उत्तराखंड के UCC के खिलाफ एकजुट हुए संगठन; जमीयत ने HC में दी खुली चुनौती
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उत्तराखंड के UCC के खिलाफ एकजुट हुए संगठन; जमीयत ने HC में दी खुली चुनौती

Jamiyat Challenge Uttrakhand UCC in High Court: जमीयत उलमा-ए-हिंद के सद्र मौलाना अरशद मदनी ने समान नागरिक संहिता को संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के विरुद्ध और मुल्क की एकता और अखंडता के लिए खतरा बताते हुए High Court में चुनौती दी है. 

मौलाना अरशद मदनी

Jamiyat Ulema Hind Challenge Uttrakhand UCC in High Court:  जनवरी में उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता (UCC) को लागू होने के बाद से लगातार मुस्लिम उलेमा और मजहबी संगठन इसका विरोध कर रहे हैं.  इस कानून के खिलाफ अब जमीयत उलमा-ए-हिंद के सद्र मौलाना अरशद मदनी बुधवार को नैनीताल हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की है. कोर्ट इस मामले पर इसी सप्ताह सुनवाई कर सकता है. हालांकि, इससे पहले ही आज दो लोगों ने उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसपर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सरकार को 6 हफ्तों के अंदर जवाब दाखिल करने को कहा है. 

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UCC मौलिक अधिकारों का हनन करता है
मदनी ने याचिका पर कहा है कि मुल्क के संविधान, लोकतंत्र और कानून के राज को बनाए रखने के लिए जमीयत उलमा-ए-हिंद ने इस उम्मीद के साथ अदालत का दरवाजा खटखटाया है कि हमें इन्साफ मिलेगा. अदालत ही हमारे लिए आखिरी सहारा है. मदनी ने कहा, "हम शरीयत के खिलाफ किसी भी कानून को कबूल नहीं करते हैं. मुसलमान हर चीज से समझौता कर सकता है, लेकिन अपनी शरीयत और मजहब से कोई समझौता नहीं कर सकता है. यह मुसलमानों के वजूद का सवाल नहीं बल्कि उनके हक़ का भी सवाल है. मौजूदा सरकार मुसलमानों को मुल्क के संविधान द्वारा दिए गए हक़ को छीनना चाहती है.  जो लोग किसी मजहबी पर्सनल लॉ पर अमल नहीं करना चाहते है, उनके लिए मुल्क में पहले से ही कानून मौजूद है, तो फिर समान नागरिक संहिता की क्या जरूरत है?"  मदनी ने कहा कि समान नागरिक संहिता  नागरिकों को मिले मौलिक अधिकारों का हनन करता है. 

देश में गौ हत्या पर एक कानून नहीं, तो मुसलामानों के लिए एक कानून क्यों ? 
मौलाना मदनी ने कहा, "सवाल मुसलमानों के पर्सनल लॉ का नहीं बल्कि इस मुल्क के धर्मनिरपेक्ष संविधान और निजाम को उसकी मौजूदा हालत में बनाए रखने का है. संविधान में धर्मनिरपेक्षता का मतलब है कि मुल्क की सरकार का अपना कोई मजहब नहीं है. यहाँ रहने वाले नागरिक अपने धर्म का पालन करने के लिए आज़ाद हैं.  इसलिए  UCC मुसलमानों के लिए किसी भी सूरत में कबूल नहीं है.  यह मुल्क की एकता और अखंडता के लिए भी खतरा है. अक्सर समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 44 को सबूत के तौर पर पेश किया जाता है, और यह प्रचार किया जाता है कि समान नागरिक संहिता का ज़िक्र संविधान में है, जबकि अनुच्छेद 44 सिर्फ एक मार्गदर्शक सिद्धांत है. ऐसे ,लोग संविधान के ही अनुच्छेद 25, 26 और 29 का कोई ज़िक्र नहीं करते हैं, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों और  मजहबी आज़ादी की गारंटी देता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान से मान्यता हासिल है. दूसरी तरफ किसी भी राज्य को समान नागरिक संहिता बनाने का हक़ नहीं है. मदनी ने कहा, "सरकार कहती है कि एक मुल्क में एक कानून होगा, लेकिन हमारे यहां IPC,CRPC के प्रावधान पूरे मुल्क में एक जैसे नहीं हैं. अलग- अलग राज्यों में इनका स्वरूप बदल जाता है. देश में गोहत्या पर भी एक कानून नहीं है." 

शरिया कानून बनाने में सरकार लेती है जमीयत की मदद  
मदनी ने कहा, " आजादी के पहले और बाद में जब भी सम्प्रदायिक ताकतों ने शरिया कानून में दखल दिया, जमीयत उलमा-ए-हिंद ने पूरी ताकत से इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी है. इतिहास इस गवाह है कि जब भी मुल्क में सरकार को शरिया से मुताल्लिक कानून बनाने की ज़रुरत हुई, तो वह कानून जमीयत उलमा-ए-हिंद के मार्गदर्शन में ही बनाए गए हैं. कानून में कई ऐसे दस्तावेज हैं, जिनमें जमीयत उलमा-ए-हिंद का नाम और उसके काम का ज़िक्र है." मदनी ने कहा, "समान नागरिक संहिता को लागू करना एक सोची-समझी साजिश है. साम्प्रदायिक ताकतें नए-नए भावनात्मक और मजहबी मुद्दे उठाकर मुल्क के अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को मुसलसल डर और अराजकता में रखना चाहती हैं." 

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