन दिनों संभाजी महाराज तीन अलग-अलग मोर्चों पर पुर्तगालियों, निजाम और मुगलों का सामना कर रहे थे. इसमें उन्हें सफलता हासिल हुई. इसके बाद उन्हें संगमेश्वर में एक अहम बैठक की, जिसके बाद 31 जनवरी, 1689 को संभाजी रायगढ़ के लिए निकलने वाले थे. यही वो मौका था जिसकी उनके दुश्मन रिश्तेदारों को लंबे वक्त से तलाश थी. गनोजी शिर्के और कान्होजी शिर्के ने संभाजी को अपनी साजिश में फंसाने की एक योजना बनाई.
कौन थे गनोजी शिर्के और कान्होजी शिर्के
बताया जाता है कि गनोजी शिर्के, संभाजी की पत्नी येसुबाई के भाई थे. कुछ इतिहासकारों ने गनोजी और कान्होजी को सगा भाई कहा है तो कुछ ने उन्हें किसी रिश्ते जरिए भाई बताया है. कहा जाता है कि इनके पिता पिलाजी शिर्के मुगलों के सरदार हुआ करते थे और उनके शासन वाले दाभोल पर छत्रपति संभाजी महाराज ने कब्जा जमा लिया था. इसके बाद गनोजी को अपने साम्राज्य में प्रभावनवल्ली सूबे का सूबेदार भी बना दिया. रिपोर्ट्स की मानें तो शिर्के भाई, संभाजी से इसलिए नाराज थे क्योंकि उन्होंने उनके पिता से दाभोल छीन लिया था और इसी बात का वह उनसे बदला लेना चाहते थे.
मुगलों की साजिश में फंस गए गनोजी
संभाजी के परिवार में आई इसी दरार का मुगलों ने बखूबी फायदा उठाया. एक बार मुगल सेना के सरदार मकरब खान ने गनोजी शिर्के से मुलाकात की और उन्हें लालच देते हुए कहा कि अगर वह उन्होंने संभाजी को पकड़ने में उनकी मदद की तो वह दक्षिण का आधा राज्य उन्हें सौंप देंगे. आखिर गनोजी शिर्के मुगलों की इस चाल में फंस गया. ऐसे में जब संभाजी संगमेश्वर ने रायगढ़ के निकले तो उसने उन्हें रास्ते में ही फंसाने की योजना बना ली. संभाजी जैसे ही निकलने लगे तो गनोजी ने कहा कि इस इलाके के लोग उनका सम्मान करना चाहते है. इसके लिए उन्हें रास्ते में कुछ देर रुकना होगा.
रिश्तेदारों के जाल में फंसे संभाजी
संभाजी राजी हो गए. उन्होंने अपनी सेना की एक बड़ी टुकड़ी पहले ही रायगढ़ के लिए रवाना कर दी और अपनी सुरक्षा के लिए सिर्फ 200 सैनिकों को ही साथ रखा. इस बात की जानकारी गनोजी ने तुरंत मुगल सेना के सरदार मुकरब खान को पहुंचा दी. ऐसे में मुकरब अपने 500 सैनिकों के साथ संभाजी पर हमला करने के लिए तैयार था. संभाजी रायगढ़ के लिए जिस रास्ते से जा रहे थे उनके बारे में सिर्फ मराठों को ही पता था. ये रास्ता इतना संकीर्ण था कि यहां से एक बार में केवल एक ही सैनिक निकल सकता था.
औरंगजेब ने इस्लाम कबूलने का बनाया दबाव
ऐसे में मराठा सैनिक जैसे ही इस रास्ते से निकलते, आगे जाकर मुगल सेना या तो उन्हें बंदी बनाती जा रही थी या शहीद कर रही थी. हालांकि, औरंगजेब का आदेश था कि संभाजी को जिंदा ही पकड़ा जाए. 1 फरवरी, 1689 को संभाजी को बेड़ियों में बांधकर तुलापुर किले लाया गया. वहां औरंगजेब ने उन पर इस्लाम कबूलने के लिए दबाव बनाना शुरू किया, इस दौरान उन्हें यातनाएं दी गईं.
संभाजी को दी यातनाएं
छावा (शेर के बच्चे) को लगभग 38 दिनों तक उल्टा लटका कर खूब पीटा गया. उनके नाखून उखाड़ दिए गए, आंखें फोड़ दीं. जीभ काट दी गई, लेकिन संभाजी ने मुगलों के सामने घुटने नहीं टेके. मुगल हर दिन एक-एक कर उनके अंग काटकर तुलापुर नदी में फेंकते जा रहे थे. अंत में 11 मार्च 1689 को संभाजी महाराज का सिर धड़ से अलग कर दिया गया. मरते-मरते भी छावा औरंगजेब के आगे नहीं झुका.
क्या हुआ गनोजी का अंजाम
बताया जाता है कि संभाजी के निधन के बाद गनोजी शिर्के ने मुगलों का साथ देते हुए जिंजी पर कब्जा जमाने में उनकी मदद की. हालांकि, उस दौरान उसने छत्रपति राजाराम महाराज और उनके परिवार को जिंजी से सुरक्षित बाहर निकालने में पूरी मदद की. औरंगजेब को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने शिर्के को बंदी बना लिया, लेकिन औरंगजेब की मौत के बाद उसे आजाद कर दिया गया. कहते हैं कि शिर्के छत्रपति शाहूजी महाराज के समय में मराठा साम्राज्य में शामिल हो गया.
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