आजादी से पहले: डिवीजन से चलता था दिल्ली का शासन, फिर कभी वायसराय हुआ करते थे बॉस
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आजादी से पहले: डिवीजन से चलता था दिल्ली का शासन, फिर कभी वायसराय हुआ करते थे बॉस

Delhi Administration: अब जबकि दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आने वाले हैं और राज्य को नया मुख्यमंत्री मिलने वाला है. यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले वर्षों में दिल्ली के शासन व्यवस्था में कोई और बदलाव होता है या नहीं. क्या भविष्य में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलेगा या मौजूदा व्यवस्था ही जारी रहेगी?

आजादी से पहले: डिवीजन से चलता था दिल्ली का शासन, फिर कभी वायसराय हुआ करते थे बॉस

Governance History Delhi: दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम आने वाले हैं और जल्द ही दिल्ली को नया मुख्यमंत्री मिलने वाला है. इस मौके पर हम आपको दिल्ली से जुड़े कुछ ऐसे रोचक तथ्यों से रूबरू करा रहे हैं जो शायद आपकी नजरों से अब तक दूर रहे हों. दिल्ली का प्रशासनिक ढांचा आज जिस स्वरूप में दिखता है वह हमेशा से ऐसा नहीं था. ब्रिटिश शासन के दौरान दिल्ली की स्थिति अलग थी, और इसे नियंत्रित करने के लिए विभिन्न प्रशासनिक व्यवस्थाएँ अपनाई गई थीं. आज हम आपको बता रहे हैं कि आज़ादी से पहले दिल्ली का शासन किस तरह चलता था और किस तरह समय के साथ उसमें बदलाव आए.

ब्रिटिश शासन में दिल्ली का प्रशासन
ब्रिटिश शासनकाल में 1803 में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली पर नियंत्रण किया, तो यहाँ मुगल दरबार में एक रेजिडेंट की नियुक्ति की गई. यह एक प्रकार से ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधि था, जो मुगल सम्राट के प्रशासन को नियंत्रित करता था. लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद जब ब्रिटिश सरकार ने सीधे भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया, तब दिल्ली को पूरी तरह से ब्रिटिश इंडिया में शामिल कर लिया गया. उस समय दिल्ली पंजाब प्रांत का हिस्सा था और इसे एक डिवीजन के रूप में संचालित किया जाता था. इस डिवीजन का प्रमुख अधिकारी "रेजिडेंट कमिश्नर" कहलाता था.

दिल्ली.. बदला प्रशासन
1911 में ब्रिटिश सरकार ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित कर दी. इसके बाद दिल्ली के प्रशासन में महत्वपूर्ण बदलाव आया. 1919 में इसे पंजाब प्रांत से पूरी तरह अलग कर दिया गया और अब इसका प्रशासन सीधे ब्रिटिश वायसराय के अधीन कर दिया गया. दिल्ली का प्रशासनिक प्रमुख "चीफ कमिश्नर" कहलाने लगा, जो सीधे वायसराय का प्रतिनिधि होता था. इस दौरान दिल्ली नगर निगम की भी स्थापना हुई, जिसने शहर के विकास और नागरिक सेवाओं का जिम्मा संभाला. यह व्यवस्था भारत की आज़ादी तक बनी रही.

आजादी के बाद भी केंद्र का नियंत्रण?
1947 में देश की आज़ादी के बाद भी, दिल्ली में प्रशासनिक नियंत्रण केंद्र सरकार के अधीन ही रहा. 1950 में जब भारतीय संविधान लागू हुआ, तो दिल्ली को "भाग ग" के राज्यों में रखा गया और इसे केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया. लेकिन, इसे कुछ हद तक स्वायत्तता देने के लिए 1951 में संसद में "स्टेट एक्ट" पास किया गया, जिसके तहत दिल्ली में 48 सदस्यों वाली विधानसभा बनाई गई. यह दिल्ली की राजनीतिक यात्रा में एक बड़ा कदम था, लेकिन अभी भी मुख्यमंत्री को पूर्ण अधिकार नहीं मिले थे.

दिल्ली में सत्ता संघर्ष की शुरुआत
1951-52 में दिल्ली में पहला विधानसभा चुनाव हुआ, जिसमें कुल 42 सीटों पर मतदान हुआ. कांग्रेस ने 39 सीटें जीतीं और ब्रह्म प्रकाश को दिल्ली का पहला मुख्यमंत्री बनाया गया. वे उस समय मात्र 34 वर्ष के थे. हालांकि, दिल्ली के मुख्यमंत्री के पास पुलिस, ज़मीन और कानून-व्यवस्था पर कोई नियंत्रण नहीं था. यह अधिकार अब भी केंद्र सरकार और दिल्ली के चीफ कमिश्नर (जो बाद में उपराज्यपाल कहलाने लगे) के पास ही थे. यही कारण था कि शुरुआत से ही दिल्ली के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार के बीच सत्ता संघर्ष चलता रहा, जो आज भी कभी-कभी देखने को मिलता है.

मौजूदा स्थिति और विधानसभा चुनाव
वर्ष 1991 में 69वें संविधान संशोधन के तहत दिल्ली को विशेष दर्जा दिया गया और इसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCT) घोषित किया गया. अब दिल्ली में एक चुनी हुई सरकार और विधानसभा तो है लेकिन कई महत्वपूर्ण शक्तियाँ आज भी केंद्र सरकार और उपराज्यपाल के पास बनी हुई हैं. खासकर, पुलिस, भूमि और कानून-व्यवस्था से जुड़े मामलों में दिल्ली सरकार की भूमिका सीमित है.

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