Bhopalgarh Vidhansabha Seat : जोधपुर की भोपालगढ़ विधानसभा सीट से पांच बार विधायक रहे परसराम मदेरणा 1998 में मुख्यमंत्री बनने से चुक गए थे, अब इस कांग्रेस के गढ़ के समीकरण बदल चुके हैं, यहां कांग्रेस से ज्यादा मजबूत हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी हो चुकी है, पढ़ें इस सीट का इतिहास और समीकरण...
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Bhopalgarh Vidhansabha Seat : जोधपुर की भोपालगढ़ विधानसभा सीट राजस्थान के दिग्गज नेता रहे परसराम मदेरणा की कर्म भूमि रही है. कहा जाता है कि परसराम मदेरणा वह शख्सियत है जिनकी छत्रछाया में अशोक गहलोत सत्ता के शिखर पर पहुंचे. हालांकि अब इस सीट पर कांग्रेस की पकड़ कमजोर हो गई है. कई दशकों तक इस सीट पर राज करने वाली कांग्रेस पिछले 15 सालों से इसे जीत नहीं पाई है. इस सीट से बड़ी चुनौती नागौर सांसद हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी दे रही है.
भोपालगढ़ सीट ने कईयों को राजनीतिज्ञ बनाया है. इसके सबसे बड़े उदाहरण परसराम मदेरणा रहे. जो यहां से पांच बार विधायक चुने गए. 1972 में परसराम मदेरणा ने पहली बार यहां से जीत हासिल की. इसके बाद उन्होंने 1977, 1980, 1990 और 1998 में जीते. इसके बाद उन्होंने अपनी विरासत अपने बेटे महिपाल मदेरणा को सौंप दी. परसराम मदेरणा सरपंच से लेकर विधायक-मंत्री और बाद में राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष भी बने जबकि इसी सीट से जीत दर्ज करने वाली भाजपा नेता कमसा मेघवाल भी वसुंधरा सरकार के दौरान मंत्री बनी. इसके बाद राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के टिकट पर जीत दर्ज करने वाले पुखराज गर्ग भी अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने.
परसराम मदेरणा पांच बार भोपालगढ़ से विधायक बने और फिर मंत्री भी रहे. 1998 में एक दौर ऐसा भी आया जब विधानसभा चुनाव परसराम मदेरणा के चेहरे पर ही लड़ा गया. इस चुनाव में राजस्थान के जाट एकजुट नजर आए, जबकि इसी एकजुटता के चलते राजस्थान में 200 सीटों में से 153 सीटें हासिल करने में कांग्रेस कामयाब रही. हालांकि परसराम मदेरणा मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए. कहा जाता है कि कांग्रेस हाईकमान के आदेश के बाद जयपुर में एक विधायक दल की मीटिंग बुलाई गई. इस मीटिंग में दिल्ली से दिग्गज नेता आए. जिनमें माधवराव सिंधिया से लेकर गुलाम नबी आजाद तक मौजूद थे. इस बैठक से पहले दिल्ली से आए दूतों ने एक-एक करके सभी विधायकों से मुलाकात की और उन्हें कहा कि मैडम चाहती हैं अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बनें. अशोक गहलोत उस वक्त तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष थे, इस बैठक में एक लाइन का प्रस्ताव पास किया गया और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने. जबकि परसराम मदेरणा को सिर्फ विधानसभा अध्यक्ष पद से राजी होना पड़ा. हालांकि साल 2003 के चुनाव के बाद परसराम मदेरणा ने सियासत से संयास ले लिया.
भोपालगढ़ विधानसभा क्षेत्र के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से एमपी राम ने चुनावी ताल ठोकी तो वहीं उन्हें चुनौती देने के लिए स्वराज पार्टी से आर सिंह चुनावी मैदान में उतरे. इस चुनाव में आर सिंह के पक्ष में 19,113 वोट पड़े तो वहीं एमपी राम को 26,104 मतदाताओं ने समर्थन दिया और उनकी जीत हुई. इसके साथ ही एमपी राम भोपालगढ़ विधानसभा क्षेत्र के पहले विधायक चुने गए.
1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस नेता परसराम मदेरणा चुनावी मैदान में उतरे. परसराम मदेरणा इससे पहले ओसियां विधानसभा क्षेत्र से विधायक रह चुके थे. 1957 और 1962 के विधानसभा चुनाव में परसराम मदेरणा ने ओसियां से जीत हासिल की, लेकिन परिसीमन के बाद बदले समीकरण के बाद परसराम मदेरणा भोपालगढ़ से चुनावी मैदान में उतरे. जबकि उनको सबसे कड़ी टक्कर निर्दलीय उम्मीदवार जसवंत सिंह चौधरी ने दी. हालांकि बड़े नेता के रूप में स्थापित हो चुके परसराम मदेरणा की प्रचंड जीत हुई और उनके समर्थन में 43,323 मतदाताओं ने वोट किया.
इस चुनाव में एक बार परसराम मदेरणा चुनावी मैदान में थे, परसराम मदेरणा को जनता पार्टी के उम्मीदवार भेराराम से चुनौती मिली, लेकिन इस बेहद करीबी मुकाबले में 25,856 वोट पाकर भी भैराराम जीत हासिल नहीं कर पाए, जबकि 26,558 वोटों के साथ परसराम मदेरणा एक बार फिर जीत कर राजस्थान विधानसभा पहुंचे.
1980 के आते-आते परसराम मदेरणा का प्रभाव ना सिर्फ जोधपुर और मेवाड़ तक रह गया था, बल्कि वह राजस्थान के बड़े नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे. हालांकि इस चुनाव में कांग्रेस दो फाड़ से जूझ रही थी, लेकिन इसके बावजूद परसराम मदेरणा कांग्रेस (आई) की ओर से चुनावी मैदान में उतरे. जबकि जनता पार्टी के नारायण राम बेड़ा ने उन्हें इस चुनाव में चुनौती पेश की. हालांकि परसराम मदेरणा की जीत हुई.
इस चुनाव में नारायण राम बेड़ा और परसराम मदेरणा एक बार आमने-सामने थे, लेकिन अबकी बार नारायण राम बेड़ा लोक दल के उम्मीदवार बने. जबकि परसराम मदेरणा कांग्रेस की ओर से चुनावी मैदान में उतरे. लेकिन यह चुनाव भोपालगढ़ के सियासी इतिहास को बदलकर रखने वाला था. इस चुनाव में लोकदल के नारायण राम बेड़ा की जीत हुई, जबकि परसराम मदेरणा को पहली बार सियासी शिकस्त का सामना करना पड़ा.
1990 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर मुकाबला परसराम मदेरणा वर्सेस नारायण राम भेड़ा था, इस चुनाव में परसराम मदेरणा ने फिर से अपनी शक्ति का एहसास कराया और नारायण राम भेड़ा की हार हुई.
इस चुनाव के आते-आते तस्वीर थोड़ी बदल चुकी थी कांग्रेस ने रामनारायण डूडी पर विश्वास जताया और उन्हें चुनावी मैदान में उतारा जबकि रामनारायण डूडी को चुनौती देने के लिए जनता पार्टी से नारायण राम बेड़ा चुनावी मैदान में उतरे. इस चुनाव में रामनारायण डूडी की जीत हुई और नारायण राम बेड़ा को शिकस्त का सामना करना पड़ा.
1998 के चुनाव में फिर से परसराम मदेरणा की वापसी हुई, उन्हें भेराराम चौधरी ने चुनौती दी लेकिन बीजेपी की रणनीति में सफल नहीं हो सकी और कांग्रेस के परसराम मदेरणा की जीत हुई. यह चुनाव परसराम मदेरणा के चेहरे पर लड़ा गया था और इस चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई और सरकार बनी.
इस चुनाव में परसराम मदेरणा ने अपनी सियासी विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी अपने पुत्र महिपाल मदेरणा को सौंपी, जबकि परसराम मदेरणा से कई बार चुनाव हार चुके नारायण राम बेड़ा एक बार चुनावी ताल ठोकने उतरे और उन्हें बीजेपी ने टिकट दिया. इस चुनाव में महिपाल मदेरणा की जीत हुई और उन्हें 43,659 मतदाताओं ने साथ दिया और वह राजस्थान विधानसभा पहुंचे.
इस चुनाव में जातीय समीकरण बदल चुका था, परिसीमन के बाद यह सीट सामान्य वर्ग से एसटी कैटेगरी की सीट में तब्दील हो चुकी थी. लिहाजा कांग्रेस और भाजपा दोनों को नए चेहरों की तलाश करनी पड़ी. इस चुनाव में कांग्रेस की ओर से हीरा देवी चुनावी मैदान में वही भाजपा ने कमसा मेघवाल को चुनाव में उतारा. कांग्रेस की हीरा देवी को 43,810 मतदाताओं का समर्थन प्राप्त हुआ. वहीं भाजपा की कमसा मेघवाल चुनाव जीतने में कामयाब रही और इसी चुनाव के साथ ही कांग्रेस का एक गढ़ हाथ से निकल गया.
इस चुनाव में बीजेपी ने फिर से कमसा मेघवाल पर विश्वास जताया और उन्हें चुनावी मैदान में उतारा तो वहीं कांग्रेस की ओर से अबकी बार ओमप्रकाश ने चुनावी ताल ठोकी. इस चुनाव में 35,810 मतों के अंतर से कमला देवी की जीत हुई और उन्हें बाद में वसुंधरा राजे की सरकार में राज्यमंत्री भी बनाया गया.
इस चुनाव में मुकाबला सिर्फ भाजपा और कांग्रेस के बीच नहीं था, इस चुनाव में बोतल के साथ ताल ठोकने उतरी हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी एक बड़ी चुनौती बनी. कांग्रेस ने जहां भंवर बलाई को टिकट दिया तो वहीं बीजेपी की ओर से कमसा मेघवाल एक बार फिर चुनावी मैदान में उतरी जबकि आर एल पी ने पुखराज गर्ग पर विश्वास जताया और उन्हें टिकट दिया. यह चुनाव भोपालगढ़ के चुनावी इतिहास में सबसे रोमांचक रहा. क्योंकि चुनावी नतीजे आए तो भाजपा और कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका था. भोपालगढ़ की जनता ने पुखराज गर्ग को 4,962 मतों के अंतर से जीत दिलाई. उन्हें 36% जनता का समर्थन प्राप्त हुआ. जबकि दूसरे स्थान पर कांग्रेस उम्मीदवार भंवर लाल बलाई रहे, जिन्हें 33% जनता ने समर्थन दिया. वहीं भाजपा के टिकट पर दो बार भोपालगढ़ से विधायक रही कमसा मेघवाल के समर्थन में महज 24% जनता ही आई. इसके साथ ही पुखराज गर्ग राजस्थान विधानसभा पहुंचे और बाद में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने.
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