Mohan Lal Bhaskar: किताबों और किस्से-कहानियों में जासूसी के बारे में सुनना और पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. फिल्मों में भी जासूसी पर बनी मजेदार और दिलचस्प कहानियां देख चुके हैं. हालांकि, असल जिंदगी का जासूस काल्पनिक दुनिया से बिल्कुल अलग होता है. दुनिया में कम ही लोग ऐसे हैं जो जासूस बनकर एक गुमनामी की जिंदगी जीना पसंद करते होंगे, क्योंकि इनके जीवन घर-परिवार, धर्म और रिश्तेदार सबकुछ उनका काम ही होता है. वहीं, अगर ये पकड़े जाएं तो अपना देश ही इन्हें पहचानने से भी इनकार कर देता है. ऐसे में चलिए आज एक ऐसे जासूस की कहानी जानते हैं, जिसकी वीरता देश आप भी उसे सलाम करने पर मजबूर हो जाएंगे.
कहानी मोहन लाल भास्कर की
पूरी दुनिया में कई जासूस आज भी किसी न किसी देश की जेल में बंद प्रताड़नाएं झेल रहे हैं. इन जासूसों का जीवन उससे कई गुना ज्यादा कठिन होता है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते. हालांकि, बुरे से बुरे हालात होने के बावजूद ये जासूस दुश्मन देश के सामने कभी अपने देश का कोई राज नहीं उगलते. आज हम आपको मोहन लाल भास्कर नाम के एक ऐसे जासूस की कहानी बताने जा रहे हैं, जिन्होंने पाकिस्तान में ही रहकर उसकी परमाणु योजना के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर ली. हालांकि, इसके बाद उन्हें की साल पाकिस्तान की जेल में भी बिताने पड़े.
किताब में किए खुलासे
मोहन लाल भास्कर ने अपनी किताब 'An Indian Spy In Pakistan' में उन्होंने अपनी जिंदगी के बारे में कई खुलासे किए हैं. इसके मुताबिक, जब उन्होंने होश संभाला तब खुद को एक मजदूर और अखबार बांटने वाले लड़के के रूप में पाया. हालांकि, इन मुश्किल हालातों के बीच भी वह पढ़ाई से दूर नहीं हुए. M.A और B.Ed. की पढ़ाई पूरी कर वह सिक्कीम सरकार के टीचर्स ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में वाइस प्रिंसिपल बन गए. वह 1961 में धारका के बने, इसके बाद 1962 में वह हिन्दी डेली के उप-संपादक के तौर पर कार्यरत हुए.
देशभक्ति की भावना रही धधकती
मोहन लाल के मन में हमेशा से ही देशभक्ति की आग धधकती रहती थी, लेकिन ये आग उस समय और भड़क पड़ी जब 1965 में पाकिस्तान और भारत के बीच जंग छिड़ी. उनका जन्म भारत-पाक के बॉर्डर से सटे इलाके पंजाब के अबोहर में हुआ था. बॉर्डर का माहौल देखकर उनके दिल में अक्सर ये लालसा जागती थी कि पाकिस्तान में क्या चल रहा होगा. इसी दौरान एक बार उन्होंने शहीद भगत सिंह की समाधि पर लगने वाले मेले में देशभक्ति की भावना को जागृत करते हुए कुछ पंक्तियां सुनाई, जिसकी खूब चर्चा भी हुई.
यहां से बदली जिंदगी
मोहन लाल की किताब में आगे बताया गया है कि जब वह मंच से नीचे उतरे तो एक शख्स उनकी ओर बढ़ा और उन्हें ललकारते हुए कहा, 'भास्कर साहब, देश के लिए पंक्तियां तो आसानी से पढ़ी जा सकती हैं, लेकिन देश के लिए मरना बहुत कठिन है. क्या आप में वाकई शहीद भगत सिंह वाला शहादत भाव है?' इतना सुनने के बाद मोहन लाल ने रौब में कहा, 'साहब जब भी सीमा पर गोली चले तो बुला लीजिएगा, आपसे चार कदम आगे ही रहूंगा. अगर मेरे कदम पूछे मुड़ने लगे तो गोली मार देना. अगर कभी भी आपको देश के लिए मेरी जरूरत महसूस हो तो जान हाजिर है.' इसके बाद मोहन लाल का जासूस बनने का सफर शुरू होने जा रहा था.
खतना तक कराया
कुछ वक्त के बाद मोहन लाल खुफिया एजेंसी RAW के साथ जुड़ गए और अपने मिशन को पूरा करने के लिए पाकिस्तान चले गए, जहां वह मोहम्मद असलम बनकर रहे. इस दौरान वह पाकिस्तान के लोगों के रहन-सहन के साथ ऐसे रम गए कि कोई अंदाजा ही नहीं लगा सकता था कि वह कोई हिन्दुस्तानी जासूस हैं. इतना ही नहीं, उन्होंने खतना तक करवा लिया था. फिर उन्होंने पाकिस्तान में रहकर भारत के लिए उनके परमाणु कार्यक्रम की जानकारियां जुटाने लगे.
गद्दारी का शिकार हो गए मोहन लाल
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि मोहन लाल ने 1967 में मिलिट्री इंटेलिजेंस में भर्ती ले ली. उन्होंने दावा किया कि इससे पहले तक वह 16 बार घुसपैठ कर चुके थे. 1968 की बात है जब मोहन लाल एक काउंटर इंटेलीजेंस ऑपरेशन के साथ जुड़े. इसी दौरान वह किसी की गद्दारी के शिकार हो गए. बताया जाता है कि उनके साथ एक और एजेंट था जो भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए ही जासूसी कर रहा था. उसी की गद्दारी की वजह से मोहन लाल का पर्दाफाश हो गया.
जेल में बुरी तरह किए गए प्रताड़ित
मोहन लाल को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें जेल में बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया. पाकिस्तान में कैदी के तौर पर उन्हें लाहौर, मियांवली, मुल्तान और कोट लखपत जैसी जेलों में बारी-बारी रखा गया. मोहन लाल का दावा है कि कोट लखपत में सजा काटने के दौरान यहां जेल में उनकी मुलाकात पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टों से भी हुई. उन्होंने इस बात का भी दावा किया है कि 1971 में जब उन्हें मियांवली जेल ले जाया गया तो वहां बांग्लादेश के जनक माने जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान से भी उनकी मुलाकात हुई.
कैसे हुए रिहा
पाकिस्तान की जेल से भास्कर को वर्ष 1971 में उस समय रिहा किया गया था जब भारत-पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता साइन किया गया. समझौते के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री भुट्टो पाक की जेल में बंद सभी भारतीय कैदियों को रिहा करने के लिए तैयार हो गईं. इसी दौरान पाकिस्तान की अलग-अलग जेलों से रिहा किए गए भारतीयों में एक नाम मोहन लाल भास्कर का भी था.
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